गोधूलि बेला
गोधूलि बेला
चाँदी की सी चमक आ गई केशों में,
खेलते खेलते लुका छिपी का खेल
थके नेत्रों से विलुप्त होती चमक,
हो गई गति धीमी पाँवों की भी,
मुखमंडल पर जमा लिया है डेरा चन्द झुर्रियों ने,
तो क्या?..... है मुस्कान तो होंठों पे,
है स्वागत गोधूलि बेला का जीवन में,
भरे नवीन आत्म विश्वास तन मन में,
हैं कटिबद्ध करने को सामना प्रत्येक परिस्थिति का,
न बहनें देंगे अश्रु कभी नेत्रों से,
हैं प्रस्तुत निर्बल कंधे भी देने को
आश्रय निराश्रित को।
है तन दुर्बल तो क्या….
है संचित अनुभवों के मोतियों का भंडार,
रहते तत्पर सदैव करने को सहायता लुटा इन मोतियों का भंडार,
रहती चेष्टा रहें खड़ा अपने पैरों पर, बने बिन बोझ किसी पर,
पड़ने न देते आत्मबल निर्बल कभी,
है जब तक जीवन जी लें भरपूर
आत्मसम्मान के साथ।
कर लें स्वागत समय आने पर,
शाश्वत सत्य का भी जगत के,
जन्म लिया है जिस जीव ने मेल से पंचतत्व के,
हो जाना है विलीन वापस उसे उसी पंचतत्व में।।
