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ashok kumar bhatnagar

Inspirational

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आदिवासी समुदायों की सफलता की कहानियां

आदिवासी समुदायों की सफलता की कहानियां

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जनजाति की परिभाषा हम इस प्रकार दे सकते हैं कि, ''जनजाति मनुष्यों का ऐसा समूह हैं जो स्वयं के ऐनक्लोज या सीमित समाज(जहाँ बाहरी लोगों को रहने की स्वीकृति नहीं) में एक साथ रहते हैं. इसे कबीला भी कहते हैं. इस समूह में केवल वही लोग रह सकते हैं जो समान वंश, समान संस्कृति, समान पूर्वज से सम्बद्ध होते हैं.'' इनकी जीवन शैली जमीन से जुड़ी हुई होती हैं और ये अपने पूर्वजों के बनाए अतीत के नियम तथा परम्पराओं का पालन करते हैं. इसलिए इनकी भाषा बोली और धर्म समान होता हैं. इनका एक कॉमन मुखिया होता हैं और ये सभी एक साथ एक साझा भौगोलिक क्षेत्र में निवास करते हैं. इनका अपना सामाजिक न्याय हैं और अपने समाज के अन्दर इन्हें बाहरी दुनिया का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं हैं.


          भारत आदिवासी समुदायों की विशाल आबादी के लिए जाना जाता हैं, यहाँ 90 मिलियन से अधिक लोग आदिवासी समुदायों का हिस्सा हैं, ये सभी तकरीबन 50 विभिन्न जनजातियों में विभाजित हैं. भारत की जनजातियों को भौगोलिक आधार पर विभिन्न भागों में विभाजित किया गया हैं. जैसे-उत्तर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र की जनजाति, मध्य क्षेत्र की जनजाति, दक्षिण क्षेत्र की जनजाति और द्वीपीय क्षेत्र की जनजाति.


           उत्तर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र की जनजाति-उत्तर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र के अंतर्गत कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड तथा पूर्वोत्तर के राज्य आते हैं. इन क्षेत्रों में गुर्जर, भोटिया, ख़ासी, थारू, बुक्सा, राजी, जौनसारी, शौका, किन्नौरी, गारो, बकरवाल, जयंतिया आदि जनजातियाँ निवास करती हैं.


           मध्य क्षेत्र की जनजाति-मध्य क्षेत्र के अंतर्गत मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, झारखंड, छत्तीस गढ़, दक्षिण राजस्थान, उड़ीसा आदि राज्य आते हैं जहाँ भील, गोंड, संथाल, हो, मुंडा, उरांव, कोल, बंजारा, मीणा, कोरवा, कोली, रेड्डी आदि जनजातियाँ निवास करती हैं.


            दक्षिण क्षेत्र की जनजाति-दक्षिणी क्षेत्र के अंतर्गत कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल आदि राज्य आते हैं जहाँ भील, गोंड, टोडा, कोरमा, कडार, इरुला आदि जनजातियाँ निवास करती हैं.


            द्वीपीय क्षेत्र की जनजाति-द्वीपीय क्षेत्र में अंडमान एवं निकोबार की जनजातियाँ आती हैं. जैसे - सेंटिनलीज, ओंग, जारवा, शोम्पेन आदि.


            जनजातियाँ की भी अनेक समस्याएं हैं |आज भी बाहरी दुनिया से सामाजिक संपर्क इन्हें ख़ास पसंद नहीं आता. इसलिए आमतौर पर ये जनजातियाँ, क़ाबिले या आदिवासी समुदाय ऐसे इलाकों में निवास करती हैं, जो औद्योगिक क्षेत्रों से काफी दूर होते हैं |उस स्थान तक बुनियादी सुविधाओं की पहुँच न के बराबर हीं हैं. इस प्रकार ये शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन तथा पोषण संबंधी सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं.


