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क्या चाहते हैं

क्या चाहते हैं

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‘आप क्या चाहते हैं ?’ उसकी उसकी आवाज़ में विवशता, आँखों में विनम्रता तथा बैठने के ढंग में अपना छोटापन ज़ाहिर था हालांकि वह उसकी पत्नि थी, दो बच्चों की माँ थी। विवाह को दस वर्ष हो चुके थे किन्तु माँ और पत्नि पद किसी ने भी उसे आज़ाद न किया था। आज भी वह उतनी ही मज़बूर थी, विवश थी, बेबस थी जितनी उससे विवाह करने के लिए थी।

‘तुम करोगी, जो मैं कहूँगा ?’

‘हूं...ऊं...ऐसे नहीं रह सकती मैं।’ अपनी सारी शक्ति समेटकर उसने कह तो दिया, किन्तु निगाह से यह भी व्यक्त कर दिया कि कुछ ऐसा करने को न कहें, जो वह कर पाने में असमर्थ हो।

‘ठीक है...तो निदा को फोन करो...फोन...पर ज़ाहिर न हो कि तुम नाराज़ हो, न यह लगे कि वह खुद को दोषी समझने लगे...बल्कि नार्मल रह कर बात करना...यह जताते हुए कि आज भी वह तुम्हारी सहेली है और तुमसे मिलने जब तब आ सकती है।’

अजीब लग उठा था, जे़हन में सैकड़ों सवाल कैक्टस के अनेक पौधों से उग रहे थे।

हाँ, निदा थी तो मेरी सहेली। बचपन से, साथ ही स्कूल में पढ़ी ।हम दोनों दो अलग किस्म की नस्लें थीं। मैं साधारण व्यक्तित्व, सामान्य शक्लो-सूरत वाली, चुप्पी सी दबी-बुची लड़की थी, जिसकी अगर कोई खासियत थी...तो वह थी उस गांव के आधे हिस्से की मालकिन थी, जो अधिकार मुझे उस घर की इकलौती संतान होने के कारण मिला था। मेरी निगाह में यह कोई ख़ासियत तो न थी किन्तु शायद औरों की दृष्टि में हो। दूसरी ओर निदा गोरी, चंचल, शोख अपनी खूबसूरती के अहसास में मग्न मद-मस्त रहने वाली...पता नहीं हमारी दोस्ती दो विरोधी वस्तुएँ एक-दूसरे की ओर आकर्षित होती हैं, के भााव से चल रही हो। यह सच था कि हमारी दोस्ती स्कूल भर में हँसी व हैरानी का कारण बनी थी...किन्तु हमें क्या ? स्कूल के दिन थे ही मस्ती के। हम दोनों एक-दूसरे को हाथ थामती, निदा के उड़ते दुपट्टे सी उड़ती रहती। ऐसे ही अगली कक्षा में बढ़ती रहती...स्कूल खत्म हो गया। निदा को तो पढ़ने के लिए शहर भेज दिया गया, पर मैं अब गांव के नियमानुसार घर की चारदीवारी में बन्द रहने के अलावा अपनी ज़मीनों की देखभाल हिसाब-किताब आदि में जुट गयी। पिछले तेरह वर्ष कब और कैसे बीते, पता ही न चला।

स्कूल छूटे दो वर्ष बीते कि हाशिम की ओर से निकाह का पैगाम आया। मेरी हैरानी का कोई अन्त न था। आखिर मैं क्यों ? मुझे अपने बारे में कोई गलतफहमी न थी बल्कि यह कहा जा सकता है कि मेरे भीतर हीन ग्रन्थि जो निदा के साथ से पैदा हुई थी अब पूरा पौधा बन चुकी थी। मैंने मन यह मान लिया गया था कि मैं सिर्फ और सिर्फ ज़मीन की मालकिन होने की खुशफहमी और उसके हिसाब किताब में डूबी रहकर इसी तरह अपने अन्त के करीब पहुँच जाऊँगी। हाँ, अगर अम्मी पहले चल बसी, तो मेरा क्या होगा...यह डर सालता रहता था जो दिन-ब-दिन बढ़ता पेड़ बन रहा था क्योंकि अम्मी की तबियत लगातार गिरती जा रही थी।

