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V. Aaradhyaa

Abstract

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V. Aaradhyaa

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आचमन के घृत की ज़्वाला भड़की

आचमन के घृत की ज़्वाला भड़की

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अग्नि का वो ताप अन्तस् में आचमन के निमित्त था ,

किन्तु घृत की अस्मिता ने प्रखर ज्वाला भड़काई है !


स्व अस्तित्व को लेकर झूम उठीं सूखी लकड़ियाँ ,

उनकी देह को समिधा बनाकर उष्णता जो पाई है !


यूँ कामना के कानन के वृक्ष सूख गए अनावृष्टि से ,

स्वप्न उपवन की कली को भ्रमरों ने अग्नि उसगाई है !


रागिनी का मुख जैसे दीपों की कतारों से चमके है ,

जैसे बाल अरुण की किरणों ने ही अलख जगाई है !


श्राप से शापित कंदराओं में छिप गई वेदनाएँ ,

पुण्य के फल व्रत व तप के पावनी की बेला आई है !


पुण्यकी वेदी में समाहित हो गई अब वो दुरात्माएं ,

शेष उनकी कीर्तियों का अनुनाद बन गूंज आई है !


कब सफल होंगी भला अब इन स्वरों की प्रार्थनाएँ ,

शब्द जिनके परमगति पाकर प्रकृति संग बिलाई है !

©®V. Aaradhyaa


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