आज तुम देख़ लेना घर बार...
आज तुम देख़ लेना घर बार...
कृतिका को आज ऑफिस में देर होने वाली थी। और जब उसने अपने घर में फोन किया।
तब उसकी सास का रिस्पांस बहुत ही रुखा था। जिसे सुनकर कृतिका को समझ में आ गया क्या कि आज घर जाएगी तो उसे अप्रिय माहौल का सामना करना पड़ सकता है।
बहरहाल
जब डरते डरते कृतिका ने घर के अंदर कदम रखा तो बड़ा ही सुखद दृश्य आंखों के सामने था।
एक तो घर के अंदर से शाही पनीर की खुशबू आ रही थी। और अंदर से हंसी की आवाज भी आ रही थी।
कृतिका के बेल बजाते ही माला का खुशी से किलकता हुआ स्वरा आया,
"भाभी आ गई भाभी आ गई! "
सुनकर कृतिका को बहुत खुशी हुई। जब दिन भर काम करके थक हार कर घर पहुंचे और घर में कोई हंसकर स्वागत करें
इससे बड़ी खुशी की बात क्या हो सकती है।
जब कृतिका ने सामने देखा तो उसे और भी अच्छा लगा।
डाइनिंग टेबल पर शाही पनीर रखा हुआ था और साथ में गोभी मटर भी।
गोभी के साइज को देखते ही वह समझ गई कि यह जरूर गौरव ने बनाया है। पर शाही पनीर किसने बनाया?
कृतिका यह सोच ही रही थी कि उसने सुना
" बस बहू अब जल्दी से हाथ पैर धो कर तुम भी खाना खाने आ जाओ। ठंडा हो जाएगा तो फिर खाने का मजा किरकिरा हो जाएगा!"
कृतिका को एकबारगी अपने कान पर भरोसा नहीं हो रहा था कि यह उसकी सास कह रही थी कि बहू ! आकर खाना खा लो। ना कोई ताना ना कोई उलाहना और ना ही कोई शिकायत ऐसा चमत्कार भला कैसे हो गया?
कृतिका ने देखा किमाला गरमा गरम फुलके परोस रही थी। और माँजी खाना खा रही थी। गौरव बस टुंग रहा था।
गौरव ने भी कृतिका को कहा,
"बस कृतिका! तुम जल्दी आ जाओ।
मैं धीरे-धीरे खा रहा हूं, ताकि तुम्हारे साथ-साथ खा सकूँ। आओ फटाफट
हमें ज्वाइन करो!"
अब माला भला क्यूँ चुप रहती?
उसने भी जुबान में मिश्री घोलकर कह ही दिया।
"भाभी अब आप भी आ जाओ ना! गरमा गरम फुलके वो भी मेरे हाथ की ज़रा खाकर देखो तो सही!"
कृतिका को लग रहा था कि आज वह किसी और घर में आ गई है।
ना ना यह उसका घर नहीं हो सकता। जहां सास इतने प्यार से बात कर रही हो और ननद इतने आग्रह से खाना खाने को कह रही हो।
थोड़ी देर में कृतिका भी सबके साथ खाना खा रही थी। और शाही पनीर मुँह में रखते ही वह समझ गई कि यह तो बाहर से आर्डर किया हुआ है।
वह तो आज गौरव ने खाना बाहर से आर्डर कर दिया था। पर फुल्के तो माला बना रही थी,
और गोभी मटर तो गौरव के हाथ का है। और सूजी की खीर?
यह किसने बनाई? यह ज़रूर माँ जी ने बनाई होगी!
खाना खाते हुए कृतिका कुछ बोल नहीं रही थी।उसे कुछ पूछने का मन नहीं कर रहा था। क्योंकि खाना बहुत स्वादिष्ट था। और आज माहौल इतना अच्छा था कि
वह कुछ पूछकर या कुछ बोलकर इस माहौल को खराब नहीं करना चाहती थी। और उसके मन में यह सवाल भी बार बार उमड़ रहा था कि जो सास इतना कड़वा बोल रही थी। वह इतनी मिठास से कैसे बात कर रही है ? और सबने मिलकर खाना बनाया।
और उससे कोई शिकायत भी नहीं।
उसे कोई ताना भी नहीं दे रहा है। और इतने प्यार से उसे खाना खिलाया जा रहा है। कहीं यह सपना तो नहीं?
खैर यह सब देखकर एक तरह से कृतिका की आत्मग्लानि कुछ कम हुई।
लेकिन उसके मन में जो सवाल
कुलबुला रहा था उसका जवाब जाने बगैर उसे चैन नहीं पड़ रहा था ।
क्योंकि वह जहां तक गौरव को जानती थी।
वह अक्सर बाहर का खाना नहीं खाता था।
पहले भी ज़ब दोनों पति पत्नी चाहे कितनी भी देर से आते थे तब भी दोनों मिलकर खाना बनाते, और तभी खाते थे। बाहर का खाना तो वो दोनों एनिवर्सरी या बर्थडे या कोई खास मौके पर ही बाहर खाने जाते या खाना ऑर्डर कर देते थे।
और
आज उसने बाहर से खाना कैसे ऑर्डर कर लिया?
ज़ब अपनी माँ या बहन को खाना बनाने से बचाने के लिए बाहर से ऑर्डर कर लिया।
वैसे इन दो सालों में कई बार ऐसा हुआ था कि,
कृतिका का खाना बनाने का मन नहीं था। या काम ज्यादा था या तबीयत खराब थी। लेकिन उस वक्त गौरव अपने मन से कभी खाना बाहर से आर्डर नहीं करता था।
कभी रात के ग्यारह या बारह बजे तक काम खत्म होने के बाद कृतिका को ही खाना बनाना पड़ता था और गौरव थोड़ा हाथ बंटा देता था।
खैर ऐसे सवाल तो हर स्त्री के मन में एक बार ज़रूर आते हैं कि एक पुरुष की मानसिकता अपनी माँ और बहन के लिए अलग और बीवी के लिए अलग क्यों होते हैं?
वैसे धीरे-धीरे वक्त के साथ उसके मन में कई बार यह सवाल मुखर हो जाते थे।
कि
वह एक स्त्री है और घर की बहू है तो रसोई की जिम्मेदारी तो उसे ही उठानी है। भले ही वह बाहर कितनी ही प्रतिष्ठित नौकरी में क्यों ना हो।
चाहे स्त्री कितनी भी कर्मठ हो, लेकिन उसे अभी भी वह सम्मान नहीं प्राप्त है जिसकी वह हकदार होती है।
खैर इन सवालों को परे रखकर इस समय कृतिका सिर्फ इन पलों को भरपूर जीने की कोशिश कर रही थी।
वैसे ऐसा फैमिली टाइम कृतिका को पहली बार मिला था। जब सब खुश थे और किसी के मन में कोई मैल नहीं था
क्रमश:
