वो पल
वो पल
स्वयम एक 25 वर्षीय उत्साह से भरा हुआ युवा, जिसके लिए बच्चों को पढ़ाना एक सबसे सुखद कार्यों में से एक था, और इसी कार्य को करने के लिए उसने अपनी पढ़ाई पूर्ण करके एक निजी विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया। शिक्षकीय कार्यों के अलावा वह कार्यालयीन कार्यों का भी बड़े ही ईमानदारी से निर्वहन किया करता था। अपने सरल स्वभाव और मित्रवत व्यवहार के कारण वह अपने सहयोगियों, बच्चों और उनके पालकों के बीच भी काफी लोकप्रिय हो गया था।
कार्य के प्रति समर्पण का भाव उसमे आसानी से देखा जा सकता था। सबसे मिलजुल रहने और शिक्षण कार्यों को नवीन विधि से करने के उसके प्रयासों ने बच्चों के पढ़ाई में भी बहुत चमत्कारिक परिवर्तन ला दिया था और इसका परिणाम आसानी से पालक अपने बच्चों के अंदर देख पा रहे थे। नैतिक मूल्यों का विकास भी बच्चों में होने लगा।धीरे धीरे वक्त गुजरने लगा और साल भी बीतने लगे, बहुत ही सुचारू ढंग से विद्यालय का संचालन होने लगा। स्वयम अब विद्यालय में सहायक प्रधान पाठक के पद पर पदोन्नत हो चुका था। प्रत्येक वर्ष विद्यार्थियों की संख्या भी बढ़ने लगी, सबकुछ बिलकुल अच्छा चल रहा था, फिर सहसा एक विषाद ने मानों संपूर्ण विश्व को घेर लिया और उसका प्रभाव साफ तौर पर शिक्षा के क्षेत्र में देखने को मिला। एक तरफ जहां नवीन शिक्षा पद्धति का जन्म हुआ।
वैकल्पिक व्यवस्था के आधार पर विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाने लगी, परंतु यह कोरोना काल सचमुच में एक काल की तरह साबित हुआ, जिसने निजी विद्यालयों को बहुत प्रभावित किया खास कर ग्रामीण क्षेत्रों के निजी विद्यालयों को। इतने प्रयासों को भी ग्रामीण क्षेत्रों में नजर अंदाज कर दिया गया और परिणाम स्वरूप विद्यालय प्रबंधन ने कुछ अजीबों गरीब फैसले लिए जिसमे से एक था स्वयम के स्थान पर बिना किसी जानकारी के एक नए व्यक्ति की नियुक्ति करना। स्वयम ने जब प्रबंधन से उक्त विषय में बात की तो उन्होंने कहा कि आपके सहयोग के लिए इन्हें नियुक्त किया गया है। दूसरे दिन प्रबंधन ने स्वयम की कुर्सी पर बिना उससे बात किए नए नियुक्त व्यक्ति को बैठा दिया।आत्मसम्मान पर लगे इस घाव को कुछ वक्त के लिए भुलाकर प्रबंधन के इस फैसले को स्वयम ने भी मुस्कुराकर स्वीकार किया और उस सत्र अपने कार्यों का उसी तरह निर्वहन करने लगा, परंतु एक बात उसे हमेशा टीस करती थी कि उसके किए कार्यों,प्रयासों को आखिरकार प्रबंधन भूल कैसे सकता है।
एक तरफ बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की सोंच में लगे रहना और दूसरी तरफ प्रबंधन का ऐसे सौतेले व्यवहार के बीच सामंजस्य बैठाना मुश्किल भी था परंतु उसने अपने कर्तव्य परायणता से कभी मुख नही मोड़ा। मार्च के अंत में वार्षिक परीक्षा का आयोजन हुआ और अप्रैल के अंतिम सप्ताह में बच्चों के रिजल्ट घोषित किए गए और उसके साथ ही स्वयम ने भी विद्यालय को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
संभवत: काफी लोगों को यह बात समझ नही आयी कि स्वयम ने विद्यालय क्यों छोड़ दिया, पर जिन्होंने समझा उन्होंने उसके इस फैसले का स्वागत किया। अब स्वयम उस विद्यालय में एक मीठी याद बनकर बच्चों के दिलों में रहने लगा।।