           आदिवासियों के आर्थिक पिछड़े पन की सबसे बड़ी वजह निरक्षरता तथा सामाजिक-सांस्कृतिक अलगाव हैं. जिस कारण ये गरीबी तथा ऋणग्रस्तता में जकड़े हुए हैं | आज भी जनजातियों के समुदाय का एक तबक़ा दूसरों के घरों में काम करके अपना जीवनयापन कर रहा हैं | आर्थिक तंगी के कारण ये अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं पाते और कई बार तो पैसे के लिये उन्हें बड़े व्यवसायियों या दलालों को बेच देते हैं| विषम परिस्थितियों के कारण इनकी लड़कियों को वेश्यावृत्ति जैसे घिनौने दलदल में धकेल दिया जाता हैं.


            इनके अपने अलग देवी-देवता होते हैं. सो धार्मिक अलगाव भी इन जनजातियों की समस्याओं का एक बड़ा कारण इनके अपने अलग देवी-देवता होते हैं. सो धार्मिक अलगाव भी इन जनजातियों की समस्याओं का एक बड़ा कारण हैं |इन जनजातियों को अछूत तथा अनार्य मानकर समाज से बेदखल कर दिया जाता हैं। सार्वजनिक मंदिरों में प्रवेश तथा पवित्र स्थानों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया जाता हैं। 


           जल, जंगल और जमीन को अपना सब कुछ मानने वाला आदिवासी समाज नित नए आयाम गढ़ रहा हैं. आदिकाल में जिस आदिवासी समाज ने हमें अनाज के रुप में धान, धातु के रुप में लोहा से परिचय कराया. इसी समाज के लोगों ने देश के स्वाधीनता आंदोलन में शहादत देकर एक सामान्य जन से भगवान बिरसा मुंडा के रुप में भी देश दुनिया में अमिट छाप छोड़ी.

            आज आदिवासी समाज की द्रौपदी मुर्मू देश की प्रथम नागरिक बनने जा रही हैं. अपनी क्षमता से देश दुनिया में लोहा मनवाने में सफल हो रहा यह आदिवासी समाज, किसी आदिवासी के पहली बार राष्ट्रपति पद पर आसीन होने से गौरवान्वित हो रहा हैं.


          आदिवासी समाज का गौरवपूर्ण इतिहास रहा हैं. आज ये समाज बेहद खुश हैं. खुश क्यों ना हो आजादी के अमृत महोत्सव पर इस समाज ने वो मुकाम पाने वाला हैं जिसे वह कभी सोचा भी नहीं था. पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने जा रही द्रौपदी मुर्मू ने आदिवासी समाज के इतिहास में एक नया आयाम जोड़ने का काम किया हैं.


            आदिवासी समाज के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो इस समाज की सृष्टिकथा के अनुसार परमात्मा जिसे वो सिंगबोंगा मानते हैं. उन्हों ने केंचुए के क्रय और कछुए की सहायता से धरती का निर्माण किया फिर उन्हों ने पौधे और जानवर बनाए. उनके और स्वयं के बीच एक मध्यस्थ की आवश्यकता को देखते हुए उन्हों ने मिट्टी से पुरुष और स्त्री की मूर्तियां बनाई और उन में जीवनदायी सांसे भरी. देखते ही देखते दोनों मूर्तियां जीवित हो गई. यह प्रतीक हैं आदिवासी समाज की लैंगिक समानता का. इस वजह से जल, जंगल और जमीन के रक्षक बनकर इसे अपनी संस्कृति से जोड़कर रखा हैं.


        जंगल में किसी तरह गुजर बसर कर रहने वाले आदिवासी भले ही देश दुनिया से अलग रहा हो मगर मानव विकास में उसकी अहम भूमिका रही हैं. इतिहासकारों का मानना हैं कि मनुष्य को धान का फसल, धातु में लोहा से परिचय कराने में यही समाज सफल रहा हैं.| इसके अलावा स्वाधीनता आंदोलन में आदिवासी समाज के बलिदान को हमेशा याद रखा जाएगा.


