खोया चश्मा मिल गया
खोया चश्मा मिल गया
जोर से हुई आवाज पर, मधु जी चौंककर पूजा करते- करते बीच में बोली
," क्या.. हुआ?"
"कुछ नहीं, वह मेरा चश्मा ना जाने कहाँ रखा है?"
रमेश जी ने कहा।
"तो संभाल कर रखना था ना, कहीं भी रख देते हैं आप"
मधु जी ने मंत्र उच्चारण करते हुए कहा।
"हाँ -हाँ मैं ही अपनी हर चीज रखकर भूल जाता हूँ और तुम लोग ,तुम लोग तो कहते -कहते"
कुछ अटक सा गया रमेश जी के गले में।
अच्छा-अच्छा अभी ढूंढती हूँ , और मधु जी उठकर चश्मा ढूंढने में लग गई।
"अगर दिखाई देता तो इस चश्मे की या तुम्हारी क्या जरूरत थी मुझे, सुबह- सवेरे तुम्हारी योगा मंडली और उसके बाद यह पूजा-पाठ,मेरी परवाह ही कहाँ है। और तुम्हारे दोनों नालयक बेटे... उनका तो कहना ही क्या.. ?माँ-बाप मरे या जिए।
ऐसा क्यों कहते हैं?मधु जी ने मेज पर रखी किताबो पर से धूल झाड़ते हुए कहा।उनकी नौकरी दूसरे शहर मे है...
"तो...",
तो...आते तो हैं,
आते तो हैं... ,अखबार में खबर आई थी मां बाप को कोई मारकर चला गया और बेटे को खबर मिली 15 दिन बाद..वो भी किसी और से।
अच्छा- अच्छा शुभ- शुभ बोलिए इतना गुस्सा करते हैं, तबीयत खराब हो जाएगी, और मै चाय नाश्ता देती हूँ फिर डॉक्टर के पास जाना है।
क्यो..?जाना है डाक्टर के पास।
अरे!...मंथली चेकअप की तारीख है आज...।
"ये सब चोचले तुम करो...क्या..?करोगी जिंदा रहकर ऐसे नालायक बेटो के रहते तो मर जाना बेहतर...।हमने अपने माता-पिता का कितना किया है और एक हमारी औलाद है एक भी काबिल नहीं जो मां बाप की जिम्मेदारी ले सके "
रमेश जी ने कहा।
"जमाना बदल रहा हैं, आप भी सोच बदले ,हमे क्या...जरूरत उनकी ।और वैसे भी, मैं सुबह और शाम को सैर करने जाती हूँ ताकि मेरे शरीर के साथ साथ मानसिक स्तर भी स्वस्थ रहे। आप सारी जिंदगी नौकरी व अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने मे व्यस्त रहे, आपका सामाजिक व्यवहार ना के बराबर है"
मधु जी ने कहा।
हम्म....., पसंद नहीं है मुझे इधर की उधर करना और छिछोरों की तरह सैर के नाम पर, पार्क में बैठकर लड़केे लड़कियां ताकना। पहलेे मेरा चश्मा ढूंढो यह पंचायती मास्टरनी पना बाद में दिखा लेना। तभी डॉक्टर के जाऊंगा ।
हाँ, आप नाश्ता तो करिए, और तभी सामने के दरवाजे से ड्राइंग रूम में रमेश जी के एकमात्र अभिन्न मित्र मनोहर जी ने यह कहते हुए प्रवेश किया, कि क्या हुआ? रमेश भाई क्यों भाभी पर नाराज हो रहे हैं? और मधु जी से कहा भाभी आज आपके हाथ की चाय का लुफ्त हम भी उठाएंगे ।
अरे...!भाई साहब, मैंने सुना था आपकी तबीयत ठीक नहीं, मेरा मतलब कहते- कहते रुक सी गई।
