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सबसे अच्छा पिता

सबसे अच्छा पिता

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श्रुति एक मध्यम परिवार से थी। अपने माता-पिता की इकलौती बेटी थी। आज वह स्कूल से अपना बारहवीं का रिजल्ट देख कर घर की तरफ चल दी। अपने स्कूल का नाम किया है, क्योंकि कई साल बाद कोई बालिका इतने अच्छे अंकों से पास हुई थी इसलिए सारे अध्यापक और विद्यार्थी उसे मुबारकबाद दे रहे थे, किंतु उसके चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी। वह हामी में सिर हिलाती और आगे बढ़ जाती। बस एक ही बात उसके आगे घूम रही थी कि आगे की पढ़ाई कैसे होगी ! श्रुति डॉक्टर बनना चाहती थी। पिता की कमाई से तो केवल घर ही चल पाता था। अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए उसके माँ-बाप ने बहुत पापड़ बेले हैं। यह स्कूल इंग्लिश मीडियम और इलाके में सबसे ऊँचा माना जाने वाला स्कूल है। खैर वह सहमे कदमों से घर पहुंची तो माँ ने उसे चूम लिया, क्योंकि उसकी सहेली सुषमा ने पहले ही खबर दे दी  थी। माँ द्वारा चूमने पर बस वह हल्का सा मुस्काई और अपने कमरे की तरफ दौड़ गई। माँ उसके मन की बात जान गई कि वह क्यों उदास है। वह कितनी ही ख़ुशी क्यों न दिखाए, माँ उसके मन को जान लेती थी। माँ ने उसके पापा को फ़ोन पर बताया कि श्रुति ने पूरे इलाके के स्कूलों में टॉप किया है तो उनकी खुशी का भी ठिकाना न रहा। शाम को वह मिठाई का डिब्बा लेते हुए आए और श्रुति और उसकी मम्मी को बाहर रेस्टोरेंट में खाने के लिए बोलने लगे। श्रुति पापा को बहुत प्यार करती थी, अत: वह भी खुश हो गई। श्रुति एक समझदार लड़की थी। दो दिन बाद नाश्ते के समय उसने माता-पिता से कहा कि वह मेडिकल कॉलेज में दाख़िला लेना चाहती है, डॉक्टर बनना चाहती है तथा कामयाब होकर माँ बाप की मदद और देखभाल करना चाहती है। जिसमें सफल होने पर वह अपने माँ बाप को वह सब ख़ुशियाँ दे सकती है, जिसे वह दूसरों के पास देखती थी। पापा के चेहरे पर मुस्कान खेल गई उन्होंने श्रुति को गले से लगा कर कहा कि बेटा, जैसा तुम्हें उचित लगे करो, हम तुम्हारे साथ हैं। इसके बारे में हमें पता करके बता देना।

दो दिन श्रुति ने बताया कि करीब पांच लाख का ख़र्चा है सब मिला कर, तीन महीने बाद एंट्रेंस फिर काउंसिलिंग फिर दाख़िला और फिर पढ़ाई फिर ट्रेनिंग। “हम्म” कहकर श्याम बाबू (श्रुति के पिता) ने सिर हिलाया। श्रुति सोने चली गई, रात देर तक श्याम बाबू और रुक्मिनी देवी (श्रुति की माँ) आपस में सलाह मशवरा करते रहे कि कहाँ से आएगा पांच लाख, क्योंकि श्याम बाबू की तनख्वाह कुल बीस हजार प्रतिमाह थी उस पर मकान का किराया, खाना-पीना किराया भाड़ा, उनके पास तो कोई चीज़ गिरवी रखने को भी न थी। डेढ़ महिना निकल गया पता ही नहीं चला पर कोई हल न निकल पाया उधर श्रुति भी अपने दोस्तों के साथ छुट्टियों तक मस्त थी।

