नवम्बर का महीना
नवम्बर का महीना
नवम्बर का महीना, सर्द भरी हवा, एक मोटे किताब को सीने से चिपकाये, हल्के हरे ओवरकोट में तुम सीढ़ियों से उतर रही थी। इधर उधर नजर दौड़ायी, पर जब कोई नहीं दिखा तो मज़बूरीवश तुमने पूछा था - कॉफी पीने चले। तुम्हें इतना पता था की मैं तुम्हारे क्लास का हूँ, और मुझे पता था कि तुम्हारा नाम सोनाली राय है। बंगाल के एक जाने माने वकील अनिरुद्ध राय की इकलौती बेटी हो। लाल रंग की स्कूटी से कालेज आती हो और क्लास के अमीरजादे भी उतने ही मरते है, जितना हम जैसे मिडिल क्लास लड़के। जिन्हें सिगरेट, शराब, लड़की, और पार्टी से दूर रहने की नसीहत हर महीने दी जाती हैं। जिनका एक मात्र सपना होता है, माँ - बाप के सपनों को पूरा करना। और ये तुम जैसी लड़कियों से बात करने से इसलिये हिचकते हैं क्योंकि हाय हैलो के बाद की अंग्रेजी बोलना इन्हें भारी पड़ता है।
तुम रास्ते भर बोलती रही थी और मैं सुनता रहा, क्योंकि तुमने मौका नहीं दिया और मुझे सुनना अच्छा लग रहा था। तुमने मिश्रा सर, नसरीन मैम की बकबक, वीणा मैम की समाचार पढ़ने जैसा लेक्चर और न जाने कितनी कहानियाँ तेजी से सुना गयी थी। और मैं बस मुस्कुराते हुए तुम्हारे चेहरे पर उठते हर भाव को पढ़ रहा था। तुम्हारे होंठ के ऊपर काला तिल था, जिसपर मैं कुछ कवितायें सोच रहा था, तबतक तुम्हारी कॉफी आ गयी और मेरी चाय।
तुमने पूछा था - तुम कॉफी क्यों नहीं पीते?
मैंने मुस्कुराते हुए बोला - चाय की आदत कभी छूटी नहीं।
तुम यह सुनकर काफी जोर से हँसी थी।
शायरी भी करते हो।
मैं झेंप गया।
तुम इतने समय से कुछ भूल रही थी, मेरा नाम पूछना, क्योंकि मैं तुम्हारी आवाज में अपने नाम को सुनना चाह रहा था, तुमने तब भी नहीं पूछा था।
हम दोनों उठ कर चल दिये थे, कैंप से विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन की ओर...
बात करते करते तुमने कहा था, सज्जाद पता है, मैं अक्सर सपना देखती थी की मैं फोटोग्राफर बनूँ। पूरे विश्व का चक्कर लगाऊँ, और सारे खूबसूरत नजारे को अपने कैमरे में कैद कर लूं। लेकिन आज मैं मार्क्स और लेनिन की किताबों में उलझी हुई हूँ। कभी जी करता है तो ब्रेख्त को पढ़ लेती हूँ, तो कभी कामू को…
हम अक्सर जो चाहते है, वैसा नहीं होता है और शायद अनिश्चितता ही जीवन को खूबसूरत बनाती है, अक्सर सब कुछ पहले से तय हो तो ज़िंदगी से रोमांच खत्म हो जायेगा। हम उम्र से पहले बूढ़े हो जायेंगे, जो बस यही सोचते हैं, अब मरना ही एकमात्र लक्ष्य है।
- सज्जाद, तुमने क्या पॉलिटिकल साइंस अपनी मर्जी से चुना, तुमने पूछा था।
- हाँ, मैंने कहा।
नहीं कहने का कोई मतलब नहीं था उस समय।
मैं खुद को बताने से ज्यादा, तुम्हें जानना चाह रहा था।
- और हाँ, मेरा नाम सज्जाद नहीं, आदित्य है, आदित्य यादव ,मैंने जोर देते हुए कहा।
- ओह! तो तुम लालू यादव के परिवार से तो नहीं?
