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Lokanath Rath

Abstract

3  

Lokanath Rath

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आज कल......

आज कल......

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आज कल कुछ अजब सा लगता है, 

क्या समझ कर नासमझ ये मन होता है? 

कभी कभी देख कर अनदेखा करते है, 

कभी पाकर खोने की डर सताता है, 

कभी जानकर अनजान बनते हैं, 

कभी हस कर भी कियुं रोना आता है? 

कियुं प्यार मे भी नफरत छुपा रहता है? 

कभी जीत कर भी हरा हुआ लगता है, 

कभी सोते हुए भी जागते रहते है, 

कभी सपने देखना भी डर लगता है, 

कुछ करने को जी करता पर रुक जाते हैं, 

घर की दरवाजा खुला है, पर खुद को कैद मानते हैं, 

आज कल कुछ अजबसा लगता है........ 


कभी ये मन की भ्रम या अकेलापन लगता है, 

कभी ये दुनिया बदली बदली सी लगती है, 

कभी ये हालात की सीकर होना लगता है, 

फिर कभी ये समय की खेल भी लगता है, 

कैसा ये खेल? पास की गली तो सूना सूना लगता है, 

सामने की सड़क तो सन्नाटो से भरी है, 

दिन या रात सब एक जैसे लगता है, 

फूलो की खुशबू महकती है, पर फूल खिलते नहीं हैं, 

आज कल कुछ अजबसा लगता है........... 


ये सब अजब से पल क्यूँ आते हैं? 

दिल की धड़कने ओर बढ़ जाती है, 

इधर देखो तो समय आँख मारता है, 

उधर देखो तो सुबह की सूरज ढलने लगता है, 

फिर अचानक क्यों हसीं आता है? 

शायद जीबन को कोई कहलाता है, 

सूरज जैसे धीरे धीरे तुम ढल जाओगे, ये सच है, 

पर उसके पहले कुछ कर दिखाना है, 

हर किसीको एक दूसरे मे खुशियाँ बाँटना है, 

हर भूखे को खाना खिलाना है, 

हर प्यासे की प्यास बुझाना है, 

दुनिया मे चैन ओर अमन बनाये रखना है, 

अधर्म को मिटाके धर्म की विजय तिलक लगाना है, 

इंसान है हम इंसानियत दिखलाना है, 

कहने से नहीं करके दिखलाना है, 

क्या हम सब तैयार हैं या ओर भी सोना है? 

आज कल कुछ अजबसा लगता है............ !


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