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संबुद्ध

संबुद्ध

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भावों में कोई भक्ति नहीं ,

फिर कैसे प्रभु का पान करे?

जिसकी जिह्वा रस उन्मादित,

वो कैसे ईश गुण गान करे?


है तत्पर जो भौतिक जग को,

उसे सूक्ष्म जगत अभिज्ञान कहाँ?

जिसका मन उन्मुख इतर इतर,

निज पीड़ा का निदान कहाँ?


ये जग जो नश्वर होता है,

इसमें कैसे ईश्वर पाएँ ?

जो चिर निरंतर ,अमर तत्व,

अविनाशी ,अनश्वर पाएँ .   


उस परम तत्व का अर्थ कहाँ?

इन शब्दों के आख्यानों में ,

वो छिपा पड़ा है व्यर्थ यहाँ,

बुद्ध पुरुषों के व्याख्यानों में ,


जो भी व्यंजित है शब्दों में ,

वो परम नहीं है छाया है,

वो भावों से है अनुरंजित,

जो अतिरिक्त है, माया है. 


जब तक नर मौन न साधेगा,

पंच दरवाजे होंगे अवरुद्ध,

कैसे निज अभिधार्थ फलेगा,

और होंगे मानव संबुद्ध ?   



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