एक दिन श्याम बाबू अखबार पढ़ते हुए रुक्मिणी के पास आये उनके चेहरे पर ख़ुशी थी। अखबार दिखाते हुए बोले की रुक्मिणी ये देखो पैसों का इंतज़ाम हो गया। रुक्मिणी ने आश्चर्य से उनकी तरफ देखा फिर अखबार की तरफ, जिसमे एक अमीर आदमी को एक गुर्दे की जरूरत थी, उसके लिए वह पांच लाख रुपए देने को तैयार था। अस्पताल से स्वास्थ्य होने तक सब ख़र्चा उसका था। ब्लडग्रुप श्याम बाबू से मैच हो रहा था। रुक्मिणी ने कहा कि पागल हो गये हो क्या, पैसों के लिए जान पर खेलोगे? “अब कुछ ना बोलना रुक्मिणी , तुम्हें मेरी जान की कसम, बच्ची की पूरी जिंदगी का सवाल है और कोई उपाय भी नहीं है, फिर एक ही गुर्दा तो देना है एक तो सलामत रहेगा। तुम श्रुति को कुछ नहीं बताना, कहना की पापा दफ्तर के काम से गए हैं,” उस समय श्रुति छत पर सो रही थी। रुक्मिणी की आँखों में आँसू थे वह कुछ भी न बोल पाई क्योंकि श्याम ने अपनी कसम दे दी थी। अगले दिन श्याम बाबू ने अपने दफ्तर में पन्द्रह दिन के लिए अवकाश के लिए एप्लीकेशन दे दी और अगले दिन सुबह रुक्मिणी और श्रुति से विदा लेकर दूर सफर के लिए निकल गया। श्रुति को कुछ न बताया सिर्फ कहा की दफ्तर के काम से गये हैं, किंतु चुपके-चुपके रुक्मिणी याद करके रोती रहती थी।

पन्द्रह दिन बाद जब श्याम वापस आया तो दरवाज़ा खोलते ही रुक्मिणी ने देखा की श्याम बहुत कमजोर हो गया है, रुक्मिणी लिपट के रोने लगी और श्रुति भी गले लगते हुए पूछने लगी कि पापा आपकी यात्रा कैसी रही? बहुत अच्छी बेटा, श्याम ने कहा। आप इतने कमजोर क्यों हो गये? श्रुति ने पूछा, बेटा काम काफी था। श्याम ने रुक्मिणी की आँखों में झाँका रुक्मिणी की आँखों में अब भी आंसू थे। श्याम बाबू अब एक किडनी और दवाइयों के सहारे चल रहे थे।

एक दिन श्रुति ने पूछ ही लिया की पापा आप ये दवाईयां किस बीमारी की लेते हो? तो श्याम ने टाल दिया कि नहीं बेटा विटामिन और आयरन की बताई है डॉक्टर ने, कमज़ोरी दूर करने के लिए।

खैर! धीरे-धीरे सब नार्मल हो गया। श्रुति ने कोर्से कर लिया था। अब वह छह माह की ट्रेनिंग भी कर चुकी थी और प्लेसमेंट के सहयोग से उसे एक बड़े अस्पताल में नौकरी भी मिल गई थी। कुल मिलाकर अब घर की माली हालत ठीक हो गई थी। पांच साल गुज़र चुके थे, अब श्रुति एक डॉक्टर बन चुकी थी तथा एक ऊँचे पद पर सीनियर डॉक्टर थी। एक दिन श्याम बाबू गश खाकर जमीन पर गिर पड़े। रुक्मिणी चिल्ला कर भागी। श्रुति उस समय हॉस्पिटल के लिए तैयार हो रही थी। वह भी दौड़ी श्याम को उसी हॉस्पिटल में दाखिल करवाया गया, जहाँ श्रुति कार्यरत थी। चेकअप होने के बाद डाक्टरों की टीम ने पाया की उनकी एक ही किडनी है, जो अधिक प्रेशर के कारण नाकाम होने की कगार पर है। इसके लिए आपरेशन एक-दो दिन में ही होना जरूरी था जिसमे किडनी बदलनी जरूरी है।

