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घर की धड़कन

घर की धड़कन

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पहले ज़्यादातर मकान शायद आज जैसे नहीं होते थे। घर और मकान ने बड़ा लम्बा सफर तय किया है। गाँव में जब डाकिया आता तो पूछता… "मंडरू का मकान कहाँ है?" कोई जवाब देता कौन मंडरू..." तो कोई कहता, "अरे वो राधेश्याम ने ना अपने घर का एक कमरा किराए पर दे रखा है, शायद वही मंडरू होगा।" लगता है उस वक़्त भी लोग घर और मकान के फर्क को बहुत आत्मीयता से समझते और फर्क करते थे। हर मकान घर नहीं होता। ये बात वो लोग भी अच्छे से जानते थे। खैर, जाने दीजिये मकान व् घर ने अपने आप में बहुत लम्बा सफर तय किया है। खासतौर से भारत के विकासशील व उन्नत प्रदेशों में चाहे वो समुद्र के किनारे महाराष्ट्र की महानगरी मुंबई हो या उत्तरप्रदेश का शहर नोएडा, ग़ाजियाबाद और दिल्ली भी तो अछूता नहीं।

देश के हर कोने से सैकड़ों आदमी हर पल अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के वजन को ढोता और उनकी पूर्ति हेतु दिल्ली के कई रेलवे स्टेशनों और बस स्टैंड पर उतरता है। दिल्ली नगरी की सीमित जमीन पर हर कोई अपना मकान बनाने को व्याकुल नज़र आता है। अपनी रोजी-रोटी व अतिरिक्त साधन व् धन अर्जित करने हेतु दिल्ली के आस पास ओद्योगिक क्षेत्रों में काम के लिए जाता है। शाम जब वह काम से वापिस का सफर करता है और जब कोई पूछता है "भाई, कहाँ जा रहे हो..." तो उसके मुँह से अनजाने में अचानक उसकी दबी हुई चाहत शब्द बन निकलती है…

"भाई, घर जा रहा हूँ।"

"ये मकान से घर का सफर बहुत अदभूत है। ये सफर कभी आपने, आपने और आपने भी जिया और किया होगा।"

यह उन दिनों की बात है… मंडरू और लति कुछ दिन पहले अपने- अपने गावों से भाग कर राधेश्याम के मकान में आए थे। रिश्ते का कोई नाम …नहीं था उनके पास। दोनों की बस अपनी चाहत थी… जीने की। लति, मंडरू के गाँवो से पांच कोस दूर रहती थी।

एक दिन वो दोनों अचानक तहसील के दफ्तर में मिले।

लति पूछ रही थी, "ज़ात का प्रमाण पत्र कहाँ बनेगा?" और मंडरू अपने नाम से जॉब कार्ड लेने की हर सम्भव कोशिश कर रहा था। थके-हारे दोनों आपस में बात करने लगे अपनी भाषा में .....जो मुझे नहीं आती पर उनकी और से आती हवाएँ मानों कह रही हो "हमारी मदद करने वाला कोई नहीं।" वो दोनों एक-दूसरे की तरफ देखते क्योंकि दफ्तर के बाबू शाम तक नहीं आए वह कल की आस लेकर दोनों अपने-अपने घर चले गए।

अगले दिन समय से पहले वो दोनों तहसील पहुंचे। धीरे-धीरे ये मुलाकातें आपसी सहयोग से हर कदम बढ़ती गई। सपनो और चाहतो का आदान प्रदान होने लगा।

मंडरू को लगा उसे लति से प्यार हो गया है।

मंडरू के मन में भी अपने घर की चाहत होने लगी व एक दिन वह लति से बोला...

"मेरे साथ चलोगी?"

वह बोली "कहाँ?"

मंडरू - "शहर जाएगें।"

लति - "रहेंगे कहाँ?"

मंडरू - "अरे, कमरा किराए पर लेंगे।"

लति – "फिर?"

