ये बेटियों का कमरा है
ये बेटियों का कमरा है
"बस मां! कोई फिक्र मत कीजिए, सब ठीक हो जायेगा। मैं हूं ना तो आपको कोई टेंशन लेने की कोई ज़रूरत नहीं है!"
किट्टू दीदी हमेशा मां को ऐसा ही कहकर दिलासा देती रहती थीं।
बचपन से देखती आई थी मैं उन्हें। वह अपनी मुस्कान और ओजस्वी वाणी से सबको ढांढस बंधाती रहती थीं। और अपनी साकारात्मक बातों से सबमें नई ऊर्जा का संचार कर दिया करती थीं।
कई बार जब मैं अकेले में उनसे पूछती कि,
"दिदू! आप इतना सब कैसे कर लेती हो?"
तो वह बस मुस्कुरा कर रह जाती थीं।भोली भाली दीदी मुझे जादू की परी की तरह लगती थी जो अपनी मुस्कुराहट के पीछे सारा गरल पी जाती थी।
तब तो बचपन था, मैं बहुत कुछ नहीं समझ पाती थी।
जब मैं बड़ी हुई तब धीरे-धीरे समझ गई कि सब का टेंशन अपने सर पर लेने वाली किट्टू दीदी की जिंदगी में भी बहुत सारे टेंशन हैं।
अक्सर ऐसा होता है,
जब कोई आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेता है, तब लोगों को लगता है कि वह सक्षम है ,इसीलिए वह जिम्मेदारी ले रहा है । लेकिन कई बार लोग किसीकी इंसानियत का और किसीकी भलमनसाहत का और कभी कभी तो उनके सीधेपन का भी गलत फायदा उठाते हैं। मेरी किट्टू दीदी भी तो ऐसी ही थीं जो हमेशा दूसरों के बारे में पहले सोचती थीं और अपने बारे में तो कभी उन्हें सोचते देखा नहीं।
जब कभी लगता है कि किसी का ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है या फिर सिर्फ इसलिए कि वह दूसरों की मदद करना चाहता है। लोग उसकी अपनी परेशानी नहीं समझते, तो लोगों को यह बताना जरूरी है कि उन्हें भी परेशानी होती है। टेंशन सबको होता है, और सबको अपना टेंशन दूर करने के लिए किसी ना किसी अपने की जरूरत पड़ती है।
यहां मैं संक्षिप्त में यह बता देना ज़रूरी समझती हूं कि.....
हम चार भाई बहनों में किट्टू दीदी का नंबर दूसरा था। परिवार में सबसे बड़े अंकित भैया फिर किट्टू उर्फ कात्यायिनी सिंह उर्फ मेरी किट्टू दीदी फिर छोटे भैया सुमित और फिर सबसे छोटी मैं यानि मैं अनुभूति उर्फ अन्नू.
एक तरह से दोनों भैया तो बचपन से ही थोड़ा जिम्मेदारियों से बचते थे । सबको किट्टू दीदी ही जिम्मेदार लगती थी और समझदार भी। क्योंकि वह पढ़ने में भी अच्छी थी और अपने आप को बहुत ही अनुशासित रखती थी।
इसी अनुशासन में और दूसरों की जिम्मेदारी लेने में आगे रहने की वजह से दीदी अपना बचपन कभी नहीं जी पाई थी।
उनसे उनसे उनसे बड़े होने के बावजूद भी अंकित भैया हमेशा छोटे भाई की तरह व्यवहार करते थे। ना तो कोई जिम्मेदारी लेते थे और ना कभी उन्हें घर के लिए चिंता करते हुए देखा गया। बस उन्हें अपनी ही फ़िक्र लगी रहती थी। और चुंकि वह बेटा थे इसलिए मां उनसे कुछ ज्यादा नहीं कहती थी कि ज्यादा बोलेंगे तो कहीं बेटे को बुरा न लगे। बुढ़ापे का सहारा बेटा ही तो होता है। और इसीलिए अंकित भैया कभी जिम्मेदार बन ही नहीं पाए थे। उन्हीं की देखादेखी छोटे भैया भी काम से और घर की जिम्मेदारी हो से बचने लगे थे।