- बिलकुल नहीं, पता नहीं क्यों बिहार का हर यादव, लालू यादव का रिश्तेदार लगता है लोगों को।
कुछ पल दोनों चुप हो, कई कदम चल चुके थे। मैंने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा था - वैसे ये सज्जाद कौन है?
- कोई नहीं, बस गलती से बोल गयी थी।
तुम्हारे चेहरे के भाव बदल गए थे।
- कहाँ रहते हो तुम?
हम बात करते करते मानसरोवर हॉस्टल आ गए थे, मैंने इशारा किया - यहीं!
मेट्रो स्टेशन पास में ही था, तुम विदा लेने को हाथ बढ़ाई। हाथ पर कई निशान थे।
मैंने पूछा था - ये निशान कैसा?
अरे वो कल कुक नहीं आयी थी, तो खुद रोटी बनाते वक़्त जल गया। कभी आदत नहीं है ना।
मैंने हाथ मिलाया, ओवरकोट की गर्मी अब भी तुम्हारे हाथों में थी।
इस खूबसूरत एहसास के साथ मैं सो नहीं पाया था, सुबह जल्दी तुमसे ढेर सारी बाते करनी थी, क्योंकि मैं अक्सर पहली मुलाकात में चुप रह जाता हूँ।
मैं कालेज गया था अगले दिन, मेरा चेहरा खुद-ब-खुद मुस्कुरा रहा था। कालेज में इस बात की चर्चा जरूर होने वाली थी, क्योंकि हम दोनों को साथ घूमते हुए, क्लास के कई लड़के लड़कियों ने देख लिया था।
एक खूबसूरत इलीट लड़की के साथ अगर मिडिल क्लास लड़का साथ दिख जाये तो लड़के की खुशकिस्मती की चर्चा पूरे क्लास में होती है।
उस दिन तुम नहीं आयी थी। उस दिन समय का हर सेकण्ड बोझिल लग रहा था। तुमने कालेज छोर दिया था।
दो साल बाद दिखी थी, उसी नवम्बर महीने में कनॉट प्लेस के इंडियन कॉफी हाउस के सीढ़ियों से उतरते हुए।
मेरा मन जब भी उदास होता है, मैं निकल पड़ता था, इंडियन कॉफी हाउस। दिल्ली की शोर भरी जगहों में एकमात्र यही जगह थी जहाँ मैं सुकून से उलझनों को जी सकता था। यहाँ मैं उजले कप में कॉफी और चीनी को चम्मच से घूमता रहता और कल्पनाओं को नई उड़ान देता।
मैंने अब वक़्त के साथ कॉफी पीना शुरू कर दिया था, चाय की आदत छूट गयी थी। कभी कभी इस नयी बदलाव की वजह तुमको मानता हूँ।
हल्की मुस्कुराहट के साथ तुम मिली थी उस दिन, कोई तुम्हारे साथ था। तुम पहले जैसी चहक नहीं रही थी। एक चुप्पी थी चेहरे पर - जैसे पुराने कुएँ के पानी में होता है, जहां अब औरतें पानी लेने नहीं जाती, अब आसपास चुहलबाजी नहीं होती, अब वहाँ बच्चे नहीं नहाते, अब तो वहाँ बाल्टी भी नहीं है।
तुम्हारा इस तरह मिलना मुझे परेशान कर रहा था। इस तरह तुम्हारी मुलाकात मुझे परेशान कर रहा था। तुम बस उदास मुस्कुराहट के साथ मिलोगी और बिना कुछ बात किये सीढ़ियों से उतर जाओगी, ऐसा होना मुझे अंदर तक कचोट रहा था। इसी उधेड़बुन में सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते गिरा पर्स मिला - खोलकर देखा तो किसी अंजुमन शेख का था, बुटीक सेंटर, साउथ एक्सटेंशन पता था, दिए हुए नम्बर पर कॉल किया तो स्विच ऑफ था।
तुम्हारे बारे में सोचते सोचते रात के आठ बज गए थे। अचानक याद आया की किसी का पर्स मेरे पास है, जिसमें यही कुछेक बारह सौ रुपये और एक डेबिट कार्ड है। मैंने फिर एक बार कॉल लगाया, इस बार रिंग हो रहा था।
- हैलो (एक खूबसूरत आवाज सुनाई दिया)
- जी, आपका पर्स इंडियन कॉफी हाउस की सीढ़ियों पर गिरा मिला। आप बताये इसे कहाँ आकर लौटा दूँ।
- आदित्य बोल रहे हो (उधर से आवाज आयी)
- सोनाली तुम, मैं आश्चर्यचकित था।
- कैसी हो तुम और ये अंजुमन शेख का कार्ड? तुम हो कहाँ? तुमने कालेज क्यों छोड़ दिया थी? मैं सारे सवाल का जवाब जान लेना चाहता था, क्योंकि मुझे कल पर भरोसा नहीं था।
तुमने बस इतना कहा था - कल कॉफी हाउस मिलो 11 बजे।
उस रात फिर नहीं सो पाया था, कल जल्दी उठकर मिल लेना चाहता था। बहुत से सवाल थे मन में जिसे जल्द से जल्द जान लेना चाहता था। तुमसे बहुत कुछ पूछना था, तुमको बहुत कुछ कहना था।
अगले दिन, कॉफी हाउस के उजले कप में कॉफी और चीनी को बड़ी तन्मयता से मिला रहा था कि तुम्हें आते हुए देखा...
