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sahil srivastava

Drama Tragedy

4  

sahil srivastava

Drama Tragedy

कहानी लिखता हूँ..(सरहदें)

कहानी लिखता हूँ..(सरहदें)

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जो बोल ना पाया खुद से भी,

वो बात पुरानी लिखता हूँ,

बीती जो मुझपर सदियों से,

मैं आज कहानी लिखता हूँ।


हूँ कुंठित मैं और पीड़ित भी,

जाने मुझको क्या पीड़ा है,

सालों से मन में रेंग रहा,

जाने ये कौन सा कीड़ा है।


जब कपटी-झूठे अँधेरों में मैं,

रात में रोया करता था,

साथ मेरे एक चुप्पी साधे,

एक डर भी सोया करता था।


इन बूढ़ी रातों पर जो बीत गयी,

मैं आज जवानी लिखता हूँ,

बीती जो मुझपर सदियों में मैं,

आज कहानी लिखता हूँ।


तब नफ़रतों की आँधी थी,

तब आफ़तों का ज़ोर था,

रोते बिलखते आवाज़ों में,

सन्नाटे-सा शोर था।


हर धड़कन बेचैन थी तब,

तब आशुफ़्ता सी हर शक्ल थी,

नफ़रतों की आह में जलती,

हर इंसा की अक़्ल थी।


इन्ही नफ़रतों से लिपटी पुती,

एक छलक रवानी लिखता हूँ,

कोसो मीलों सरहद पार की,

इक कहानी लिखता हूँ।


एक सहमी-सिसकी आँधी थी,

एक झर-झर बहता बादल था,

उस सन्नाटे से द्वंद्व में जीता कहीं,

मातम मनाता इक पल था।


एक कसक भरी चिंगारी थी,

पल-पल में फूटा करती थी,

पकड़ के दामन बारिश का,

वो आग से छूटा करती थी।


जो बची नहीं चिंगारी की मैं,

आज निशानी लिखता हूँ,

रुख़ से रुख़्सत होने की वो,

दर्द पुरानी लिखता हूँ।


दो जिस्मों में एक जान था तब,

हर इक इंसान में एक इंसान था तब,

ना था कोई क़िस्म क़ौम तब,

एक हीं ख़ुदा एक भगवान था तब।


आज सरहदों की आंच में जलती,

मोहब्बत की क़ुर्बानी लिखता हूँ,

साहिर अमृता इमोरज़ इश्क़ की,

इक निशानी लिखता हूँ।


तब तख़्तो की हीं लालच थी सबको,

तब ज़माना कुछ और था,

अपनों के हीं टुकड़े कर गया,

जाने वो कैसा दौर था।


अब आती-जाती सरकारों की,

मैं मनमानी लिखता हूँ,

हर इक शख़्स से जो भूल हुई,

तब वो नादानी लिखता हूँ।


अपनों से अपनों के बिछड़ने की,

वो बात पुरानी लिखता हूँ,

जो बीत गयी सो बात गयी,

क्या ख़ाक कहानी लिखता हूँ।


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