जब हाशिम की अम्मी ने निकाह के लिए मुझे माँगा तो एक ओर बेहद खुशी थी, पर दूसरी ओर अम्मी के अकेले रह जाने का भयावह साया खुशी पर हावी था। मुझे पता ही न चला कि मैं खुश थी या काले साये के नीचे दबी। अस्तु। मेरे लाख मना करने पर भी अम्मी ने जाने अनजाने का वास्ता देकर जैसे ब्याह तो करना ही होता है, लोग बातें करने लगे हैं, यह कहने लगे हैं कि मैं अपनी वज़ह से तेरा ब्याह न कर रही हूँ आदि आदि, फिर यह भी कि लड़की को अपने घर कोई बादशाह भी न बैठा कर रख सके, मेरी क्या हस्ती...यह भी कि हाशिम सजीला जवान है, आधे गांव का मालिक है, आधे की तू...दोनों मिलकर पूरे गांव के मालिक बन जाओगे...फिर वह राजनीति में भी भाग लेने लगा था, किसी दिन सरकार में पहुँच जायेगा...उसका रसूख बढ़ेगा, तो तेरा भी तो बढ़ेगा...जाने कितने तर्क थे, कितने लालच...आखिर मैं निकाह में खुशी-खुशी शामिल हो गयी....।

मेरा निकाह हाशिम से हो गया। मैं उसकी बड़ी-सी नम्बरदारों की हवेली में आ गयी। हाशिम की अम्मी गांव के झगड़ों का निपटारा करने के काम में डूबी रहने पर, बेटे के घर में होने पर भी बेहद अकेली थीं। एक लड़की की कमी उन्हें सालती ही रहती जो मेरे आने पर पूरी हो गयी थी। उन्होंने न मेरा रंग-रूप देखा, न मेरी साधारण जीवन-शैली, बस। उनके बेटे की दुल्हन बन कर आने वाली को सिर आँखों पर बिठाया, धीरे-धीरे घर मेरे हवाले कर दिया, हाशिम के सारे कामों की धुरी भी मेरे साथ पूरी तरह जुड़ गयी। और ऐसे ही दस साल बीत गये, मैं दो प्यारे से लड़के शबीर और हशमत की माँ बन गयी। इस तरह दुल्हन, बीवी और वक्त-बे-वक्त गांव के लोगों के दुख-दर्द की साथी बनकर खुशी खुशी जिन्दगी जीने लगी थी। अपने किस्मत पर खुद ही रश्क करती, जीती, साँस लेती, कभी-कभी गर्व से भर भी उठती।

वक्त कभी एक-सा नहीं रहता। अम्मी के यहाँ गयी हुई थी कि उछलती-कूदती, नदी-सी कलकल करती, पहाड़ी हवा के झोंके-सी निदा घर में चाँदनी-सी उतर आई। मन की खुशी का कोई न शुरू न अन्त। पिछले तेरह वर्ष की एक रस एक तान जिन्दगी में ऐसी हलचल मच गयी कि मन लबलब भर उठा। निदा की शख्सियत थी ही ऐसी। अपने साथ दूसरे को भी नचा ले, घुमा ले, मस्ती के आलम में छुपा ले।

तो मैं उसे घर ले आई...नहीं हाशिम के धर। आज सोचूँ तो यही तो सबसे बड़ी गलती थी। जीवन भर की कमाई लुटा देने का वही एक पल था जब मैंने निदा को अपनी हवेली में कुछ वक्त बिताने की दावत दे डाली। मैं तो अपनी किस्मत पर फक्र करती जी रही थी न। कैसे सोचती...कुछ पासे उल्टे भी पड़ जाते हैं....और पड़ गया न मेरा वह फैसला मेरे लिए तलवार की धार।

याद आता है...एक दिन हाशिम के साथ के खुशनुमा पलों में यह पूछ बैठी थी...

