madhavi mishra

Tragedy

3  

madhavi mishra

Tragedy

वो प्लेटफार्म के एक घंटे

वो प्लेटफार्म के एक घंटे

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रेलवे स्टेशन पर ट्रेन आने में एक घण्टे की देर थी प्लेटफार्म लोकल यात्रियों से खचाखच भरा था पैर टिकाने की जगह ना थी ।मैं भी अनमनी सी माँ से मिलने की लालच में हॉस्टल से निकल चुकी थी और शायद चिलचिलाती धूप में वापस जाने से अच्छा था थोड़ा कष्ट सह कर यहीं ट्रेन का इन्तजार कर लूँ । 15 -20 दिनों से माँ से नहीं मिली थी पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था किन्तु कब तक खड़ी रह पाती। थोड़ी देर के लिये बैठ जाना चाहती थी, अतएव काफी दूरी पर एक पटरे वाली पुरानी बैंच पड़ी थी जिस पर मधुमक्खियों की भांति बेहद निम्न आय वर्ग के शायद बिना टिकट वाले यात्री ट्रेन की प्रतीक्षा में भरे पड़े थे । बढ़कर जगह माँग बैठ गयी।

मुझे लगा की अपनी थकी हुई परिस्थिति वश मैंने आत्महत्या कर ली ये स्थान मेरे लायक नहीं था। अभी मैं ऐसा कुछ सोच ही रही थी तभी एक लरजती सी आवाज कानों में पड़ी मैं चौकी ,पलट कर देखा पान खाकर जीभ से होंठों को लाल करता एक अधेड़ उम्र आदमी जो बगल में ही बैठा अपने मर्द होने की अनुभूति से " मनों गौरवान्वित," मुझ में छुपी नारी से कुछ मनोविनोद करना चाह रहा था, मैंने बिना बोले उसकी तरफ देखा एक घृणा की अनुभूति नशों में दौड़ गयी मैं प्रतिकार स्वरूप तुरन्त खड़ी हो गयी। वह कुछ विद्रूप से मुस्कराया। तभी एक वृद्ध से दिखने वाला उदार हृदय ताऊ ने अपने बगल के लोगों से आग्रह कर मेरे लिये एक आधे फिट की जगह तैयार की और बैठने का आमंत्रण दिया । गंदी चुभती  निगाहों से बचने हेतु मुझे बैठ जाना आवश्यक लगा अतः ताऊ की उम्र के लिहाज से मुझे वहां बैठने में बुराई नहीं लगी। मैं कुछ सिमट के बैठ गयी और पर्स से एक आई पी सी की बेयरेक्ट निकाल पढ़ने लगी। तभी बगल में स्थान दिलाने वाले बूढ़े ताऊ ने पूछा पढ़ाती हैं? मैंने अनिच्छा से बिना शीश उठाये कहा पढ़ती हूँ। अब ही तक? उसने फिर प्रश्न किया ,मैंने उसके अनैच्छिक प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया। सम्भवत उसे लगा मैंने सुना नहीं उसने प्रश्न को दोहराया। मैंने बोझिल होकर कहा कानून की पढ़ाई है उसने कहा अच्छा अच्छा नौकरी करती हैं। मैं थक गयी थी मन ही मन रेल विभाग पर खीझ रही थी। 

तभी एक 18 से20 वर्षीय औरत डेढ माह के लगभग का बच्चा गोद में लिये लिये सामने आ गयी बच्चे के भूख की दुहाई दे कर पैसे मांगने लगी । मेरे पास टिकट के अतिरिक्त के पैसे न थे जो ट्रेन आने के संकेत के बाद खर्च करने थे तब भी मैंने पर्स खोल पैसे ढूँढे और 5 रुपए दे दिये ।औरत  कैनटीन से एक कप चाय एवं ब्रेड लेकर आई और बेंच के नीचे पेट के बल रेंगते दूध मुहे बच्चे को खिलाने लगी। तभी बुड्ढे ने चुटकी ली ,अरे ब्रेड काहे को खिला रही गोदी ले दूध पिला और कनखियों से मेरी तरफ देख कर बोला बच्चा नाजायज है, हर साल एक ले के आती है। मैं तिल मिला उठी पिघले सीसे की भाँति कानों से होकर बुड्ढे ताऊ का चरित्र मेरे सामने आने लगा उसने उस गरीब स्त्री के बार में जाने क्या क्या कहा ।मैं पुरुष के उम्र और सोच को मिलाकर अभी किसी निष्कर्ष पर पहुँच पाती ,तभी जोरदार कड़कती आवाज में भद्दी गालियों के साथ एक कद्दावर पुलिस वाला दिखा जो उस भीख मांगने वाली स्त्री को रूल से ठोक रहा था जो अब अपने बच्चे को स्तन खोल दूध पिलाने की चेष्टा करते हुए, लाये हुए चाय ब्रेड खुद खा रही थी ।पुलिस वाला रूल से उसकी साड़ी का पल्लू उठा के स्त्री के वक्ष पर डालते हुए मुझे गंदी मुस्कान के साथ देखते हुए चला गया। होंठों पर जबान फेरते थोड़ी देर में पुलिस वाला लौटा और मेरी तरफ तिरछी निगाहों से देखते हुए उस स्त्री से बोला साहेब बुला रहे हैं चलो। स्त्री बिफर पड़ी बोली नहीं जायेंगे, का करेंगे हमारा सायद उसके नारीत्व को सरेआम नीलाम किया जा रहा था उसने बदला लेना चाहा ,बोली रात में तलवा चातट और दिन में गरियाता है। बुलाओ अपने साहेब को यहीं दिन में इज्जत उतार देब। । इधर बूढ़े ताऊ की कही बात कान में जहर सी घुल रही थी 'रात में धन्धा करती है दिन में भीख मांगती है ई। जाने क्यूं लग रहा था इस सब ड्रामे की केन्द्र बिन्दु मै थी ।अनजाने ही उस स्त्री के रूप में मुझे सरेआम नंगा कर दिया गया था ,सब तमाशबीन थे, और मुझे देख रहे थे। तमाम अपमान को सहन करके मेरा स्वरूप बदरंग हो गया था ।मैं प्रतिशोध में तड़प उठी मानो वो सब मेरे साथ घटा 1ओएहो। उस असहाय गरीब के इज्ज्त की कोई कीमत नही थी इसका जिम्मेदार कौन था ?ये समाज वो स्टेशन की भीड़ , उसकी गरीबी ,उसके माता पिता, व्यवस्था या व्यवस्थापक या वो स्वयं? अचानक दुर्भाग्य की शिकार किसी अनाथ बालिका के कातर चीत्कार सी ट्रेन के आने की आवाज दिल को दहला गयी ।अपनी और सबकी दृष्टि से बचकर मैं वहां से उठकर बोझिल कदमों से वापस हॉस्टल की तरफ जाने के लिए निकल पड़ी। ऐसा लगा की कुछ पीछे छूट गया था। जिसे मैं वापस नहीं ला सकती थी। 



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