हल्के हरे रंग के ओवरकोट में, नवम्बर की पहली मुलाकात याद आने लगी। मस्तिष्क हमारी सारी यादों को सहेज कर रखता है। आज पुरानी सारी कड़ियाँ अपने आप जुड़ती चली गयीं।
दो साल पहले उस हरे ओवरकोट में सोनाली मिली थी, सपनों के साथ जीने वाली सोनाली, बेरंग जिंदगी में रंग भरने वाली सोनाली। पर दो साल में तुम बदल गयी थी, तुम सोनाली नहीं थी। तुम एक हताश, उदास, सहमी अंजुमन शेख थी। जिसने दो साल पहले घर छोड़ कर अपने प्रेमी सज्जाद से शादी कर ली थी। वही सज्जाद जिसके बारे में तुमने मुझसे छुपाया था।
आप जिससे प्रेम करो, उसके साथ जिंदगी का हर एक पल जीने को मिले, इससे खूबसूरत और क्या हो सकता है। इस गैर मजहबी प्रेम विवाह में निश्चित ही तुमने बहुत कुछ झेला होगा, पर प्रेम सारे जख्म को भर देता है। पर तुम्हारी इन सब बातों की नहीं थी, वह थी तुम्हारे और सज्जाद के बीच आये रिश्तों की कड़वाहट की, जो वक़्त के साथ और बदतर हो रहा था, जहाँ प्रेम एक बस्ते में बन्द हो गया था।
शादी के बाद प्रेम ने बन्धन का रूप ले लिया था। आधिपत्य के बोझ तले रिश्ता बोझिल हो रहे थे। तुम तो विश्व की चक्कर लगाने वाली लड़की थी, तुम रिश्तों को जीना चाहती थी, ढोना नहीं। जिससे तुम्हें प्रेम था, वह घुटन बन गया था, वहाँ शक ने दरवाजा खटखटा दिया था।
तुम सब कुछ कहती चली गयी थी और मैं तुम्हारे चेहरे पर उठते हर भाव को वैसे ही पढ़ना चाह रहा था, जैसे पहली दफा पढ़ा था। तुम्हारे आँखों से आँसू टपक रहे थे, जो तुम्हारे होंठ के ऊपर बने तिल तक पहुँच रहे थे। तुम कुछ हल्का महसूस कर रही थी।
तुमने सज्जाद के लिये नाम बदला था, अपनी कल्पनाएं बदली। तुमने खुद को बदल दिया था। प्रेम में बदलना सही है या गलत नहीं मालूम, पर खुद को बदल कर तुमने प्रेम भी तो नहीं पाया था।
वक़्त हो गया था फिर एक बार तुम्हारे जाने का, सज्जाद घर पहुँचने वाला होगा, तुमने कहा था।
तुमने पर्स लिया, और हाथ आगे बढ़ाकर बाय कहा।
मैंने जल्दी से तुम्हारा हाथ थामा, वही दो साल पुरानी ओवरकोट की गर्मी महसूस करने को। तुम्हारे हाथ के पुराने जख्म भर गए थे, पर नए जख्म ने जगह ले ली थी। पहले के जख्म सज्जाद के लिए था, अब नए जख्म सज्जाद के थे।
इस बीच हमारी फोन पर बातें होती रही, राजीव चौक, नेहरू प्लेस पर दो बार मुलाकात हुई।
सब कुछ सहज हो रहा था, तुम्हारे जिंन्दगी में और मैं असहज। इस बीच मैं लिखता रहा था, तुम्हें कविताएं भी भेजता था, पढ़कर तुम रोती भी थी, कभी हँसती भी थी।