‘आखिर, आपने मुझे में क्या देखा कि निकाह का संदेशा अम्मी के पास भेज दिया।’

सुनना तो चाहती थी कुछ मन सहला देने वाला प्यारा सा मुहावरा---‘हीरा कहाँ जानता है अपनी कीमत।’

पर हाशिम ने पूछा- ‘सच सुनना चाहती हो या झूठ।’

‘ज़ाहिर है सच।’ मैंने तिरछी निगाह से देखते हुए अपनी सारी अदा दिखाते हुए कहा।

हाशिम ने मेरी ठोड़ी पकड़ ऊपर उठाई। मैंने आँखें उठाकर देखा, ‘तुमने अपनी आँखें देखी। क्या कुछ नहीं कहती हैं इसी की वज़ह से।’

‘परन्तु, आपने मुझे देखा कहां था ? सीधा पैगाम भेजा था ?’

हाशिम मुस्करा दिया, ‘पकड़ लिया तुमने ?’

थोड़ा रूक कर हाशिम ने सच उडे़ला,

‘असल में, आधा गांव मेरे पास, आधा तुम्हारे तो मैंने तुमसे निकाह कर पूरा गांव ले लिया...है न अच्छा सौदा।’ कह कर मुस्करा दिये।

‘हिष्ट। ऐसा थोड़ी होता है।’

‘तो तुम पूछती क्यों हो ? अब बिंध गया सो मोती।’

मैं याद करती और सोचती रही। मैं बिंध जाने पर भी मोती कहाँ बनी ?

निदा मेरे घर में आ गयी। कब, कैसे, क्यों उसने मेरा घर धीरे-धीरे लूटना शुरू कर दिया, मैं तो तब जान पाई जब सब कुछ लुट गया। पिछले ही इतवार की बात है। हम तीनों अपने फार्महाउस पर वक्त बिताने गये हैं....मैं और निदा पहले, हाशिम बाद में आ गये थे हालांकि उनका कोई प्रोग्राम न था। मेरे लिए हाशिम का आना सदा ही एक मीठा प्यारा-सा मुहावरा होता। उसके आने, मेरे साथ होने, मेरे हाथ का बनाया खाना चटकारे ले लेकर तारीफ करते हुए खाना, सर्दी में खिलती धूप-सा मीठा-मीठा सेंक देने वाला था। खाना खत्म हुआ। खुशी के इन्तहा...उसी आलम मैं पानी के किनारे-किनारे रेत पर भाग ली। असल में, हमारा फार्म हाउस गांव की नदी के किनारे था जिसका नाम भी था साबिर नदी। पहले बेटे का नाम इसी नदी के नाम पर रखा गया था। मैंने साबिर नदी के बारे में हाशिम की अम्मी से पूछा था। उन्होंने बताया कि बड़े सबर वाली नदी है। कभी तूफान नहीं आता। शान्त किनारों में बंधी, खेतों में पानी देने के लिए कभी कहीं जाने की जरूरत न पडे़, पानी के लिए बारिश का मुँह न देखना पड़े इसका नाम सबरवाली नदी...वही शायद धीरे-धीरे साबिर बन गया होगा।

उसी नदी के पास मैं अपनी खुशी को ज़ाहिर करने चली गयी। हाशिम और निदा न आए। काफी देर हो गयी। उन्हें चौंका देने की इच्छा से धीरे-धीरे पाँव टिकाती मैं ऊपर चढ़कर चारों ओर का नज़ारा देखने वाले मंच के पास आकर सीढ़ियों के पीछे छिप गयी।

‘निदा ! नहीं रहा जाता।...तुम जाने की बात क्यों कर रही है ? दिल धुक-धुक करता है, जाने का सुनकर।’

‘पर हाशिम ! वहाँ मेरा पति है, बच्चा है...जो भी हम कर रहे हैं, ग़लत तो है ही। जानती हूँ, दिल के हाथों मजबूर हैं।...ऐसा करते हैं अब तो मुझे जाना ही पड़ेगा...फोन पर बात करके शहर में मिलने का रखेंगे...तुम तो आसानी से आ जाओगे...आओगे न हाशिम।’

इसके बाद चुप्पी। मुझे अपने दिल के धड़कने की आवाज़ भी न आ रही थी। किसी नाटक का कोई दृश्य, उसके डाॅयलाग सोच कर मैं धीमे से सामने आ गयी। वे दोनों एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखे आँखों में खोये खड़े थे। मैं भौंचक...न हिली, न डुली। अचानक निदा ने कुछ महसूसा, मेरी तरफ देखा, चोर निगाह से देखा बोली,

‘तुम...तु...म ?’