           झारखंड सहित पूरे देश भर में जहां जहां आदिवासी रहते हैं देश की आजादी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया हैं. 1857 के सिपाही आंदोलन को भले ही पहला स्वाधीनता आंदोलन कहें मगर इससे पूर्व अंग्रेजों के विरोध में सिंहभूम, धालभूमगढ़, जंगलमहाल इलाका में 1767 में क्रांति शुरू हो गयी थी. इसके बाद 1772 में पहाड़िया फिर तिलकामांझी का विद्रोह शामिल हैं. 1855-56 में हूल विद्रोह जिसमें दो-दो बार ब्रिटिश की हार हुई. इसका प्रभाव 1857 में दिखा और यह संदेश गया कि अंग्रेजों को हरा या जा सकता हैं.


          झारखंड की धरती से उपजे एक सामान्य व्यक्ति ने भगवान बिरसा मुंडा बनने का काम किया इसी समाज ने किया. 1900 में अंग्रेजों के विरुद्ध उलगुलान करने वाले बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर रांची जेल लाया गया था, जहां उन्हों ने अंतिम सांसें ली थीं. बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों अपने देश वापस जाओ का नारा देते हुए उलगुलान किया था. उन्हों ने एक नए धर्म का प्रचार किया. एक नए जीवन पद्धति अपने अनुयायियों को दी, उन्हें धरती आबा अर्थात पृथ्वी का पिता माना गया. भगवान बिरसा का अमोघ अस्त्र, सत्याग्रह और अहिंसा था. इसी तरह झारखंड सहित देश के विभिन्न हिस्सों में 85 प्रमुख आदिवासी नेतृत्वकर्ता हुए जिन्होंने देश और समाज के लिए प्राण आहुति दी |


        जो समाज के लिए काम करते हैं, ऐसे व्यक्ति भगवान की श्रेणी में आते हैं. यही वजह हैं कि जनजातीय समाज में बिरसा मुंडा के अलावा सिद्धो कान्हू, तिलका मांझी, चांद भैरव, नीलांबर पीतांबर, जतरा उरांव जैसे महापुरुषों को देवतूल्य माना जाता हैं. पहले इन्हें सिर्फ जंगल में रहने वाले समझते थे लेकिन आज वो हर क्षेत्र में आगे होकर विकसित हो रही हैं.


         शिबू सोरेन का अधिकांश समय जंगलों में रहकर संघर्ष में कटा, आदिवासियों को महाजनों के चंगुल से मुक्ति दिलाई. पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन ने आंदोलन शुरू किया. महाजनों और नशाखोरी के विरुद्ध उन्हों ने आंदोलन का नेतृत्व किया. आदिवासी समाज को एकजुट कर पारसनाथ की पहाड़ियों की तलहटी में बसे गांवों में अपना ठिकाना बनाया 

और संघर्ष करते रहे. बाद में यह आंदोलन अलग राज्य को लेकर किया गया. राजनीतिक और सामाजिक उद्देश्य को पूरा करने में सफल रहे|


         आदिवासी समाज की वर्तमान स्थिति में निरंतर परिवर्तन आ रहा हैं। अब वहाँ शिक्षा केंद्र खोले जा रहे हैं, ताकि अधिक-से-अधिक लोग शिक्षित होकर अपनी स्थिति को सुधार सकें। आदिवासी समाज पर विज्ञान के चमत्कारों का भी प्रभाव पड़ रहा हैं। वहाँ यातायात के साधन पहुँच रहे हैं, डाक व्यवस्था में सुधार आया हैं।


             आदिवासी महिलाएं भी अपनी आवाज़ बुलंद कर आदिवासियों के बारे में लिख रही हैं। असली समस्या तो यह है कि हम इनके बारे में ज़्यादा नहीं जानते हैं। ऐसी महिलाओं का जिक्र हम नीचे कर रहे हैं |