जब ग्रेजुएशन में थी दीदी, तभी पापा का देहांत हो गया था। और एक तरह से मां टूट गई थी। तब से लेकर आज तक दीदी को मां की भी मां बनना पड़ा था और पापा की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ी थी।
कहते हैं...अक्सर घर की बड़ी बेटी को पापा की जगह लेनी पड़ती है लेकिन वह तो तब ना जब भी कोई भाई ना हो यहां तो दीदी से बड़ा भी एक भाई था और छोटा भी एक भाई था लेकिन वही बात है ना जो जिम्मेदारी लेता है लोग उसी के ऊपर जिम्मेदारी डालते भी हैं और उसी से उम्मीद भी करते हैं।
तो यहां पर किट्टू दीदी अपनी अच्छाई और भलाई की वजह से बलि का बकरा बन गई थी।
खैर... आगे जाकर
बड़े भैया यानि अंकित को तो एक प्राइवेट नौकरी मिल गई थी।और बड़ी ही चालाकी से वह दूसरे शहर निकल गए थे। कॉलेज से ही उनकी एक गर्लफ्रेंड बन गई थी सुनयना,जो बड़े बाप की बेटी थी। और उसके घरवालों ने बड़े भैया को एक तरह से घर जमाई बनाने का पूरा प्लान सेट कर रखा था। वैसे भी कानपूर से तिरुचिरापल्ली बहुत दूर था।और उन्होंने जानबूझकर ऐसी जगह की नौकरी ली थी कि घर की जिम्मेदारियों से बच सके।भाभी के पापा तिरुचिरापल्ली में ही तो रहते थे।और वह छात्रावास में रहती थी। इसी दौरान कॉलेज में तो दोनों एक दूसरे के करीब आए थे।बड़ी भाभी के दक्षिण भारतीय होने की वजह से मां भी उनके साथ संवाद स्थापित नहीं कर पाती थी। और साथ ही अलग परिवेश से आने की वजह से भाभी भी अपनापन नहीं दिखा पाई थी।
खैर,अंकित भैया ने तो अपनी लाइफ सेट कर ली थी।इधर सुमित भैया भी इंजिनियरिंग पढ़कर इंजिनियर बन गए थे।
जब सुमित भईया और मैं पढ़ाई कर रहे थे।तभी कोई और आगे नहीं आया जिम्मेदारी लेने। जबकि चाचाजी सक्षम थे।और पापा ने उनकी बहुत मदद भी की थी।अब कोई नहीं था सहारा देने को तो लिहाजा दीदी को ही घर को संभालना पड़ा था।उनकी शादी की उम्र हो गई थी। अच्छे अच्छे रिश्ते आ रहे थे। लेकिन दीदी सब को मना करती जा रही थीं।और अगर दीदी का मन भी करता होगा शादी करने का तो वह कैसे कर सकती थी ?कुछ रिश्तेदार भी जब मां से पूछते तो मां के पास एक अच्छा बहाना मिल गया था कि,"किट्टू तो शादी ही नहीं करना चाहती!" इस तरह से मां भी अपनी जिम्मेदारी से बच रही थी।यह बातें तो मैं बड़ी होने के बाद समझ पाई थी कि, दीदी शादी नहीं करना चाहती हैं, इस शब्द के पीछे दीदी जी कितनी बड़ी मजबूरी छुपी हुई थी।
उन्होंने मां से साफ साफ कह दिया था कि,
"जब तक मैं अन्नू और सुमित को सेटल ना कर दूं, मैं शादी नहीं करूंगी!"