मंडरू - "अरे... काम करेंगे, पैसे कमाएगें, शहर मे बहुत पैसे है, बहुत मकान बन रहे है। तू गारा मिटटी ढो लिया करना और में ईट थाप लूंगा। शाम को दिहाड़ी लेकर कमरे पर आ जाएगें।"

मन में लति की हाँ समझ मंडरू अपने घरवालों से कहने लगा, "अम्मा यहाँ तो काम काज मिल ना रहा... मैं सोचरा नोएडा निकल जाऊ।" और अम्मा की हाँ या ना सुने बिना, सीमेंट की खाली बोरी में मंडरू कुछ एल्युमीनियम व लोहे के बर्तन रख कर घर बसाने के सपने देखने लगा और बोरी को सिलकर, सुबह जाने की तैयारी में एक कोने में रख दिया।

सुबह 05:30 बजे की पहली बस थी, अपने को तैयार समझ चारपाई पर लेटकर सुबह होने का इंतज़ार करने लगा। देखते - देखते रात के 10:30 बज गए। नींद तो आ ही ना रही थी पर होश में ही मंडरू को एक झटका सा लगा अरे

लति को तो बताया कोएना, अरे दो चार जोड़ी कपडे भी ना रखे और ये विचार आते ही मंडरू उठा और थैले में अपने औजारो के ऊपर दो चार जोड़े अपने कपङो को रख थोड़ा शांत हो गया और सोचने लगा लति को कैसे खबर करुँ अचानक उसकी आँखों में एक रौशनी भर गई और उसने सोचा कुछ कोस की तो बात से। मैं चार बजे लति के गाँवो की तरफ निकलूँगा वो सुबह जंगल तो जरूर आवेगी बस तभी उसे कह दूँगा चल तू सीधी बस अड्डे पर आ जइयो। मंडरू की सारी समस्याए खत्म हो चुकी थी और वह सुबह 04:30 बजे के इंतज़ार में पल दो पल सो गया।

अपनी योजना अनुसार मंडरू कामयाब हुआ और उत्तर प्रदेश बस स्टैंड पहुंच कर बस वह लति के आने का इंतज़ार करने लगा।

बस आ गई और मंडरू ने अपना गमछा बस की खिड़की से ही ड्राइवर के पीछे वाली सीट पर रख दिया ताकि आने वाली सवारियो को लगे की सीट रोकी हुई है। मन मैं उथल पुथल थी की लति आएगी की नहीं। बर्तनो की बोरी बस की छत पर रखू या सीट के नीचे और ये उलझने भी बड़ी जल्दी दूर हुई जब लती लहँगा चोली पहने तेज कदमो से अपनी और आती दिखाई दी। बात पक्की समझ मंडरू का मन उछलने लगा। वो बर्तन की बोरी सर पर रख कर बस की छत पर चढ़ गया । अभी ज्यादा सवारी नहीं आई थी। मंडरू अपने सपनो के घर का पहला सामान बोरी में बंद बर्तन बड़े प्यार से बस की छत पर रखने लगा की कही बस के झटके से वो टूट ना जाये। फटाफट नीचे उतरा और बोला "अरे, तू नीचे खड़ी के कर री से? चल बस मे बैठ, वहाँ बैठियो जहाँ मैंने गमछा रखा है। पहचानती हैं ना गमछा।" और लति झुकी निग़ाहों से अपने और बस की सीढ़ियों की दूरी को मापने लगी। मन में बस के पहले पायदान की उचाई मापने लगी 'क्या डंडा पकड़ कर चढ़ पाउंगी।' लति का मन हल्का सा बोझल पर ऊपर उठने की चाह में उड़ने सा लगा।

