आदमी और सन्नाटा
आदमी और सन्नाटा


चपलता से चलती, कलम् देखता हूँ
प्रशंसा से अभिभूत, मन् देखता हूँ
कि छा जाता है, सन्नाटा सा क्षण में,
ज़िन्दगी को लपेटे कफ़न देखता हूँ
गरज़ते गगन से जो डरता नहीं है
सुलगते थपेड़ों में रुकता नहीं है
आदमी वो, जोकि झुकता नहीं है
छुपा कोटरों में, मगन, देखता हूँ
भूधर को समतल करता चला था
हिमालय को लांघे बढ़ता चला था
जो पाषाण है, यूं पिघलता नहीं है
अभागे के कातर, नयन देखता हूं
खुला, किंतु, सूना गगन देखता हूं
फिज़ाओं में घुलती घुटन देखता हूं
रहेगा/मिटेगा वतन, सोचता हूं
छुपे, दाढ़ियों में जो 'फन' देखता हूं
वो भगवान है, दूसरों के लिए ही
जो इंसान होकर, न पीछे हटा है
बचेगा/मरेगा, नहीं सोचता है
जो शंभू मशानों में बन के, डटा है
लकीरों में सिमटे शहर देखता हूं
उदासी लिए दोपहर देखता हूं
रुकी वो कलम, जो कि रुकती नहीं है
जो हर दिन उजड़ते चमन देखता हूं।