पूछिए भाभी, पहले वाला मनोहर नहीं रहा मैं, कुछ महीनों पहले तक मैं भी रमेश , की तरह दुख मनाता रहता था, कि बहू बेटे सेवा नहीं करते। साथ रहकर भी दूर रहते हैं। परंतु जब मेरी तबीयत खराब हुई ,उन्हीं बच्चों के बच्चों ने मुझे ना सिर्फ डॉक्टरी सहायता दिलवाई। बल्कि जीवन को रिटायरमेंट के बाद जीने की कला सिखाई।
" पर वह कैसे ?"रमेश जी ने कहा।
वह ऐसे कि बदलाव को स्वीकार करके ही मनुष्य खुश रह सकता है। अरे!.. भाभी, चश्मा यह रखा है, रमेश का ।
"नहीं भाई साहब, मधु जी ने मुस्कुराकर कहा, यह चश्मा मेरा है"।
"हाँ , तो मैं क्या कह रहा था? एक पुराने घर में बंद करके रखना चाहते हैं हम अपने आप को ,सभी को वह घर जर्जर ही दिखाई देता है। वे हमसे कहते हैं, निकलो.., परंतु हम उस घर की दीवारों से सीलन की तरह चिपके रहते हैं ,और दुख मनाते रहते हैं। अरे!...,उस घर की सीलन तभी सूखेगी, बदबू तभी दूर होगी ,जब हम उस घर के खिड़की दरवाजे खोलेगे, धूप रोशनी और ताजी हवा भीतर आने देंगे।"
मैं भी तो यही कहती हूँ भाई साहब इनसे ,क्या हुआ जो बच्चे हमारी ओर उतने समर्पित नहीं, जितने हम उनके लिए थे ।क्या इतना काफी नहीं, कि वह काबिल है, अपना परिवार लिए बैठे हैं। अब हमें कुछ सांस आई है सुबह की जिम्मेदारी और रात की चिताओ से, पर यह जिम्मेदारियों और चिंताओं के इतने आदी हो चुके हैं ,कि उन्हें छोड़ना ही नहीं चाहते।
"बदलाव प्रकृति का नियम है रमेश"।
मनोहर जी ने कहा।
"मुझे देखो मनोरोगी हो गया था। मनोविज्ञान की पढ़ाई कर रही पोती ने समझाया।
दादू..., आप नाराज़ दूसरों से नहीं अपने से रहते हैं। क्योंकि आपकी नाराजगी को दादी के अलावा अगर कोई झेलता है तो ,आप स्वयं हो।"
और तभी रमेश जी ने पंखे की हवा में भी आ रहे पसीने को पोछने के लिए अपनी जेब को टटोला ,तो उनका चश्मा उनके हाथों में था और भविष्य कुछ चमकदार सा दिखाई पड़ रहा था ।
अपने ब्लॉग के माध्यम से मै यह कहना चाहूंगी कि हमारे बुजुर्ग रिटायरमेंट के बाद आराम तथा हमारा साथ चाहते हैं और यह उनका अधिकार भी है ।परंतु वह भूल जाते हैं कि बच्चों के ऊपर माता पिता के अलावा, उनके स्वयं की, बच्चों के भविष्य की जिम्मेदारी भी होती है। वैसे इस दौर से वह भी तो कभी गुजरे होंगे ।
तो क्यों ना अपनी दिनचर्या कुछ इस तरह बनाए कि जिंदगी की आपाधापी के बीच जो जीवन के अनमोल पल वह जीना भूल गए थे। या किसी कारणवश नहीं जी पाए थे,उन्हें जिए ।
सैर पर जाएं, अपना दायरा बनाएं ,घूमे फिरे ,जिंदादिली से खुशी के साथ जिंदगी की दूसरी पारी खेले। ना कि तनहाई झुंझलाहट ,भीतरी खलिश के साथ मौत का इंतजार करें। इस परिवर्तन को ऐसे ही गले लगाकर उत्सुकता के साथ स्वीकार करें। जैसे जीवन के सौलहवे बसंत को किया था।