ख़त
ख़त
मै ख़त पढ़ना चाहता हूं ।
पीले, खुरदुरे, बासी कागज की ख़ुशबू वाले ख़त।
मीलों का सफर तय करके भी
कभी न थकने वाले ख़त ।
सर्दी, गर्मी, बरसात सब सहके भी
बखूबी सबके जज्बात कहने वाले ख़त ।
तो कभी प्यार की अग्नि-परीक्षा में
ख़ुद भी जलने वाले ख़त ।
आज.... मै ख़त पढ़ना चाहता हूं ।
वे ख़त ....
जिसकी सीलन एहसास कराती
तुम्हारे आरिज़ पर अश्कों की नमी का ।
तो कभी
जिसकी स्याही की ख़ुशबू हर्फ़ दर हर्फ़ इज़हार करती
शीशी में बंद तुम्हारे प्रेम का ।
आज.... मै ख़त पढ़ना चाहता हूं ।
बोल्ड, इटैलिक फॉन्ट की जगह
तुम्हारी सुंदर लिखावट का फॉन्ट पढ़ना चाहता हूं...
तो कभी
अंदर तक समा लेना चाहता हूं
ख़त पर तुम्हारे हाथों की छुअन को ।
आज.... मै ख़त पढ़ना चाहता हूं ।
चन्द लम्हों में हुआ डबल टिक
और कुछ मिनटों में हुआ ब्लू टिक नहीं
हफ्तों इंतज़ार का ज़ायका लेना चाहता हूं
तो कभी
अपने लबों से मुकम्मल कर देना चाहता हूं
ख़त पर तुम्हारे लबों के हल्के होते निशानों को ।
आज.... मै ख़त पढ़ना चाहता हूं।
नोटिफिकेशन टोन नहीं
डाकिये की घंटी सुनना चाहता हूं।
तो कभी
मैसेज पैक नहीं
स्टाम्प टिकट खरीदना चाहता हूं ।
आज .... मै ख़त पढ़ना चाहता हूं ।
मै ख़त पढ़ना चाहता हूं ।