 श्रुति के सामने तो अँधेरा ही छा गया पर, क्योंकि वह वहां पर सीनियर डॉक्टर थी, अत: उसे धैर्य रखना पड़ा तथा तुरंत डाक्टरों की टीम ने इलाज़ शुरू कर दिया। श्रुति को हैरानी हो रही थी कि एक किडनी कहाँ गई! जिसकी वजह से ये हाल हुआ है? वह डाक्टरों को निर्देश देकर वार्ड में बैठी माँ के पास चल पड़ी। माँ उस समय जोर जोर से रो रही थी माँ के पास पहुंच कर उसने पहला प्रश्न माँ से किया कि माँ तुम समझ तो गई होगी की मैं आपसे क्या पूछने आई हूँ? पापा का पुराना आपरेशन हो रखा है, एक किडनी नहीं है, जिसकी वजह से पापा की ये हालत है। पापा से दवाइयों के बारे में पूछती थी तो वो टाल जाते थे, माँ अब तो तुम्हें बताना ही पड़ेगा। माँ मैं एक डॉक्टर हूँ मुझसे कुछ नहीं छुप सकता। दोनों की आँखों में आँसू थे। माँ ने केवल इतना ही कहा कि बेटी मैं मजबूर थी।

ऐसी क्या मजबूरी थी माँ की तुम मुझे कुछ नहीं बता सकती थीं? बेटी तेरे पापा ने मुझे कसम दे दी थी। रोते हुए रुक्मिणी ने बताया। लेकिन अब तुम नहीं बताओगी तो तुम्हें मेरी कसम। नहीं बेटा ये तूने क्या कर दिया और रुक्मिणी दहाड़ें मार कर रोने लगी। शांत होने पर रुक्मिणी ने कॉलेज में दाखिले से लेकर गुर्दे बेचने तक, सारी बात श्रुति को बता दी।

श्रुति सुन्न होकर सारी बात सुनती रही और सुनने के बाद धम्म से सोफे पर बैठ कर रोने लगी। इतनी बड़ी बात हो गई और मुझे पता भी नहीं चला! धिक्कार है ऐसी पढ़ाई पर, जो अपने पापा की जान पर खेलकर की जाए। माँ, पापा ने तो आज तक मुझे कुछ भी मना नहीं किया पर अगर इंतज़ाम नहीं हो पाया तो तू तो खुल कर मुझे बता सकती थी मैं किसी अच्छी जगह कोई छोटी-मोटी जॉब करके इंतज़ाम कर लेती, साथ ही पापा की मदद भी करती। माँ मैं तो बच्ची थी पर तू तो मुझसे भी छोटी हो गई थी। कहकर श्रुति फूट-फूटकर रोने लगी। माँ ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा कि बेटी जिस मकसद से तेरे पापा ने अपना अंगदान किया था वो मकसद अब पूरा हो गया अब तेरी बारी है। बेटी उनकी इस कुर्बानी को व्यर्थ मत जाने दे, तू डाक्टर है, जो कर सकती है कर। तू मेरा चेकअप कर और मेरा गुर्दा पापा को लगा दे। नहीं माँ ऐसा नहीं हो सकता, तेरा ब्लडग्रुप भी मेल नहीं खाता। मैं ही पापा को अपना गुर्दा दूंगी, क्योंकि मेरा और उनका ब्लडग्रुप एक ही है। अब मैं पापा को देखकर आती हूँ काफी देर हो गई, ये कहकर श्रुति चली गई।

साथ वाले बिस्तर पर एक मरीज (हरेन्द्र), जो ब्रेन ट्यूमर से पीड़ित था वह काफी देर से उनकी बातें सुन रहा था, उसने रुक्मिणी को पास बुलाया और बोला कि बहन एक बात सुनो, मैं ज़िन्दा लाश हूँ, इस बच्ची को तो पता है मुझे ब्रेन ट्यूमर है। चंद दिनों या घंटों का मेहमान हूँ। अगर मेरा एक भी गुर्दा भाई साहब के काम आ जाता है तो मैं ये समझूंगा की मेरी क़ुर्बानी सफल हो गई। मेरा कोई नहीं है, इस बहाने मुझे तुम्हारे रूप में बहन मिल जायेगी। रुक्मिणी कुछ बोलने वाली थी कि उस सज्जन ने रोक दिया और कहा कि नहीं बहन, मना मत करना, बच्ची को बोलो की तैयारी करे, मैं ऑपरेशन के लिए साइन करने को बैठा हूँ। बहन मरने से पहले तुम मुझे राखी बाँध देना और अपने हाथों के गर्म-गर्म आलू के परांठे खिला देना, जो मेरी बहन बहुत पहले करती थी, उसकी कैंसर से मौत हो गई। ये कहकर वह सज्जन रो पड़ा। रुक्मिणी ने उसके आँसू पोंछे और स्वयं भी रोने लगी, बोली “नहीं भैय्या, तुम्हें कुछ नहीं होगा।” नहीं बहन मेरे पास वक्त बहुत कम है, मेरी मौत अटल है। अब श्रुति पापा को देखकर वापस आ गई थी। रुक्मिणी ने श्रुति की तरफ देखा तो श्रुति ने हामी भर दी कि हाँ माँ इनका केस बहुत क्रिटिकल है।

