काश
काश
मैं नहीं पूछूँगी
तुम्हारे न लौटने का सबब,
पूरे चाँद की रात में
मैं आधी-अधूरी
लड़ती-झगड़ती
इंतज़ार की धूरी पर बैठे
बस सोचूँगी,
वो क्या था
हमारे बीच के संवाद पे अटका;
न तुमने टटोला न मैंने कुरेदाI
एक नश्तर-सा
मेरी आँखों में चुभता छोड़कर,
तुम चले गए
कुछ बोल थे, तुम्हारी जुबाँ पर अटके
जो ना कहते भी
मेरे कानों ने सुन लिए,
बस उस अनकहे मौन ने
फासलों को हवा दी,
बाकी बिछड़ने की वजह
न तुम थे न मैं थीI
काश
तुम गूँगे होते, मैं बहरी होती
तो
न तुम रोते न मैं रोतीI