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Meena Bhandari

Abstract

4.7  

Meena Bhandari

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प्यार की ठंडी छाँव

प्यार की ठंडी छाँव

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‘ राम नाम सत्य है ‘ की ध्वनि के साथ ही माँ की अर्थी उठ गई। वे निकल पड़ी अनंत यात्रा की ओर। पाँखी के आँसू थे कि थम ही नहीं रहे थे। 

सुबह से ही घर में कोहराम मचा हुआ था। अभी कुछ देर पहले तक माँ का निर्जीव शरीर भूमि पर रखा हुआ था और आस-पड़ोस की स्त्रियाँ वहीं बैठी विलाप कर रही थीं। कल शाम तक तो सब कुछ ठीक था, परन्तु रात होते-होते पाँखी की दुनिया बिल्कुल ही बदल चुकी थी। काल के क्रूर हाथों ने माँ 

को छीन लिया। यह सब इतना जल्दी हुआ कि उसे संभलने का मौक़ा भी नहीं मिला। लोग श्मशान-घाट से लौट चुके थे। माँ का शरीर पंचतत्व में विलीन हो चुका था। कुछ करीबी रिश्तेदारों को छोड़कर शेष अपने घर चले गए। पाँखी छत पर आकर खड़ी हो गई। उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि माँ जा चुकी हैं और अब लौटकर नहीं आएँगी। वे उसके लिए पिता, भाई, दोस्त सभी कुछ थीं। प्यार की वह ठंडी छाँव उसे अब कहाँ मिलेगी ? उसकी आँखों के सामने पुराने दृश्य चलचित्र की भाँति घूमने लगे। 

पाँखी उस समय दस बरस की थी और भाई विनय विनय उससे दो बरस बड़ा था जब पिताजी ने माँ को छोड़कर अपने ऑफ़िस की सहकर्मी स्नेहा से विवाह करने का निश्चय किया था। उस समय वे लोग लखनऊ में रहा करते थे। 

पिताजी के इस निर्णय से माँ को गहरा धक्का लगा वे उनका कितना ध्यान रखती थीं। उनकी हर छोटी-बड़ी ज़रूरतों को पूरा करने का प्रयास करतीं। एक बार ऑफ़िस जाने से पहले पिताजी ने माँ से पूछा कि आज शाम को यदि बॉस को परिवार सहित दावत दी जाए तो कैसा रहे ? उनके अनुसार ऐसा करके तरक्की के आसार हो सकते हैं। माँ की उस दिन तबीयत ठीक नहीं थी, फिर भी उन्होंने हामी भरी। शाम की बढ़िया दावत से बॉस खुश होकर गए। कुछ दिनों बाद पिताजी की तरक्की हो गई।

एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने माँ से कहा कि ओहदे के अनुसार थोड़ा दिखावा भी ज़रूरी है, इसलिए वे कार खरीदना चाहते हैं। माँ ने सहमति जताते हुए संकट के लिए रखे गहने निकाल कर दे दिए। 

सब कुछ ठीक ही चल रहा था। उनमें कभी झगड़ा भी नहीं होता था। माँ अपने स्वभाव के अनुसार किसी बात को तूल पकड़ने ही नहीं देती थीं। लेकिन उस दिन माँ से अलग होने और स्नेहा के साथ रहने की बात कह कर तो पिताजी ने मानो  विस्फोट ही कर दिया। स्नेहा उनकी अच्छी मित्र थी, ये बात तो सभी जानते थे। पिताजी कई बार  उन्हें ऑफ़िस से घर छोड़ने जाते तो माँ को फ़ोन करते कि आज रात भोजन के लिए इंतज़ार न करें, उन्हें आने में देरी हो जाएगी। माँ इन बातों को सामान्य ही लेतीं। इस हँसते-खेलते परिवार में एक निश्चिंतता ही तो थी पर अचानक यह मोड़ ! माँ ने किसी तरह अपने-आपको संभाला। कठोर फैसला लेने के साथ ही उन्होंने दोनों बच्चों का सामान बाँधना शुरू किया। पिताजी ने कहा कि वे चाहें तो इस घर में रह सकती हैं, हर महीने वे उन्हें कुछ रुपए भी दे दिया करेंगे। माँ ने उनकी बात अनसुनी कर दी। अगले दिन सुबह ही वह घर छोड़ दिया गया। पिताजी ने भी नहीं रोका। 

वे लोग दिल्ली अपने मामा के पास चले आए। उनकी मदद से माँ को प्राथमिक शाला में सहायक शिक्षिका के पद पर नौकरी मिल गई। कुछ समय बाद वे तीनों एक किराए के मकान में आ गए। 