शाम को रुक्मिणी मुंहबोले भाई के लिए राखी और आलू के परांठे भी लेकर आई | पहले रुक्मिणी ने भाई को राखी बाँधी, दोनों के आँसू एक साथ छलक उठे और दोनों गले लग कर खूब रोए। श्रुति पास ही खड़ी थी, बोली मामाजी मुझे नहीं पता था कि ऐसे मोड़ मेरी मामा से भेंट होगी, क्योंकि मम्मी के भी कोई भाई नहीं हैं, सब रो रहे थे। फिर सबने साथ साथ खाना खाया। आलू के परांठे मेरी पसंद हैं, जो मेरी बहन मुझे बड़े चाव से अपने हाथ से खिलाती थी कहकर उसने रुक्मिणी का हाथ पकड़कर टुकड़ा अपने मुंह में ले लिया, इस तरह कहकर हंसने लगा, फिर सबकी हंसी छूट गई। खाना खाने के बाद सब बातें करते रहे और एक दूसरे के बारे में जानते रहे।

अब रात के बारह बज चुके थे। हरेन्द्र बोले कि श्रुति बेटा जाओ आपरेशन के कागज़ ले आओ, मैं अपनी किडनी भाई साहब के नाम लिख दूँ, क्योंकि मेरा ब्लडग्रुप भी “ओ” पोजेटिव है, इसलिए कोई दिक्कत नहीं होगी। न चाहते हुए भी श्रुति को वो पेपर लाने पड़े और हरेंद्र ने पेन और पेपर पकड़ कर लिखना शुरू किया। माँ पास की कुर्सी पर किताब पढ़ रही थी और श्रुति, हरेन्द्र के सिरहाने के पीछे खड़ी उनके लिख चुकने का इंतज़ार करने लगी। काफी देर हो गई तब श्रुति ने पूछा मामा जी आपने लिख लिया? कोई जवाब नहीं आया तो श्रुति ने उन्हें हिलाकर दुबारा पूछा। हिलाने पर वो एक और लुढ़क गए, उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे शायद उनके प्राण इस भले कार्य के लिए ही अटके हुए थे। माँ और श्रुति दोनो रोने लगे, माँ उन्हें सम्हालने लगी तो श्रुति दौड़ी सीनियर डाक्टर को बुलाने। डॉक्टर ने आकर तुरंत उनकी मौत की पुष्टि कर दी। श्रुति और माँ ने पूरे सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार करवाया।

श्रुति ने कागज़ खोलकर देखे तो उन्होंने एक नहीं दोनों किडनी पापा के नाम लिख दी थीं। साथ में एक पत्र भी था कि मैं एक लावारिस की तरह अस्पताल में पड़ा था, जहां मुझे पूरा परिवार बहन, बहनोई और भांजी मिल गये, जीने के लिए प्यार के दो पल ही काफी हैं। मैं ऊपर जाकर श्याम जी के लिए भगवान से दुआ मांगूंगा। आज श्रुति के पापा स्वस्थ हैं, जो की उन सज्जन की मेहरबानी है। सच, कोई ऐसा मिल जाता है, जो अपनों से भी बढ़कर होता है। जब भी उनकी याद आती तो श्रुति और उसकी माँ हरेन्द्र की कुर्बानी को याद करके श्रद्धांजलि के रूप में आँसू बहाने लगती थीं।                                                              

 

       


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