आदाब
आदाब
ज़रूरी नहीं है कि
हर रोज़ सुबह-सुबह मैं मिलूं।
शाम का वक्त है
सोचा आदाब कहता चलूँ।
लौटने को हैं परिंदे कि
मैं भी अब अपने घर को चलूँ।
शाख से बिखरे हैं
जो पत्ते उन्हें जरा सा समेटता चलूँ।
कुछ नया कहोगे कि
पुरानी शिकायते फिर सुनता चलूँ।
नया सा दौर है
इल्तिजा है कि ताजा गुनाह सुनता चलूँ।
दर्द से अपने वाकिफ़ हूं कि
पराये दर्द से तआरुफ़ करता चलूँ।
खुद से उम्मीदें तो मन रखता है
दूसरों पे यही बंदिशें ना रखता चलूँ।
ज़रूरी नहीं .............
सोचा आदाब कहता चलूँ ।।