वो घर
वो घर
मेरा जाना कई सालों के बाद उस शहर में हुआ जहाँ मेरे जीवन के शुरुआती पाँच साल बीते थे। वैसे वो शहर छोटा सा था। घूमने के लिए कोई खास जगह थी नहीं। मैंने सोचा कि कुछ नहीं तो किसी थिएटर में कोई फिल्म ही देख लूँगा।
मैंने अपने दोस्त से कहा कि मैं शहर का चक्कर लगाने जा रहा हूँ। दोपहर के खाने पर इंतजार ना करे। शाम तक लौट आऊँगा।
जब मैं दोस्त के घर से निकला था तब कहाँ जाना है नहीं सोचा था। मैं किसी सवारी की खोज में था। मैंने देखा कि शहर में यातायात के लिए सबसे अच्छा व सस्ता साधन ई रिक्शा है। मैंने एक ई रिक्शा को रोक कर चालक से पूँछा।
"यहाँ घूमने लायक कौन कौन सी जगह है?"
चालक ने कहा,
"छोटा सा शहर है ये। इधर कुछ सालों में मॉल वगैरह खुल गए है। वरना तो पुराना किला ही है जहाँ लोग पिकनिक मनाने जाते है।"
पुराने किले की बात से मुझे अपनी मम्मी की बात याद आ गई। वो कहती थी कि हम जिस मोहल्ले में रहते थे वह पुराने किले के पास ही था। मैंने ई रिक्शा चालक से वहीं चलने को कहा।
रिक्शा में बैठ कर मैं मम्मी की बात को याद करने लगा।
उस मोहल्ले में एक बड़ी सी हवेली थी। जिसका बंटवारा दो भाइयों के बीच हुआ था। दोनों अपने हिस्से के एक भाग में रहते थे। दूसरे हिस्से को किराए पर उठा दिया था।
हम बड़े भाई के हिस्से में किराएदार थे। मम्मी ब्याह के बाद पहली वहीं जाकर रही थी। अतः अक्सर वो वहाँ के किस्से बताती रहती थी। हमारे अतिरिक्त उस हिस्से में एक और किराएदार थे। सहाय दंपति। मम्मी उन्हे चाचा-चाची कह कर पुकारती थी।
पापा का जॉब ऐसा था कि उन्हे महीने में पंद्रह दिन टूर पर रहना पड़ता था। मम्मी को अकेला रहने की आदत नहीं थी। ऐसे में चाची उनके साथ रात में रहती थी। चाचा-चाची उन्हे अपनी बेटी की तरह मानते थे। उनकी हर सुविधा का खयाल रखते थे।
जब मैं होने वाला था तब चाची ने मेरी मम्मी की खूब देखभाल की थी। मम्मी जब पहली बार मुझे अस्पताल से घर लेकर गई थी तब चाची ने हम दोनों का स्वागत किया था। मेरे अन्नप्राशन संस्कार पर उन्होने ही मुझे खीर चटाई थी।
वह मुझे मेरी दादी की तरह प्यार करती थी। मैं मम्मी-पापा से अधिक चाचा-चाची के पास रहता था।
जब मैं पाँच साल का हुआ तब पापा ने दूसरी नौकरी कर ली। हम नए शहर में चले गए। तबसे हम वहीं थे। मेरी नौकरी भी वहीं लग गई। हमारे आने के कुछ साल बाद किसी ने बताया था कि चाचा जी ने मकान मालिक से वो पूरा हिस्सा खरीद लिया था जिसमे हम और वो किराएदार थे।
ई रिक्शा चालक ने कहा,
"बस अब हम किले पर पहुँचने ही वाले है।”
अचानक मेरे दिमाग में एक खयाल आया। मैंने उस मोहल्ले का नाम याद किया। मैंने रिक्शा चालक से कहा,
"किले के पास राजेंद्र नगर नाम का मोहल्ला है। वहीं ले चलो।"
ई रिक्शा चालक ने कहा,
"भाई साहब उसके लिए तो पहले ही मुड़ना था।"
"ओह... क्या बहुत दूर आ गए?"