मां शायद ऐसा ही सुनना चाहती थीं। तभी तो उन्होंने ने दबी जुबान में ऐसी बात कही जो किट्टू दीदी हरगिज़ नहीं मानती। माँ ने कहा था,
"जब तक सीमित को जॉब लगेगी तब तक तेरी उम्र बहुत ज्यादा हो जाएगी। मैं तो कह रही हूं... कि,
हम सबको भगवान के भरोसे छोड़ दे और तू शादी करके निकल जा बेटा! इस घर के खर्चे सुरसा राक्षसी की तरह हैं, जो कभी कम नहीं होंगे। मैं थोड़ी भविष्यनिधि के पैसे और कुछ जमा पैसों से कुछ दिन काम चला लूंगी। फिर सुमित कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लेगा।
और अन्नू की शादी दोनों भाई मिलकर अपनी कमाई से करा देंगे।लेकिन तु अब ब्याह के लिए मना मत कर!"
"नहीं मां! सुमित इंजीनियर बनना चाहता है ,और वह जरूर बनेगा।अभी अन्नू भी अपनी पढ़ाई जारी रखेगी।मेरी शादी की चिंता छोड़ो। जब होगी तब हो जाएगी। अभी मेरे लिए मेरा घर सबसे ज्यादा जरूरी है।आप मेरी टेंशन मत लो। मुझे तो जिम्मेदारी लेने की आदत है!"
तब तो मजबूरी में मां को भी दीदी की बात माननी पड़ी थी।और कहीं ना कहीं उसके बाद मां का स्वार्थ आड़े आ गया था कि,"अगर किट्टू शादी करके चली जाएगी तब घर की जिम्मेदारी कौन निभाएगा?" इसलिए मां अब किट्टू दीदी को घर गिरस्ती और नौकरी की चक्की में पिसता वह देख कर भी चुपचाप थी और उनकी सहानुभूति, उनकी उम्मीद,उनका प्रेम अभी तक अपने बेटों के लिए ही ज्यादा था।
इधर सुमित भैया भी अंकित भैया के रास्ते पर चल निकले थे।नौकरी लगते ही उन्होंने भी अपने साथ पढ़नेवाली आकांक्षा से शादी की इच्छा जताई और फिर दीदी तो थी ही दयावान,अपना दिल खोलकर रहती थी।उन्होंने आकांक्षा से सुमित भैया की शादी धूमधाम से करवाई
अपनी मामूली टीचर की नौकरी से दीदी ने हम सब को पढ़ाया लिखाया और घर का भी काम चलाया।पता नहीं उनके हाथों में कितनी बरक्कत थी।शायद दिल बहुत साफ था,इसलिए लक्ष्मी भी उन पर मेहरबान रहती थी। इसलिए कभी पैसे की कमी नहीं हो पाई थी।
मैंने गौर किया कि दीदी अब थकने लगी थीं।इधर मां दीदी की परेशानी समझकर भी नहीं समझने का स्वांग करने लगी थीं।माँ कुछ कुछ बदल रही थीं।
मैं सब समझती थी और धीरे-धीरे मैं महसूस करती थी कि सबके साथ-साथ अब मां भी थोड़ी स्वार्थी होती जा रही थीं।
अंकित भैया और सुनयना भाभी तो पहले से ही अलग रहते थे । तो अब मां को हमेशा डर लगता था कहीं सुमित भी आकांक्षा के कहने में आकर गया उन्हें अकेला छोड़कर ना चला जाए। इसलिए सुमित भैया की पत्नी आकांक्षा की सारी ज्यादतियां बर्दाश्त कर रहीं थीं। और मां यह उम्मीद करती थी कि दीदी और मैं भी उनके नीचे दबे रहें क्योंकि कहीं छोटी बहू भी बेटे को लेकर उनका घर ना छोड़ दें।
पढ़ाई खत्म होने के बाद मैं भी एमबीए के साथ पार्टटाइम नौकरी करने लगी थी। मैं जल्दी से जल्दी अपने पैरों पर खड़ी होकर दीदी का हाथ बंटाना चाहती थी। उससे भी ज्यादा मैं चाहती थी कि मैं दीदी के जल्दी से जल्दी हाथ पीले करवा दूं। क्योंकि उनके बालों में अब सफेदी झांकने लगी थी और चेहरे पर झुर्रियों ने दस्तक देना शुरू कर दिया था।
उम्र के दस्तक से कोई नहीं बच पाया है। मेरी ओजस्वी दीदी भी आप उम्रदराज दिखने लगी थी।
पता नहीं दीदी के चेहरे की तरफ मां का ध्यान जाता था कि नहीं ?
