आदमी
आदमी
एक दूजे से हैं जलते आदमी
आदमी के पर कतरते आदमी
हर घड़ी खुद में हैं उलझे आदमी
अब नहीं दिखते हैं हंसते आदमी
अब किसी की भी ख़ुदा सुनता नहीं
फिर भला किसको पुकारे आदमी
अब तो बस चालाकियां चलती यहां
जीत जाते हैं सयाने आदमी
एक थी उम्मीद वो भी अब नहीं
फिर जिए किसके सहारे आदमी
रब ने ही सबको बनाया है यहां
हों वो उजले या कि काले आदमी
कोई भी ताबीर की सूरत नहीं
किस बिना पर ख़्वाब पाले आदमी
लाशों का व्यापार भी करने लगे
हो गए कितने ये ओछे आदमी
एक भूखी मौज सबको ले गई
थे समंदर के किनारे आदमी
हादसों का क्या पता हो जाये कब
हर जगह बेमौत मरते आदमी।