"नहीं... बस थोड़ा ही आगे आए है। मैं रिक्शा वापस मोड़ लेता हूँ।"
रिक्शा चालक ने सावधानी से रिक्शा मोड़ा। कुछ पीछे जाकर वह बाईं ओर मुड़ गया। मोहल्ले में पहुँच कर मैं हरि निवास हवेली के बारे में पूँछता हुआ वहाँ पहुँच गया। मैंने रिक्शा चालक को पैसे देकर भेज दिया।
राम निवास हवेली कोई सत्तर साल पुरानी होगी। इक्कीस साल तो हमे ही हो गए थे उसे छोड़ कर गए। इस हिसाब से चाचा-चाची की उम्र कोई अस्सी साल के आसपास होनी चाहिए थी।
अब मैं सोच रहा था कि पता नहीं वो लोग होंगे भी या नहीं। यदि वो मिल गए तो मैं उन्हे अपना परिचय कैसे दूँगा। पर उससे पहले समझ नहीं आ रहा था कि मैं हवेली के किस हिस्से में घुसूँ। मेरी याददाश्त में जो तस्वीर थी, हवेली उससे काफी बदल चुकी थी।
मेरी नज़र हवेली में घुसते ही एक शख्स पर पड़ी। मैंने उससे पूँछा,
"वो सहाय साहब हवेली के किस हिस्से में रहते है?”
"दद्दू जी... वो उस गेट से अंदर चले जाइए।"
मैं उसके दिखाए गए गेट से अंदर चला गया। कुछ अंदर जाकर मैंने दरवाज़ा देखा। मेरे दस्तक देने पर एक महिला ने दरवाज़ा खोला,
"क्या है?"
उसके पूँछने के अंदाज़ से लगा कि वहाँ काम करती है। मैंने कहा,
"मुझे सहाय साहब से मिलना है।"
वो कुछ कहती उससे पहले एक आवाज़ आई।
"कौन आया है सरला?"
"कोई आपको पूँछ रहा है। भीतर ले आऊँ?"
"बुला लो अंदर।"
मैं सरला के साथ अंदर गया। आंगन के एक कोने में सहाय चाचा धूप सेंक रहे थे। मैंने आगे बढ़कर पैर छुए। उन्होंने मुझे पहचानने की कोशिश की।
"आपको बिट्टी याद है।"
मैंने वो नाम लिया जिससे चाचा जी मेरी मम्मी को बुलाते थे। कुछ क्षण तक याद करने के बाद बोले।
"हाँ... पर तुम कौन ?"
"मन्नू..."
मैंने अपना घरेलू नाम बताया।
"तुम दिनेश और वंदना के बेटे हो।"
कहते हुए चाचा जी की आँखें चमक उठीं।
"कितने बड़े हो गए ? तुम्हारे माता-पिता कैसे है? कहाँ हो तुम लोग?"
चाचा जी ने एक साथ कई सवाल कर दिए। मैंने उन्हे इत्मीनान से सब कुछ बताया। सुनकर वह बहुत खुश हुए।
"कैसे समय बीत गया? कल तुम इत्ते से मेरी गोद में बैठते थे। अब नौकरी पेशा हो गए हो। खूब तरक्की करो।"
मैं चाची जी के बारे में सोच रहा था।
"दादी अंदर है क्या ?"
"नहीं बेटा... छह बरस हुए उसे गुज़रे। अब तो ये सरला ही बनाती-खिलाती है।"
सुनकर मुझे बड़ा अफसोस हुआ। मैंने चाचा जी की तरफ देखा। उनके चेहरे पर पीड़ा थी। उसे छिपाते हुए बोले,
"सरला जा इसके खाने के लिए कुछ ले आ।"
कुछ ही देर में सरला नाश्ता लेकर आ गई। नाश्ता करते हुए मैं और चाचा जी कई यादें ताज़ा करते रहे। नाश्ते के बाद वह मुझे उन दो कमरों में ले गए जहाँ मैं और मेरे मम्मी-पापा रहते थे। मैंने चाचा जी की, उन कमरों की, आंगन की और हवेली की कई तस्वीरें अपनी मम्मी को दिखाने के लिए खींची।
कुछ देर बाद जब मैंने चलने की इजाज़त मांगी तो चाचा जी ने कहा,
"कभी अपने माता पिता को लेकर आना। अच्छा लगेगा।"
मैं इस वादे के साथ कि जल्द ही उन्हे लाऊँगा वहाँ से चला आया।
