यात्रा संस्मरण
यात्रा संस्मरण
जिंदगी खुली किताब की भाँति है। जिसका एक अध्याय बंद होता ही दूसरा खुल जाता है। बंद अध्यायों के साथ अनेको स्मरण जुड़े होते हैं। जो यदा-कदा जीवन में दस्तक देते रहते हैं। उनमें कोई तो जीवन की दिशा मोड़ने में भी सहायक होते हैं। बात 1993 की है, जब मैं और मेरी सहेली नौकरी के सिलसिले में रोहतक से बहादुरगढ़ रोज आया-जाया करते थे। हम दोनों की पारिवारिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी। वापसी में शीला बाई पास उतर कर हम दोनों लगभग एक घंटा अपनी समस्याओं पर चर्चा किया करते थे। यह हमारी रोज की दिनचर्या थी। एक दिन पास का दुकानदार दो कुर्सीयाँ ले आया। रोज यहाँ घंटों खड़ी रहती हो, आगे से यहाँ बैठकर बातें कर लिया करो।
उस दिन घर जाते समय मैंने सोचा यहाँ खड़े होकर समस्याओं पर चर्चा करने से किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता, अपितु जग हँसाई और होती है और समस्या भी ज्यों की त्यों बनी रहती है। दिन के चौबीस घंटे निर्बाध गति से बीत जाते है। नया सवेरा लिए अगला दिन भी दस्तक दें देता है। इसलिए क्यों न स्वयं समझौता करके अपनी इन समस्याओं को खुशी से स्वीकार करूँ। उस दिन के बाद जीवन में एक अजीब सा सुकून और शाँति आ गई। स्वयं समझौते और जुझारूपन से, बड़ी से बड़ी समस्या भी अब समस्या नहीं लगती हैं।अब तो ऐसा लगता है जीवन को आगे बढ़ाने और दृढ़ इच्छा शक्ति में समस्याओ का बहुत योगदान रहा हैं।