मंडरू ने जब लति को बस की सीट पर बैठा देख लिया तो वहाँ हाथो में बीड़ी का बंडल रगड़ एक बीड़ी निकाल उसे सुलगाकर एक लम्बा सा कश लिया और काले धुँए को छोड़ बहुत सुकून की साँस ली बिना परवाह किये की धुँए की बदबू कितनी दूर तक शायद लति तक भी पहुंची होमंडरू सोचने लगा बस अब घर बन जाएगा, बर्तन भी हो गए। रोटी बनाने वाली भी आ गई। बच्चे तो हो ही जायेंगे और एक न्यारा सा सपना लिए बस के हॉर्न की आवाज सुनकर मंडरू भी तेज़ी से बस में चढ़ा और लति के पास जाकर सुकुन से बैठ गयारात की थकान, लति का कन्धा और बस की आवाज तीनो के प्रभाव से मंडरू की आँख पता नहीं कब लग गई। जब बस ठहरती तो झटके से- मंडरू की नींद भी खुल जाती सूर्योदय की पहली किरणों ने जब शीशो से झाँककर दस्तक दी जैसे कहा हचलो उठो सवेरा हो गया हैं। नोएडा भी आ गया हैमंडरू अब दिन के सपने बुनने लगा। बस से सामान उत्तारूँगा, तांगा तो मिलेगा नहीं.... यहाँ रिक्शा से ही चलूँगा, पास ही तो जाना है। पीछे राधेश्याम चाचा का मकान है.....और फिर सपना तब टूटा जब रिक्शा वाले ने 40 रुपए मांगे।

चाचा राधेश्याम का घर आ गया था जिसके एक कमरे में वो और लति रहने आए थे। बर्तनो की बोरी व लति को साथ लिए खुले दरवाजे से राधेश्याम के मकान में अंदर आँगन में जाकर आवाज दी चाचा।

इतने में देखा सामने धोती कुरता पहने राधेश्याम चाचा आ रहे थे और बोले "अरे, आ गया तू और ये साथ कौन से तेरे?"

"चाचा... ये लति है मेरे साथ काम करेगी और रहेगी।"

चाचा की मंद मुस्कराहट मानों कह रही हो चलो अब मंडरू का भी घर बसेगा। लति और बर्तनो की बोरी कमरे में छोड़ मंडरू बोला "मैं कुछ काम देख कर आऊँ और खाने पीने का सामान भी लाऊँ, भूख लगी है रोटी खाएगे।" कुछ खाने पीने का सामान ले मंडरू कमरे में पंहुचा तो देख हैरान था, लति ने बर्तन एक कोने में रख वहाँ रसोई की जगह बना ली थी। चाची से बाल्टी ले और कुँए के पास बिना साबुन के नहा के बहुत फ्रेश लग रही थी। सूर्य की किरणे उसके केशो की गोलाईयो से टकराकर उन्हें अदभूत चमकीला करती, और उसके बालो के अंतिम छोर से गिरती पानी की बूँदे, मंडरू के मन में एक उन्माद सा भर जाती अब मेरा भी घर बन जाएगा।

इतने में लति बोली "के देख, खिचड़ी बनाउंगी काए पे चूल्हा तो है ही कोएना" मंडरू का उन्माद तो मानों उसे पंख लगाकर उड़ा रहा था।

वो झट से आँगन में गया और सूखे पेड़ के पत्ते व डंडिया बर्तनो वाली ख़ाली सीमेंट की बोरी में भर 6 ईंटो के साथ आँगन में लोटा और फटाफट दो ईंट दाए, दो ईंट बाए और दो ईंट पीछे आँगन में गोबर से पथि ज़मीन पर टिका दी और बीच की जगह में सूखे पत्ते डाल उनके ऊपर पेड़ से टूटी सूखी पतली डंडिया रख आवाज लगाई अरी सुनती है "आ इब चूल्हा भी बन गयो है।"

