एक सुहाना दिन
एक सुहाना दिन
कोई तो पर्दा लगा दो, अरे ये किरणें चुभ रही है आखों में। ‘यार, पर्दा लगा ना !’ अपने आस-पास लेटे किसी इंसान को स्पर्श करने के इरादे से सुहानी ने अपना हाथ बिस्तर के आस-पास मारा। फिर एक आँख खोल के चारों ओर देखा और चिल्लाई-
“पलक।”
“पलक प्लीज शट द ब्लडी कर्टेन्स।”
प्रतिउत्तर में कोई आवाज़ नहीं आई। सुहानी ने घड़ी की ओर देखा “ओ शिट ! 10 बज गयी। फिर एक मीठी सी मुस्कान के साथ अपना चहरा तकिये में घुसा लिया और बुदबुदाई 10 बजे या 12 मुझे क्या ? मैं तो सोऊंगी।
“पर मेरी नींद के दुश्मन को बंद करने के बाद” सुहानी बंद आँखों से ही उठी और खिड़की की तरफ बढ़ी, पर्दा लगाया और बिस्तर की तरफ़ कूदी।
“आ..आ..आ...उच” सोफे से टकराई और बच्चे की तरह अपना सर खुजा कर फिर सो गयी।
दोपहर 1 बजे एक फोन कॉल से उसकी नींद टूटी।
“पलक, तू ऑफिस चली गयी ? कल तो बड़ा बोल रही थी साथ में मज़े करेंगे, ऑफिस को मारो गोली, मूवी जायेंगे, बाहर लंच करेंगे, ब्ला...ब्ला..ब्ला...”सुहानी फोन उठाते ही बिना किसी विराम के बोलती चली गयी।
हम्म...हाँ...ठीक है ठीक है...नेवर माइंड...करते हैं कुछ प्लान फिर शाम को तेरे आने के बाद...हाँ...उठती हूँ अब...कुछ आर्डर करुँगी....बाय।
फोन बिस्तर पर फैंक सुहानी उठने को हुई। बाथरूम की तरफ़ मुड़ी, आईने को देखा, खुद को देखा, अपने दांत देखे, फिर सुन्दर सी हंसी हंसकर खुद ही के गाल खींचे, पोनी टेल में अपने बाल बांधे, ब्रश उठाया और सारे घर में मंडराने लगी। ब्रश मुंह में दबाये अपने कमरे के शीशे के सामने गयी और खुद को निहारने लगी, पेट को अन्दर- बाहर करके फर्क देखने लगी, फिर मुंह से बहार आ रहे टूथ पेस्ट के झाग के साथ ही कहने लगी "हा ! इतना भी बाहर नहीं आया" !
अपना मुंह धोकर, गीज़र ओन किया। अपनी अलमारी खोली, उसमे से एक नई ब्लू जींस और एक प्लेन सफ़ेद टी-शर्ट निकाली जिस पर लिखा था “क्युटनेस ओवरलोडेड” |
हैंगर सहित उसे ऊँचा उठाया और अच्छे से देखा, फिर उत्साहित होकर बोली- "सूट्स मी"।
कोई नया गाना गाते गाते नहाने बाथरूम की ओर बढ़ी, दरवाज़ा बंद किया। एक मिनट बाद फिर दरवाज़ा खोला और टॉवेल में ही बहार निकली। अपना फोन उठाया और बिना कोई मेसेज देखे, सीधा खाना आर्डर करने वाली एप से पास्ता आर्डर किया। फिर गिले पैरों से ठुमकते हुए बाथरूम की ओर रुख करने लगी।
“क्या दिन है ! सर्दी की दोपहर में घर पर रहना किसी वरदान से कम नहीं। नहीं तो वो ही अपने 5 बाई 5 के क्यूबिकल में मुंडी घुसाए कब सुबह से दिन, दिन से शाम, शाम से रात हो जाती है पता ही नहीं चलता।”
दरवाज़े की घंटी बजी।
“ये ! मेरा पास्ता आ गया” सुहानी बिस्तर से छलांग लगाती हुई, भागते-भागते दरवाज़े तक पहुंची और पार्सल लेकर रूम की ओर बढ़ी। भूख लगी थी उसे, चम्मच दर चम्मच ऐसे खाने लगी जैसे जन्मों की भूखी हो। खाने की इतनी जल्दी थी कि थोडा चद्दर पर गिराया, थोड़ा अपने कपड़ों पर और आधा सॉस तो अपने चहरे पर ही पोते बैठी थी। चार-पांच हिचकियों ने पेट भरने का संकेत दिया और मोहतरमा ने खाना बंद किया।
“पेट भर गया, अब मैं शॉपिंग जाऊँगी।” मानो चिल्लाने और नाचने लगी।
अपनी पसंद की जींस, टी-शर्ट और स्टाइलिश स्लीपर्स में सुहानी सच में सलोनी लग रही थी। उसने अपनी बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आखों पर काला चश्मा चढ़ाया, स्कूटी की चाबी उठाई और चल पड़ी फूल स्पीड में शहर के सबसे बड़े मॉल की ओर। उसके मासूम चहरे, बचकानी हरकतों और हुलिए को देखकर कोई भी उसके कॉलेज में होने का अनुमान लगा लेता।
