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कश्मकश

कश्मकश

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प्यार होता क्या है, न जाने किसे समझ आया है
खुदा है या शैतान, कौन बता पाया है
एक हाथ में गुलाब दूसरे में खंजर नज़र आया है
जो कभी सोचा न था, फिर वही मंज़र नज़र आया है।

दो राह सी है जगमगाती, धुंधली आँखों ने रोका है,
दिल की सुनूँ या मन की, बस एक मोड़ सा नज़र आया है,
न बचपन की नादानी, न बड़ों का ज्ञान काम आया है,
एक दुखों का सूरज बन के छाया, दूसरा खुशियों का साया है।

मन कहता है उसे छोड़ दूँ, उसे देखना भी नसीब न हो 
जब ज़रूरत हो उसे किसी की, कोई हमदर्द करीब न हो 
तक़दीर बदलना चाहा उसकी, उसे कश्मकश नसीब न हो, 
उसकी नसाज़ी ने हराया मुझे, अब उसे प्यार तक नसीब न हो,

दिल कहता है उसने अपनाया तुझे, एहसान रहेगा उसका, 
तुझे सुकून से जीना सिखाया, नाम रहेगा उसका 
वो चाहती तो तेरा हाथ ना थामती, क्या जाता उसका? 
चाहे तो मुँह  फेर ले लेकिन, उपकार रहेगा उसका

मन नफरत का सारथी  है, कहता है उसे जाने दे 
पर क्या उसे बीच राह में छोड़ना सही होगा?
दिल कहता है उसे माफ़ करके अपना ले 
पर क्या इस रिश्ते को प्यार का नाम देना सही होगा?

हाथों से रेत फिसल रही है, वक़्त तेज़ी से भागा जा रहा है,
कहने को लफ्ज़ नहीं पर अश्कों से दर्द का सैलाब बहा जा रहा है,
देखना नहीं चाहता उसे पर उसकी आवाज़ सुनने के लिए दिल मरा जा रहा है,
समझ से परे  है ये आशिकी, जाने कैसे दिन दिखाए जा रहा है।

 


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