अलबत्ता जिस दिन दीदी की सैलरी आती थी तब मां हाथ बढ़ाकर जरूर दीदी से सैलरी ले लिया करती थी। लेकिन अपनी बड़ी बेटी की तरफ से मां बिल्कुल उदासीन हो चुकी थी। उसे सिर्फ जिम्मेदारी निभाने और पैसा कमाने की मशीन समझकर मां ने अपना पूरा ध्यान सुमित भैया और उनकी पत्नी और उनके होने वाले बच्चे की तरफ लगा दिया था।
पता नहीं...उस दिन भाभी ने मां तक अपनी इस बात को किस तरीके से पहुंचाया था कि मां दीदी की भावना समझने को बिल्कुल तैयार नहीं थी।
दरअसल हुआ यह था.... कि,
उस रविवार का दिन सब सुबह का नाश्ता कर रहे थे कि मां ने बिना भूमिका के दीदी को डायरेक्ट कहा कि,
"किट्टू! ऊपर के जिन दो कमरों में तुम दोनों बहनें रहती हो, वह अब आकांक्षा और सुमित के लिए खाली कर दो!"
दीदी अवाक होकर रह गई।शायद उनकी समझ में ठीक से आया भी नहीं कि भाभी क्या चाहती हैं? और मां क्या कह रही हैं?वह कुछ कहती उसके पहले ही मैंने मां से पूछा,
" लेकिन इसकी क्या जरूरत है मां ?"दीदी और मुझे अपना कमरा क्यों बदलना पड़ेगा?"
"जिस कमरे में तू रहती है वह हवादार है और बड़ा भी।किट्टू !अब तू नीचे किसी भी कमरे में आ जा।तेरा सामान ही कितना है। तू तो तो हॉल में भी रह सकती है। कुछ दिनों बाद अन्नू कि भी शादी हो जायेगी। फिर चाहे तो तू मेरे साथ मेरे कमरे में भी रह सकती है।नीचे एक कमरा बेटी दामाद और बड़े बेटा बहु, रिश्तेदार वगैरह के लिए तो छोड़ना ही पड़ेगा ना। और ऊपर का सेट सुमित और आकांक्षा के लिए खाली कर दो !"
"ओह... यह क्या कह रही थी मां? मेरी शादी होनेवाली है और दीदी की शादी..???
दीदी की शादी नहीं होगी क्या....???
मैंने बड़े ही गुस्से से मां की तरफ देखा जो आगे बोले ही जा रही थीं।
"ऊपर के दोनों कमरे आकांक्षा और सुमित को दे देते हैं। उनके नया मेहमान आने वाला है। सुमित देर रात तक काम करता है तो सामने वाले कमरे में कर लिया करेगा और अंदर वाले कमरे में आकांक्षा आराम कर लिया करेगी!"
मैं अवाक होकर सुन रही थी और दीदी तो कुछ भी समझ ही नहीं पा रही थी। वह ठगी जाने जैसा महसूस कर रही थी और आश्चर्य से सजल नेत्रों से मां की तरफ देख रही थी।
पापा की आकस्मिक मृत्यु के बाद जिस लड़खड़ाते घर को स्तंभ बनकर दीदी ने संभाला था। जिस घर की बची हुई किस्तें हमारी दीदी ने भरी थीं।यहां तक कि घर की मरम्मत और रेलिंग वगैरह भी उन्होंने बड़ी मुश्किल से जुगाड़ करके लगवाया था।
और आज मां कह रही हैं कि... दीदी किसी भी कमरे में कैसे भी रह ले।
ये कुछ ज़्यादा हो रहा था।इसलिए अब मुझसे चुप नहीं रहा गया।मैं बोल पड़ी।
"यह आप क्या कह रही हैं मां! दीदी कहीं भी कैसे भी रह लेंगी ? अगर सुमित भैया रात में जागकर काम करते हैं तो दीदी भी तो देर रात तक जागकर कॉपी चेक करती हैं। वह हॉल में रह लेंगी या फिर आपके साथ रह लेंगी... यह कोई बात हुई ? उन्हें भी तो एक कमरा चाहिए। आख़िर उन्होंने इतने साल इस घर को संभाला है, पापा की जगह ली है उन्होंने। और आज आप ऐसी बात कह रही हैं।
और ... यह मेरी शादी के बाद कहां से उठ रही है?