शोपिंग मॉल पहुंचकर सुहानी ने अपना सारा बैग कपड़ों से भर लिया। जिस सेक्शन में जो कपडा जंचा सब उठाती चली गयी। दो घंटे तक लगभग हर काउंटर से कपडे और जूते चुनने के बाद वो चेंजिंग रूम की ओर बढ़ी और अपने बैग में भरे प्रत्येक कपडे को पहनकर देखने लगी।
“सब ही तो अच्छा लग रहा है मुझ पे ! सब उठा लूँ ?” एक शरारती मुस्कान के साथ उसने खुद ही से कहा –“काश पलक ने धोखा न दिया होता, खुद तो ऑफिस भाग गयी, वो साथ होती तो रोकती तो सही मुझे।”
बिलिंग काउंटर पर सात हज़ार के बिल की पर्ची के साथ वो इठलाती हुई बाहर निकली।
“अब क्या करूँ ? क्या करूँ ? क्या करूँ ? क्या करूँ ?” चेहरे बनाते हुए खुद ही से बतियाती चली जा रही थी वो चुलबुली लड़की।
“आइडिया...! वो करुँगी जो पहले कभी नहीं किया।”
अकेले.....मूवी देखने जाऊँगी।”
“टीडिंग।”
सुहानी मॉल के मल्टीप्लेक्स की ओर बढ़ी और टिकट लेकर अन्दर चली गयी। कुछ तीन घंटे बाद उसी मूवी का गाना गाते गाते बाहर निकली। शाम के 7 बज चुके थे। सुहानी के चहरे पर थकान साफ़ झलक रही थी। आखिरकार कब से अपने बैग में पड़े फोन को बाहर निकाला, उसे साइलेंट मोड से हटाया। स्क्रीन पर आये संदेशों और कॉल-लॉग्स को देखकर उसकी थकान धीरे-धीरे उदासी में बदलने लगी। वो भारी क़दमों से मॉल के फ़ूड कोर्ट के एक टेबल पर बैठ गयी और काफ़ी देर से आ रहे एक कॉल को उठाया, फोन के दूसरी तरफ सुहानी की माँ थी।
“कहाँ थी बेटा ? सुबह से फोन कर रही हूँ। न मेसेज का रिप्लाई कर रही हो न फ़ोन उठा रही हो ? सब ठीक है?” माँ ने चिंता भरे स्वर में पुछा।
“हाँ मम्मी, सब ठीक है यार। लेट उठी थी आज, सारा दिन आराम किया और शोपिंग की।”
“अच्छा, मैं परेशान हो गयी थी............हैप्पी बर्थडे बेटा।”
“थैंक यू माँ।”
“कोई और आया है साथ में ? रात को पार्टी-शार्टी की ?”
“नहीं माँ, कोई नहीं है अभी साथ।“
अच्छा, देख लो बेटा, सब बिज़ी हो गये अपनी लाइफ में, तुम ही हो जो अकेली हो अब तक। अरे ऐसा भी क्या स्वच्छंद घूमना की समाज के दायरे से ही बाहर हो जाओ ? आज तीस की हो गयी तुम। बच्ची नहीं रही। समझ रही हो ? पापा ने जो लड़के की डिटेल्स मेसेज की थी वो देखी भी ? या फिर हवा में उड़ा दी बात ?“
एक चुप्पी के बाद सुहानी ने थकी आवाज़ में कहा- "हाँ माँ, शायद सच में बहुत बड़ी हो गयी मैं। इतनी बड़ी की अब जन्मदिन पर कोई याद नहीं करता। इतनी बड़ी कि मेरी पक्की दोस्त को भी मेरी ख़ुशी से ज्यादा अपने ऑफिस के काम की परवाह है। मेरा साथ अच्छा नहीं लगता शायद किसी को... या मैंने ही अकेले जीना सीख लिया है। पापा भी गुस्सा ही रहते हैं मुझसे, सोचते हैं कि मेरे खुले विचारों का मेरी छोटी बहन पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।
तुम सही कहती हो माँ, बहुत बड़ी हो गयी मैं।"
"बचपना शायद शोभा नहीं देता।वो तो तब ही शोभा देगा जब मेरी शादी होगी। मुझे दोस्त भी फिर मिल जायेंगे, जो मेरे नहीं मेरे पति के होंगे। मेरा अगला जन्मदिन खुशनुमा होगा जब मेरी उंगली में किसी के नाम की अंगूठी होगी, है ना माँ ? फिर शायद डांट कर जन्मदिन की शुभकामनाएं ना दो, खुश होकर दो।”
माँ चिंता भरे स्वर में बोली “बेटा, हम तुझे सुखी देखना चाहते हैं।”
“पर आप ये क्यूँ मानने को तैयार नहीं कि मैं ऐसे खुश हूँ।”
“नहीं मान सकते क्यूंकि ?....”
“क्यूंकि क्या माँ?”
“क्यूंकि सदियों से ऐसा ही चलता आया है सोनू, प्रकृति का नियम है ये, इसे मत तोड़ो।” सुहानी गहरी सोच में डूब गयी।
पहली बार ऐसा लगा मानो उसकी ख़ुशी को उम्र के पैमाने में डाल दिया गया हो जो गुज़रे हर लम्हे के साथ कम होती चली जा रही थी।।