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Siddharth Kumar

Tragedy

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Siddharth Kumar

Tragedy

आज़ादी भी अब सराब लगती है।

आज़ादी भी अब सराब लगती है।

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आज़ादी भी अब सराब लगती है,

देश की हवा कुछ खराब लगती है।


सब्ज़ थी जो ज़मीन, रंगों में रंगी थी जो,

फ़िरदौस वो अब बंजर वीराँ लगती है।


जलती है गलियाँ, कस्बे और कूचे,

मुखौटा पहने मीरों की, ये वस्ल की रात लगती है।


ख़ौफ़ रिसता है हर पल, मेरे तन से बदन से,

अश्कों में मेरे हर पल अब आग लगती है।


उठती आवाज़ों के गले है घुटते,

अब के ज़माने चलती है जो, वो ज़बान कटती है।


खुदा को बेचा है उसने, तख्त-ओ-ताज के बदले,

पुरानी बात है अब ये, ज़मीर की बोली तो सरेआम लगती है।


सबूत माँग ले गर शख़्स कोई, 

पेड़ो से पेड़ होने का,

जड़े है फैली नीचे तक,

वजूद में इन के कुछ तो बात लगती है।


शामें बेरंग सी है और दिन की रोशनी काली,

अब तो आने वाली सुबह भी बर्बाद लगती है।


अब्र की छाओं अब आकर सारे घाव ढक देगी,

कुछ शन बाद बारिश की बूँदें सब ज़ख़्म भी धो देंगी,


मगर उस डर का क्या जो अंदर घर करे है बैठा, 

उसी के पास है जलती एक लौ कुछ कहती है,

मद्धम मद्धम जलती है,

जिसे डर तो किसी का न है,

मगर बारिश से डरती है,


आँसुओ की बारिशें उसे सैलाब लगती है।

ऐसी रिहाई अब अज़ाब लगती है।


आज़ादी भी अब सराब लगती है,

देश की हवा कुछ खराब लगती है।



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