तृष्णा
तृष्णा
पल-पल फिसलती जिंदगी से
मोह क्यूँ बढ़ने लगा
लालसा जीवंत होती
साध कुछ पलने लगा।
बढ़ रही इस उम्र में क्यूँ
कामना की तिश्नगी
हो रहा व्याकुल हृदय क्यूँ
भावना कैसी जगी।
चाहतों की मस्तियों में
भाँग सा चढ़ता नशा
हर घड़ी बढ़ती रही
कुछ प्राप्त करने की तृषा।
आँख में भर कर उमंगें
ले रही तृष्णा हिलोर
कल्पना की क्यूँ तरंगें
कर रहीं मन को विभोर।
मीठी-मीठी अभिलाषाएँ
विहँस रही हैं चारों ओर
कितनी मधुर मंगल आशाएंँ
चूम रहीं हैं पथ चहुँ ओर।
माना टूट जाना है इक दिन
जीवन का यह कोमल तंतु
हुई दग्ध इस पीड़ा से मैं
क्षीण हो गया देह परन्तु।
जीवन की यह अगणित तृष्णा
प्रतिपल बढ़ती जाती है
जन्म मिला है मानव का
तब प्यास नहीं बुझ पाती है।।