वृक्षों पर क़हर का असर
वृक्षों पर क़हर का असर


एक घना जंगल था। जंगल में अनेक तरह के पेड़-पौधे जीव जन्तु थे। उन्हीं में बोलने वाले तीन वृक्ष रहते थे। तीन वृक्ष आपस में बात कर रहे थे।
पहला पेड़ :-" आज इंसान कितना स्वार्थी हो गया है , वह हम सभी को काटता जा रहा है ।"
दूसरा पेड़ :- "हाँ भई , हम इन्हें इनकी आवश्यकता की हर चीज़ देते हैं फ़िर भी नहीं मान रहे हैं।"
तीसरा पेड़ :- "हाँ ,भई आख़िर हम इनसे लेते ही क्या हैं? बल्कि उल्टा हम इनको देते ही हैं।"
पहला वृक्ष :- "अब देखो हमारी बारी कब आ जाए ?"
(जंगल में अचानक आवाज़ आती सुनाई दी )
दूसरा वृक्ष:- "भैया लगता है कोई आ रहा है, शायद इंसान- उन्सान आ रहा होगा ।"
तीसरा वृक्ष:- "भैया, आज तो हमारी हड्डियां-पसलियाँ तोड़ी जाएंगी; अब हमें कौन बचाएगा?
तीनों वृक्ष :- "अलविदा ,मेरे दोस्तों यह हमारा अंतिम समय है!"
(तीन लकड़हारा जंगल में जाते हैं।)
"यह लो भाई जंगल आ गया। चलो अब कोई अच्छा सा वृक्ष ढूंढते हैं । मालिक ने कहा है कि आज काम पूरा निबटाना है। चलो ठीक है, चलो देखते हैं।"
पहला लकड़हारा:- "यह रहा मेरा पेड़ ।"
दूसरा लकड़हारा:- "अरे! पीछे हटो, इसे पहले मैंने देखा था।"
पहला लकड़हारा:- "नहीं! इसे पहले मैंने देखा था।"
दूसरा लकड़हारा:- "नहीं! पहले मैंने देखा था।"
इस तरह से दोनों ने आपस में सिर लड़ाने शुरू कर दिये।
दोनों को देखकर तीसरे लकड़हारे ने समझाते हुए कह , "अरे! दोनों क्यों मरे जा रहे हो?, हमें तो इन पेड़ों को ही तो काटना है, चाहें ये काटे या वो।"
दोनों लकड़हारों को उसकी बात समझ में आ गई तथा कहते हैं कि सही कह रहे हो भइया, आख़िर हमें पेड़ तो काटने हैं।
अतः वह एक-एक करके पेड़ काटने लगते हैं बेचारे पेड़ असहाय थे तथा आंखों से आंसू निकले थे तथा मन ही मन कह रहे थे कि त
ुम लोगों का हमारे बिना बुरा हाल हो जाएगा तथा तुम हमारे बिना मरोगे। जैसे आज हमें काटा जायेगा; वैसे ही धीरे-धीरे तुम भी कटोगे ....... ।
शाम तक लकड़हारे उन पेड़ों को काट देते हैं इसके बाद बाजार में ले जाकर मालिक के आदेश के अनुसार बेच देते हैं। दो सालों तक यही सिलसिला चलता रहता है। पूरा जंगल मैदान बन जाता है। घनी आबादी वहां अपना डेरा डाल लेती है, इसके बाद उस जगह पर घर तथा फैक्ट्रियाँ बन जातीं हैं तथा फैक्ट्रियों से भयानक शोर के साथ -साथ काला- काला धुंआ निकलता है। जिसकी वज़ह से प्रदूषण ने अपना काला-काला मुँह खोलना शुरू कर दिया। लोग कौए से भी ज़्यादा काले होने लगे। भास्कर ने अपना रूप और कड़ा कर लिया,उसने अपने सहकर्मियों को सख़्त आदेश दे दिया कि धरा पर किसी को बख़्शा नहीं जाये। जो जिस हालात में हों उठा लिया जाये। सूरज ने अपनी जीभ निकलनीं शुरू कर दी उसने अपनी जीभ से सभी को खाना शुरू कर दिया। धरा का सम्पूर्ण नीर अदृश्य हो चुका था। वर्षा ने पृथ्वी की ओर रत्तीभर आँख उठाकर नहीं देखा, जिस वज़ह से धरती रानी का ज़िस्म फटने लगा। धरती अपनी प्यास बुझाने को तड़पने लगी। पानी में रहने वाले जीव-जंतु, कंकाल बन गए । दूध पीने वाले बच्चे मां के आग़ोश में चिपककर स्तनों को अपने होंठों से पपोललने की कोशिश कर रहे थे, पर मेहनत बेकार गई क्योंक़ि स्तनों का दूध सूख चुका था। लोग बिलख रहे थे, तड़प रहे थे ।
अभी तो यह शुरुआत थी, भयानक गर्मीं की वज़ह से ग्लेशियरों ने पिघलना शुरू कर दिया ,यह भी फड़फड़ाते हुए आबादी की और सरसराते हुए आने लगा और इसने भी लोगों को पीना शुरू कर दिया। वैश्विक तापन के बारे में क्या कहा जाए? वह तो तंदूर बनाने के फ़िराक़ में उसने भरपूर तैयारियाँ करनी शुरू कर दी। इसने पूरे विश्व को मेज़बानी कर दी। ओज़ोन की चमड़ी तो बुरी तरह से छलनी हो गई। जिसमें से दिवाकर की असंख्य किरणें हर किसी का दिवाला निकाल रही, विचित्र समस्या पैदा हो जाती हैं।
लोग मरे जा रहे थे , चिल्ला रहे थे। बच्चा , बूढ़े-ज़वान ,जीव-जंतु फड़फड़ाते हुए इधर- उधर फ़िर रहे थे । भयानक बीमारियों ने लोगों को घेरना शुरू कर दिया। इन लोगों को देखकर ऐसा लग रहा था कि लोग भोजन नहीं खा रहे थे; बल्कि बीमारियां लोगों को खा रहीं थीं। लोगों ने दम तोड़ना शुरू कर दिया। वृक्षों की कटाई के परिणामस्वरूप यह नतीज़ा भुगतना पड़ रहा था । यह सिलसिला चलता रहता है और आज भी सिलसिला चल रहा है...............!