लति दौड़ी सी आई और बोली "अरे वाह! तू तो बड़ो कारीगर से, बड़ा चोखा सा चूल्हा बनाया इतने में देखा सूर्यास्त की पहली किरणें उनके आँगन को ढकने लगी थी।" मंडरू बाजार से पांच बत्ती वाला एक दिया भी लाया था जिसमें लति ने तेल भरकर अपने हाथ से रुई को मसलकर एक बट भी बनाके उसमें डाल कर अंधकार से लड़ने की पूरी तयारी भी कर ली थी। 7:30-8:00 बजे तक सूर्यास्त की आखिरी किरणों से अंधकार के साम्राज्य के अस्तित्व की शरूआत हो चुकी थी। परन्तु इससे पहले लति ने अपने नए मकान के आँगन मे पहली रात के भोजन की खिचड़ी भी बना ली थी।

लती को माँ और बाबा की याद आती और उसे बोझल करती इससे पहले ही उसने दिए की बतियाँ जला दी थी। कमरा रौशनी से पूरी तरह चमक रहा था। तेल की हल्की-हल्की सुगंध या कहिये बाती का धुँआ दोहरा काम करने लगा था। एक तरफ तो लति क आँखों मे चुभन थी और दूसरी तरफ बंद कमरे में पले मछर दरवाजे से भागने लगे थे। मंडरू व् लति जब तलक खिचड़ी खाते दिए की चार बाती बुझ चुकी थी। अब कमरे मे बस हल्की पीली रौशनी थी।मंडरू ने आज खाने के बाद बीड़ी भी नहीं सुलगाई थी। कमरे के किवाड़ बंद कर मंडरू सोने की तयारी करता, तभी उसे सिर के पीछे की तरफ दिवार में हटी हुई चार ईंट दिखाई दी... शायद वो रोशनदान का काम कर रही थी जिनसे चन्द्रमा की मीठी रौशनी कमरे की पीली रौशनी को और और भी मधमस्त कर रही थी। इतने में मंडरू ने सोचा लति सोएगी कैसे। तकिया भी तो नहीं उठाया...... चल शायद मेरे कंधे पर सर रखकर सो जाए ....जैसे में बस में सो गया था। उसके कंधे पर सर रखकर।

"क्यों री.. लति मेरे हाथ पर सिर रख्खर सोएगी क्या क्योंकी तकिया तो कोए है ना।" मंडरू मन ही मन ख़्वाब बुनने लगा। कमरे की मीठी रौशनी व चोली और घाघरा पहने लति के चेहरे के आस पास घुंघराली लटे और उसका दिल जो थोड़ा तेज धड़क रहा था और गर्म होती साँसे मंडरू के कानो में एक स्वर भर जाती। दिल से लगा केकुछ पल जी ले हम। थकी और बोझिल लति, मंडरू की हथेली पर सिर रखकर सोने की कोशिश करती छटपटाती और कोनी की तरफ चली आती। बाती बुझते ही चन्द्रमा की मीठी रौशनी में मंडरू के कंधे पर सर रख गर्म साँसों में मन की उलझने बुद्धिमिता से सुलझाती अपने दाएं हाथ से मंडरू के चेहरे से होती उंगलिया उसके बालो को सहलाती और होठों की कम्पन से मंडरू को लगालति पूछ रही है।

"क्या मुझे बहुत प्यार करते हो?"

"पगली कहीं की। प्यार तो वो प्यास है जिसको बुझाने के लिए खुद ही पानी भरना पड़ता है। दूसरे के भरे पानी से प्यास बुझ सकती है पर प्यार नहीं मिलता, क्योंकि प्यार तो देने से मिलता है।" अचानक लति की आँख खुली और वो बोली मंडरू "मैं तुम्हे प्यार करने लगी हूँ। बहुत चैन की नींद आई रे अब मैं इसी घर मैं रहूँगी... तुम्हारे साथ... तुम्हारे पास इसी कमरे को अपना घर बना के ठीक है!"

"अजी सुनते हो... शाम को काम से सीधे घर जल्दी आ जाना। चाचा को बुलाएँगे घर!"


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