आहा ! मानसून
आहा ! मानसून
आहा ! जब भी मन मेरा
भीगता है मानसूनी बारिश की
'टप-टप' बरसती बूंदों से...
दिल में दबी 'दर्द' की
अनकही दास्ताँ
मेरे मन को भी
भीगोने लगता है...!
किसी शायर की कलम से
अनायास ही कोई गज़ल
ज़िन्दगीनामा बन जाता है...!
मेरी कलम से लिखी गई
पल-पल का एहसास...
मुझे खूबसूरत नज़रों से
रुबरु करवाता है...
और मैं अपनी 'काया' कै ही
जैसे गुम कर दिया करता हूँ...!
मैं मानसूनी बारिश की बूंदों में
यूँ समा जाता हूँ कि
मुझे मेरी तलाश में
कहीं दूर क्षितिज में
निकलना पड़ता है...
और मैं मुझको ही
ढूंढ नहीं पाता हूँ...
क्या मैं ही मानसूनी बारिश हूँ...?