रिश्ते रूह के अमिट छाप
रिश्ते रूह के अमिट छाप
रिश्ते ये तेरे मेरे
कुदरत के
लेखे हैं
हाथों की लकरों
में खुद खुदा ने
लिक्खे हैं।
जमाना जिसे
समझा नहीं
हम वही तो
रिश्ते हैं,
रस्म़ों-रिवाज की
फांद दीवारें
ल़ोकलाज की तज
दहलीजें
हर युग में हम
मिलते हैं।
सीता बन
मैं राम तुम्हारे
संग वन-वन डोली,
बन सावित्री
यम से भी छीन
मैं सत्यवान तुम्हारी
हो ली,
राधा सी प्रेमिका
जो बिन ब्याहे ही
कृष्ण तुम्हारी बनी
प्रेयसी,
दुष्यंत-शकुंतला और
नल-दमयंती की
जिंदगी थी हमारी।
पुराणों से कलयुग
तक आते कहाँ बदले रिश्ते अपने....?
बनके लैला-मजनूँ,
हीर-रांझा,शीरीं-फरहाद,
मिर्जा-साहिबा,ढोला-मारु
हमने,हर जुल्म सहे
जमाने भर के।
सच रिश्ते
सनातनी हैं अपने
जो युग मिटे
पर हमें नहीं मिटा पाये,
याद कहानी-किस्सों में
गीतों से कभी न
हटा पाये,
जिस्म फना होते रहे
मगर रुह हमारी
जिंदा रही,
तभी तो हमारे
रिश्ते दिल के करीब रहे।