वक्त गुज़रने के साथ घाव भरने लगे। माँ या पिताजी ने कभी एक-दूसरे के बारे में जानने की कोशिश भी नहीं की। पाँखी और विनय की पढ़ाई ठीक चल रही थी। पाँखी ने बारहवीं की परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण कर ली थी और भाई विनय ने कॉलेज के तृतीय वर्ष में प्रवेश ले लिया था। वह कॉलेज की पढ़ाई समाप्त करके कोई नौकरी करना चाहता था ताकि माँ का बोझ हल्का हो सके। वैसे भी दो-तीन ट्यूशन करके उसकी पढ़ाई का खर्च तो निकल जाता था। उस दिन सुबह तैयार होकर वह साइकिल से कॉलेज के लिए निकला। पाँखी भी अपनी सहेली के साथ नए कॉलेज का फ़ॉर्म जमा करने चली गई। दोपहर को जब लौटी तो घर के बाहर भीड़ दिखाई दी। किसी अनहोनी की आशंका से भीतर गई तो देखा – माँ 

दहाड़ें मारकर रो रही है और सामने विनय का खून से लथपथ शरीर पड़ा है। घर लौटते समय विनय की साइकिल को पीछे से आती कार ने ज़ोरदार टक्कर मारी और वह उछल कर सामने ट्रक के पहियों के पास जा गिरा। दुर्घटनास्थल पर ही उसके प्राण-पखेरु उड़ गए। उसके पर्स से पता मिलने पर घर में खबर कर दी गई। शव का पोस्टमार्टम हो चुका था। शाम तक उसका दाह-संस्कार कर दिया गया।

माँ अब बिल्कुल ही टूट गईं। उनकी आँखों से आँसू रो – रोकर सूख चुके थे। समय बीतने लगा। अब पाँखी ही उनका एकमात्र सहारा थी। उसे देखकर माँ ने किसी तरह हिम्मत बटोरी। वे अब इसे अधिक समय तक अपनी आँखों से दूर नहीं होने देती थी। माँ ने नौकरी जारी रखी। समय बीतने के साथ पाँखी ने भी स्नातक की डिग्री हासिल कर ली। 

इस समय वह अंग्रेज़ी साहित्य में एम ए कर रही थी। यह उसका अंतिम वर्ष था। इसके पश्चात् वह आवश्यक परीक्षाएँ देकर कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर नौकरी करना चाहती थी। अचानक कल शाम माँ को सीने में दर्द उठा। मामा को फ़ोन किया। रात होते – होते तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। चंद घंटों बाद ही उन्होंने दम तोड़ दिया। सभी रिश्तेदारों को खबर की गई। सुबह तक वे भी पहुँच गए। मृत शरीर को घर लाया गया। 

अस्पताल में पाँखी ने माँ को देखा था। जीवन के अनुभवों का दर्द छिपा था उनके भीतर जो इस समय चेहरे पर दिखाई दे रहा था। दोनों की नज़रें मिली। ऐसा लगा मानो उसे बीच राह में ही छोड़ जाने के लिए वे उससे माफ़ी माँग रही थी। एक वे ही तो थीं, जिन्होंने कभी उस पर दुःख की छाया भी नहीं पड़ने दी। हर मुसीबत में वे एक नई हिम्मत के साथ खड़ी हो जाती थीं। 

अचानक वह वर्तमान में लौट आई। “ अब आगे क्या होगा ? “ - यह सोचकर उनकी आँखों से अश्रुओंकी धारा बह निकली। “ हिम्मत रखो बेटी !” माँ के हाथों जैसा प्यार का स्पर्श पाते ही पाँखी ने पलट कर देखा तो पड़ोस की श्रीमती सरोज अपने बेटे दक्ष के साथ खड़ी थी। दक्ष एक बड़ी कंपनी में कार्य करता है। उन्होंने पाँखी को अपने सीने से लगा लिया। अपनापन मिलते ही वह फूट – फूट कर रो पड़ी। पाँखी का हाथ प्यार से दबाते हुए बोलीं – “ बेटा, तुम्हारी माँ मेरी अच्छी सहेली थी। बातों ही बातों में कुछ दिन पहले मैंने तुम्हारा रिश्ता अपने बेटे के लिए माँगा था, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। “ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे बोली – “ तुम्हारी माँ को दिया वचन मैं अवश्य पूर्ण करूँगी। तुम्हारे मामा से बात करके हम जल्दी ही शादी की तारीख़ पक्की कर देंगे। समारोह सादा ही सही, पर अच्छा मुहूर्त देख कर तुम्हें अपने घर ले जाएँगे। तुम अब अकेली नहीं, हम तुम्हारे 

साथ हैं। ” कुछ देर रुकने के पश्चात् वे लोग चले गए। 

अचानक हुई सब बातों के बारे में पाँखी बहुत देर तक सोचती रही। आसमान की ओर देख कर वह बोली, “ माँ ! तुमने बीच राह में मुझे नहीं छोड़ा। तुम आज भी मेरे साथ हो, यहीं तो हो। तुम्हारे प्यार की ठंडी छाँव में हमेशा मुझे सुकून ही मिला है। जाने से पहले तुमने फिर से एक बार ममता का आँचल थमा दिया। “ इतना कहकर पाँखी ने अपनी आँखें बद कर माँ को श्रद्धांजलि अर्पित की, उसकी आँखें आँसुओं से भर गईं।


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