            1917 में रांची, झारखंड में जन्मी एलिस इक्का को भारत की पहली महिला आदिवासी कहानीकार की तरह जाना जाता हैं। मुंडा ट्राइब से आने वाली वह पहली महिला आदिवासी थी जिन्होंने अंग्रेज़ी में स्नातक की पढ़ाई की। उन में आदिवासियों के जटिल मुद्दों को साधारण तरह से कहानियों के माध्यम से बताने की खूबी थी। वंदना टेटे झारखंड के सिमडेगा जिले के समतोली गांव से आने वाली एक साहित्यकार और एक्टिविस्ट हैं। जिस प्रकार इंसान के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन अलग नहीं होते, उनका मानना हैं कि आदिवासियों के लोक-गीतों को साहित्य में दिखाना जरूरी हैं।वंदना टेटे रांची और उदयपुर आकाशवाणी से भी जुड़ी रही हैं। इन्हों ने आदिवासियों के राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर प्रकाशित विभिन्न पत्रिकाएं जैसे, अखरा झारखंड (हिंदी), संस्कृति अखरा (बहुभाषी), सोरिनानिड (खड़िया) और जोहरसहिया (नागपुरी) में भी योगदान दिया हैं। इनकी अन्य पुस्तकें हैं – पुरखा लड़ाके, किसका राज हैं, झारखंड : एक अंतहीन समरगाथा, पुरखा झारखंडी साहित्यकार और नये साक्षात्कार, असुरसिरिंग, आदिवासी साहित्य : परंपरा और प्रयोजन और आदिम राग। उन्हें आदिवासी पत्रकारिता के लिए साल 2012 में झारखंड का राज्य सम्मान भी मिला हैं।


           तूलिका असम के ताई अहोम ट्राईब से हैं। उन्हों ने ताई अहोम की संस्कृति के बारे में बहुत लिखा हैं। आल इंडिया रेडियो, डिब्रूगढ़ उनके कविताओं, कहानियों और साहित्य को ‘साहित्य कानून’ प्रोग्राम से संचारित करता रहता है। उनके अन्य प्रकाशित काम हैं, हनहिर आकाश प्रिमोर आकाश, शा पुहरोट सिवसगर और स्वप्न प्रिमोर प्रथोना। वे आसाम साहित्य सभा की सदस्य भी रही हैं। उन्हें अंतरराष्ट्रीय तथागत क्रिएटिव अवार्ड 2018 से भी नवाज़ा गया हैं।


          लेखिका ममांग दाई अरुणाचल प्रदेश की पहली महिला थी, जिन्होंने आई.ए.एस. क्वालीफाई किया। इसके बावजूद ममांग दाई ने जर्नलिज़्म और लेखन चुना। उन्हों ने हिंदुस्तान टाइम्स, द टेलीग्राफ और सेंटिनल समाचार पत्रों के साथ काम किया हैं और अरुणाचल प्रदेश यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की प्रेसिडेंट भी रही हैं।इनके अन्य काम हैं 2003 की रिवर पोएम्स। इनकी किताब अरुणाचल प्रदेश: द हिडेन लैंड के लिए इन्हें वेरियर एलविं अवार्ड से भी नवा जा गया हैं। इनकी अन्य पुस्तकें हैं द स्काई क्वीन, स्टुपिड क्युपिड और माउंटेन हार्वेस्ट : द फूड ऑफ अरुणाचल प्रदेश।


            साल 2013 की साहित्य अकादमी अवार्ड विनर लेखिका, तेमसुला आओ ने अपनी पुस्तक में आओ नागा आदिवासियों के जीवन के बारे में लिखा हे । 

        इन आदिवासी लेखिकाओं के अलावा भी कई नाम हैं जो साहित्य में योगदान दे रहे, जैसे रोज केरकेट्टा और सुशीला समद। हमें आदिवासी समाज और लोगों पर गर्व होना चाहिए कि वे दुनिया को ऐसे रत्न दे रहे हैं।



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