‘अच्छा, तुम आ गयीं। चलो घर चलते हैं, सामान बांधो।’

इतनी सरलता, दिन दहाड़े घर की मालकिन और मालिक के होते हुए किसी के घर पर डाका डाला जा सकता है, हैरानी थी तो पर थी भी नहीं। अगर मालकिन बेवकूफ हो, अपने घर में खुद ही डाकुओं को ले आए, पूरे मौके दे, तिस पर मालिक ही सब कुछ थमा देने का फर्ज अदा कर दे तो कोई क्या करे।

निदा शहर चली गयी। हम दोनों अपने इधर आ गए। पता नहीं घर...घर किसका था ? मेरा तो न था। अम्मी उसे हमेशा कहती, ‘दुल्हन की हवेली’, पर कहाँ ? यूँ भी घर औरत का कहाँ होता है...यह जन्मजात पुराना प्रश्न है ही।

एक हफ्ता बीत गया। निदा का न फोन आया न उसने हाशिम का फोन उठाया। शायद शर्मसार थी...उम्मीद ही न थी उनका यह प्रसंग इस तरह खुल जाएगा। एक दिन मैंने हाशिम से पूछा, ‘हाशिम क्यों ? क्या कमी थी मुझमें। कोई शिकायत थी तो बताते तो, मैं कोशिश करती...उसे दूर करने की। घर, तुम, बच्चे, अम्मी, गांव की देखभाल कहीं भी कोर-कसर न रखी मैंने...फिर ?’

हाशिम से जिस निगाह से देखा, वह आसमान से गिरी गाज थी।

‘बैठो। बताता हूँ...तुममें कोई कमी न थी, कोई ग़लती न थी...सिवाय एक ग़लती के।’

‘क्या...क्या...आ ? तुमने कभी जिक्र न किया उसका ?’

‘नहीं....नहीं। ऐसी बताने लायक कोई ग़लती न थी। तुम अपने बारे में जानती थी न। कितनी बार पूछती थी कि आखिर मैंने तुममें क्या देखा कि निकाह कर लिया। सब ठीक था जब तक तुम्हारे सामने तुमसे अच्छी खूबसूरती न खड़ी थी। अब तुम अपने मुकाबले में मेरे सामने सौन्दर्य की चकाचैंध बिखेर दोगी तो मैं क्या करता ? मैंने कुछ न किया। सब कुछ अपने आप हो गया।’

अब मैं क्या कहूँ ? ग़लती तो मेरी ही हुई न। तो मैं वही करूँ जो हाशिम चाहता है...क्यों...पर क्यों ? सोचती रही मैं। अठराहे पर खड़ी थी। कोई दोराहा तो न था जिसमें इधर या उधर एक रास्ता चुन लेती। यूँ तो दोराहा ही थी। पहला छोड़कर दूसरा ले लेने का...किन्तु क्या सच ही ? नहीं। सच को पाना इतना सरल कहाँ होता है ? मेरी मुहब्बत, वफा और ईमानदारी का ये कैसा जवाब था, मेरा सवाल क्या होगा ?...उसका उत्तर किसके पास है ?

सोचते-सोचते रात बीत गयी, रौशनी का एक कतरा न मिला, हालांकि सूरज अपने सातों घोड़ों पर सवार अपनी पूरी तेजी के साथ निकल आया था। वह तो प्रकृति के नियम के तहत था न। इंसान के बनाया नियम थोड़े ही था। अब सवाल था मैं क्या चाहती हूँ, ये कैसे सम्बंध है न समझ आ पाये।


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