आचमन के घृत की ज़्वाला भड़की
आचमन के घृत की ज़्वाला भड़की
अग्नि का वो ताप अन्तस् में आचमन के निमित्त था ,
किन्तु घृत की अस्मिता ने प्रखर ज्वाला भड़काई है !
स्व अस्तित्व को लेकर झूम उठीं सूखी लकड़ियाँ ,
उनकी देह को समिधा बनाकर उष्णता जो पाई है !
यूँ कामना के कानन के वृक्ष सूख गए अनावृष्टि से ,
स्वप्न उपवन की कली को भ्रमरों ने अग्नि उसगाई है !
रागिनी का मुख जैसे दीपों की कतारों से चमके है ,
जैसे बाल अरुण की किरणों ने ही अलख जगाई है !
श्राप से शापित कंदराओं में छिप गई वेदनाएँ ,
पुण्य के फल व्रत व तप के पावनी की बेला आई है !
पुण्यकी वेदी में समाहित हो गई अब वो दुरात्माएं ,
शेष उनकी कीर्तियों का अनुनाद बन गूंज आई है !
कब सफल होंगी भला अब इन स्वरों की प्रार्थनाएँ ,
शब्द जिनके परमगति पाकर प्रकृति संग बिलाई है !
©®V. Aaradhyaa