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लघुकथा - जीते जी

लघुकथा - जीते जी

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यहाँ उस की उपस्थिति अप्रत्याक्षित थी। वह दौड़दौड़ कर लकड़ी ला रहा था। जब मुखाग्नि दे कर लोग बैठ गए तो उस ने उमेश से कहा,'' साहबजी ! एक बात कहूँ ?''

''जी ! कहिए, ''उमेश ने उस अनजान व्यक्ति की ओर देख कर पूछा, ''मैं आप को पहचान नहीं पाया ?''

''साहब ! इन मांजी से पहचान थी। कभी-कभी मेरे यहाँ सब्जी लेने आ जाती थी। मेरी पत्नी के पास घंटों बैठा करती थी।'' उस ने कहा, ''मैं उन की निशानी एक शाल ले जा सकता हूँ ? ये शमशान में यूँ ही पड़ी सड़ जाएगी ?'' उस ने उमेश से धीरे से कहा।

उमेश जानता था कि श्मशान की कोई चीज काम नहीं आती है। यह महंगी शाल भी यही पड़ी-पड़ी सड़गल जाएगी। मगर, उस ने जिज्ञासावश पूछ लिया, ''इस शाल का क्या करोगे ?''

'' मेरी एक बूढ़ी माँ है। उस को एक अच्छी शाल की जरूरत है।'' वह बड़ी मुश्किल से भूमिका बांध कर बोला पाया।

'' हाँ-हाँ, ले जाओ !'' उमेश के आँख में आँसू आ गए। उस ने टपकते आँसू भरी आँखों से श्मशान में जलती चिता और उस के पास खड़े बेटे को देख कर धीरे से कहा,'' सभी शाल ले जाओ भाई, किसी को बांट देना, कम से कम शाल की अभाव में कोई माँ तो ठण्ड से बेमौत नहीं मरेगी !'' कहते हुए उमेश ने आँसू को पोंछ लिए।


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