एक दिन तुम्हारा मैसेज आया था - मुझसे बात नहीं हो पायेगी अब।
मैंने तुरत कॉल बैक किया, मेरा नम्बर ब्लॉक हो चुका था, तुम्हारा फेसबुक अकाउंट चेक किया, डिलीट हो चुका था। मैं घबरा गया था, तुम्हारी साउथ एक्स वाली बुटीक पर फोन किया तो पता चला तुम एक सप्ताह से वहाँ नहीं गयी हो। इसी बीच मेरी नया उपन्यास "नवम्बर की डायरी" बाजार में छप कर आ चुका था, मैं सभाओं और गोष्ठियों में जाने में व्यस्त हो गया, पर तुम्हारा ख्याल मन में हमेशा बना रहा।
समय हर दिन करवटें ले रहा था, सूरज रोज डूबता था, रोज उगता था। धीरे धीरे एक साल गुजर गए थे।
शाम के सात बज रहे थे। मैं कमरे में अपनी नयी कहानी "सोना" के बारे में सोच रहा था। उसका अंत समझ नहीं आ रहा था। कई लाइन लिखता फिर उस पन्ने को फाड़कर फेक देता।
सिगरेट की तलब शुरू हुई, ड्रावर खोला दो सिगरेट बची थीं। तब तक के लिये काफी था। सिगरेट को जलाया, थोड़ी राहत मिली। फिर लिखने बैठ गया। तब तक दरवाजे की घण्टी बजी, मैंने आखिरी कश को अंदर लिया, फिल्टर को बुझाकर ऐश ट्रे में डाल दिया।
दरवाजा खोला तो देखा कोई लड़की मेरी ओर पीठ किए खड़ी है।
मैंने कहा, जी...
वह जैसे ही मुड़ी, मैं आश्चर्यचकित हो गया। वह तुम थी, सोनाली।
हम दोनों गले से लिपट गये थे। मैंने तुम्हें सीने से लगाये हुए पूछा, तुम्हें मेरा पता कैसे मिला।
तुम्हारा उपन्यास पढ़ा "नवम्बर की डायरी", उसी के पीछे तुम्हारा नम्बर और पता भी था।
आदित्य तुमने सही लिखा है, इस उपन्यास में "जिन रिश्तों में विश्वास की जगह न हो, उनका टूट जाना ही बेहतर है।" मैंने सज्जाद को तलाक दे दिया था। हमारी फेसबुक चैट सज्जाद ने पढ़ लिया था, फिर यही से बचे रिश्ते भी टूटते चले गए थे।
मैंने पूछा - कॉफी बनाऊँ।
“नहीं चाय, कॉफी की आदत छूट गयी अब”, तुमने कहा।
मैंने तुम्हारे लिये चाय बनायी और खुद के लिये कॉफी।
- तुम कॉफी कब से पीने लगे?
- तुमसे मुलाकात के बाद से।
तुम हँस दी थी। बदलाव प्रेम में सहज हो तो वही शुभ होता है।
तुम मेरे अस्त व्यस्त घर को देख रही थी, अस्त व्यस्त सिर्फ घर ही नहीं था, मैं भी था। जिसे तुम्हें सजाना और सँवारना था, पता नहीं तुम इसके लिए तैयार थी या नहीं।
तभी तुमने कहा - ये किताबें इतनी बिखरी हुईं क्यों हैं, मैं सजा दूँ। मैं मुस्कुरा दिया।
घड़ी के नौ बज गए थे, हम दोनों किचन में डिनर तैयार कर रहे थे। तुमने कहा खिड़की बन्द कर दो, सर्द हवा आ रही है।
मैंने महसूस किया, नवम्बर का महीना आ चुका था।