पहले दीदी की शादी होगी तब मेरी शादी होगी। नहीं तो मैं शादी नहीं करूंगी!"
ना जाने किस जोश में एक सांस में बोलती चली गई मैं ।
सुमित भैया आकांक्षा भाभी और मां तो चौंककर मुझे देख ही रहे थे।
इधर...
मैंने जब दीदी की तरफ देखा तो उधर बड़ा ही आश्चर्यजनक और मर्मस्पर्शी दृश्य था।
किट्टू दीदी लगातार रोए जा रही थी। और मेरी तरफ बढ़कर मेरा हाथ पकड़कर कह रही थी,
"छुटकी... ओ मेरी गुड़िया! तुझे मेरा इतना ख्याल है? तू इतना सोचती हैं मेरे बारे में? मुझे तो पता ही नहीं था कि मैं मैं जब सबका टेंशन लेती हूं तो मेरा टेंशन लेने के लिए भी कोई दुनिया में है ? मैं अब अकेली नहीं रे... अकेली नहीं। आज मुझे बहुत गर्व है तुझ पर। और इस बात के लिए मैं अपनी मां को हर बात के लिए माफ कर दूंगी कि, उन्होंने तेरे जैसी बहन पैदा करके मेरी जिंदगी खुशियों से भर दी है रे...!"
शायद सालों से घर की ज़िम्मेदारी उठाते हुए दीदी सबके स्वार्थ समझने लगी हों और किसीसे उन्हें ज़रा भी सजानुभूति की उम्मीद ना हो, तभी तो मेरी इस बात पर देर तक हिचकियां लेकर रोई थी मेरी मासूम सी किट्टू दीदी।
उन्हें यूँ टूटता हुआ देखकर अब सब के आंसू निकल रहे थे।दीदी इतनी भावुक हो गई थीं कि मुझे भी अपने आप को और संभाला नहीं जा रहा था।मैं भी रोए जा रही थी, और बोले जा रही थी,
"दीदी! अब आपको अपना टेंशन लेने की कोई जरूरत नहीं है।मैं सब देख लूंगी।मैं हूं ना...मैं आपका हर टेंशन दूर कर दूंगी!"
"और ...मैं भी तो हूं!"
यह कहते हुए सुमित भैया भी सामने आए और दीदी का हाथ पकड़कर बोल उठे,
"थैंक्यू दीदी! मुझे माफ कर दो।आज आपकी वजह से मैं अपना सपना पूरा कर पाया हूं। तुम्हारी जितनी भी तारीफ की जाए कम है। आपका एहसान मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा। लेकिन दीदी! अब बस...! अब घर की जिम्मेदारी मैं निभाऊंगा। और छुटकी की शादी भी मैं करवाऊंगा। लेकिन उसके पहले मैं आपके हाथ पीले करवाऊंगा!"
अभी सुमित भैया कुछ बोल ही रहे थे कि आकांक्षा भाभी भी दीदी का हाथ प्यार से पकड़कर माफी मांगने लगी।
अचानक मां ने भर्राए गले से बुलाया ,
"किट्टू! तू मेरे पास आ बेटा!"
और मां ने रोते-रोते बोलना शुरु किया,
" सच में तेरे साथ बहुत बेइंसाफी हुई है। आज अन्नू ने मुझे एहसास करा दिया कि, मैं अपनी बेटी किट्टू के प्रति कितनी गलत कर रही थी। अब सुनो .…सब सुन लो कि,
किट्टू जिस कमरे में रहती है, उसी कमरे में रहेगी। मेरी बेटी के साथ अब अन्याय नहीं होगा।वह अपना कमरा नहीं बदलेगी। और अब तो इसका ब्याह भी करना है।
अरे...सुमित ! वो क्या कहते हैं... जीवनसाथी डॉट कोम...और क्या-क्या...!
तो अब से ही किट्टू के लिए रिश्ते देखना शुरु कर दे। जल्दी हम अपनी किट्टू के हाथ पीले करने वाले हैं। और इस दीवाली से पहले पूरे घर का रंगरोगन करवा दे । आखिर बिटिया की शादी इसी साल करनी है!"
आज हम सबको लग रहा था कि, कोई दीदी से भी बड़ा है। उनके सिर पर हाथ रखने के लिए भी कोई है। क्योंकि मां अब ठीक हो गई हैं और उन्हें अपनी बड़ी बेटी के प्रति अपनी जिम्मेदारी का एहसास हो गया है।और जब एक मां अपनी बेटी के लिए खड़ी होती है तो दुनिया की कोई ताकत उस बेटी का बुरा नहीं कर सकती।
उस दिन बड़ा भावुक दृश्य था। मां दीदी को कलेजे से लगाए हुई थी। और किट्टू दीदी लगातार रोए जा रही थी। और बोले जा रही थी," कहां चली गई थी मां! पापा की जाने के बाद आज पहली बार मुझे लग रहा है कि मेरे सिर पर किसी का हाथ है। अब मेरे सिर पर हाथ रखे रहना मां! अपना आशीर्वाद वाला हाथ मत हटाना, नहीं तो तुम्हारी किट्टू बहुत अकेली पड़ जाएगी!"
"ना मेरी लाडो! मैं अब कभी तुझे अकेले नहीं रहने दूंगी।अब से सारी जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ दे।और तू तो बस अपने बारे में सोचना शुरू कर दे। देख तेरा चेहरा कैसा कुम्हला गया है। मैं भी कैसी स्वार्थी बन गई थी जो अपनी बिटिया के चेहरे पर ध्यान नहीं देती थी। मुझे माफ कर दे मेरी बेटी!अब तेरी मां कभी भी तुझ पर से अपना ध्यान नहीं हटाएगी!"
इधर मां बेटी का मधुर मिलन हो रहा था। उधर भाभी को भी शायद पश्चाताप हो रहा था।और सुमित भैया अगले ही दिन से दीदी के लिए रिश्ते ढूंढने के लिए कृत संकल्प हो गए थे।
अब मैं यानि अन्नू यानि अनुभूति बहुत खुश थी।अपने दीदी के चेहरे पर खुशी देखकर ...!
और सच में मैं चाहती थी कि, इस सुंदर से चेहरे पर कोई टेंशन ना आए। उनका सारा टेंशन मैं ले लूं और दीदी को हमेशा मुस्कुराता हुआ देखूं।
इसके लगभग एक साल बाद ...
दीदी को उनके लायक जीवन साथी मिल गया था। और अब अंकित भैया और सुनैना भाभी भी जब तब घर आने लगे थे।पूरी तरह से तो नहीं, लेकिन अंकित भैया थोड़ी-थोड़ी घर की जिम्मेदारी उठाने लगे थे। कोई चमत्कार नहीं हुआ था।हां, चमत्कार अगर हुआ था तो ये कि, मां को अपना कर्तव्य याद आ गया था। जो बेटे के प्यार में अपनी आंखों पर पट्टी बांध बैठी थी, उन्हें अब अपनी किट्टू याद आ गई थी।किट्टू दीदी को अपने बचपन का खोया हुआ प्यार एक साथ ही मां से मिला तो उनका दामन खुशियों से भर गया था।अब किट्टू दीदी को अपने मायके का प्यार मिला था। शादी के बाद भी माँ ने किट्टू दीदी और मेरा कमरा नहीं बदला था। हमारा मायका हमारे लिए हमेशा बाहें फैलाए रहता था। अब माँ खुश थी। भैया खुश थे, किट्टू दीदी खुश थीं...और सबसे ज्यादा खुश थी मैं, अपने दीदी के चेहरे पर खुशी देखने की ख्वाहिश जो पूरी हो गई थी।
(समाप्त)
