Saroj Verma

Drama

4.0  

Saroj Verma

Drama

विश्वासघात--भाग(१३)

विश्वासघात--भाग(१३)

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प्रदीप का मधु पर हाथ उठाना देख, साधना चुप ना रह सकी और उसने प्रदीप के पास आकर कहा___

  मैं मधु की माँ हूँ और प्रदीप! तुम मधु को बिल्कुल गलत समझ रहे।

नहीं, आण्टी ! मैं उसे अब बिल्कुल ठीक समझा हूँ, पहले गलत समझा था, मैं नहीं जानता था कि वो एक नम्बर की मक्कार और धोखेबाज है, नहीं तो मैं उसकी बातों में कभी ना आता, प्रदीप ने जवाब दिया।

  प्रदीप बेटा! पहले तुम मेरी बात सुन लो, फिर उसके बाद वही करना जो तुम्हारा मन करें, साधना ने कहा।

ठीक है आण्टी! कहिए, जो आप कहना चाहतीं हैं, प्रदीप बोला।

  उसने जो तुम्हारे साथ किया, वो माफ़ करने लायक नहीं है लेकिन उसे अपनी गलती का बहुत पछतावा है, मैंने खुद उसमें ये बदलाव देखा है और उसे देखकर तो एक बार मैं भी अचम्भे में पड़ गई कि ये मेरी वही बेटी है जो अभी दो तीन दिन पहले ही इतनी घमण्डी और अकड़ू हुआ करती थीं, पता है तुम्हारी चिंता में उसने कल पूरा दिन खाना भी नहीं खाया और सारी रात मन्दिर के सामने बैठकर प्रार्थना करते करते वहीं फर्श पर सो गई, जो कि हमेशा मखमली बिस्तर में सोतीं आई है, उसने गलती की है, मैं ये मानती हूँ लेकिन अब शायद उसका कठोर दिल पसीज गया है, उसमें अब दया और ममता का वास हो गया है, अब मेरी बात सुनकर तुम वही करना जो तुम्हें ठीक लगें, अच्छा अब चलती हूँ, मधु मोटर में मेरा इंतजार कर रही होगी, साधना ने सबसे नमस्ते की और मोटर की ओर बढ़ गई।

    इधर साधना की बात सुनकर प्रदीप सोच में पड़ गया कि अब क्या करूँ, वो मेरा हाल पूछने आई थी और मैंने उसको सबके सामने बेइज्जत कर दिया।

   प्रदीप बेटा! तूने ये अच्छा नहीं किया, कुछ भी हो जाएं उसने जो भी किया हो तुम्हारे साथ, लेकिन एक लड़की पर हाथ उठाना, तुम्हें शोभा नहीं देता, मंगला को पता चला तो उसे बहुत दुःख होगा, दयाशंकर बोला।

 लेकिन बापू! अब तो मुझसे गलती हो चुकी है, अब मैं करूँ? प्रदीप ने पूछा।

कोई बात नहीं, प्रदीप भाई! गाँव से वापस आकर उससे माफ़ी माँग लेना, कुसुम बोली।

   हाँ, घबराओं नहीं बेटा! हो जातीं हैं ऐसी गल्तियाँ, अब इतना मत सोचो, खुशी मन से गाँव चलो, वर्षों बाद सारा परिवार इकट्ठा होगा, ऐसे में तुम्हारा सब उतरा चेहरा देखेंगे तो किसी को अच्छा नहीं लगेगा, शक्तिसिंह जी बोलें।

 ठीक है अंकल! आप शायद ठीक कह रहें हैं, प्रदीप बोला।

 तो फिर चेहरे पर मुस्कान लाओ, बाद में आकर तुम उस लड़की से सुलह कर लेना, वैसे तुम कहोगे तो हम उसे अपनी बहु भी बनाने को तैयार हैं, शक्तिसिंह जी बोलें।

 आप भी ना! अंकल! कैसी बातें कर रहें हैं, प्रदीप बोला।

 देखो तो बरखुरदार के चेहरे पर कैसी लाली छा गई, बहु का नाम सुनते ही, शक्तिसिंह फिर से मज़ाक करते हुए बोलें।

   और उनकी बातें सुनकर सब हँस पड़े और माहौल थोड़ा हल्का हो गया और दो मोटरों में सब बैठकर गाँव की ओर चल पड़े।

         

         उधर मधु रास्ते भर रोते रहीं और जैसे ही घर पहुँची तो अपने कमरे मे भागकर गई और तकिए में मुँह रखकर फूट फूटकर रोने लगीं, साधना पहले ही उसके मन की बात भाँप गई थी और वो भी मधु के कमरे जा पहुँची, मधु को रोता हुआ देखकर उसने उसे समझाने की कोशिश की____

      रोते नहीं मधु! वो अभी तुझसे गुस्सा है इसलिए उसने तेरे साथ ऐसा व्यवहार किया, लेकिन तुझे इस बात से खुशी होनी चाहिए कि वो सही सलामत है, साधना बोली।

   लेकिन, माँ! मैं तो केवल उससे उसका हाल चाल ही पूछने गई थी और उसने मेरे साथ ऐसा सुलूक किया, मधु ने साधना से कहा।

     कोई बात नहीं बेटा! तूने जो उसके साथ किया, वो भी तो माफ करने लायक नहीं है, उसे थोड़ा समय दें, देखना वो तुझे जरूर माफ़ कर देगा, साधना बोली।

सच, माँ! वो मुझे माफ़ कर देगा, मधु ने साधना से पूछा।

 हाँ, बेटा! गलतियाँ सबसे होतीं हैं, लेकिन समय रहते अगर इंसान अपनी गलती समझ जाएं, उसे पछतावा हो तो, उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू निकले तो समझ कि वो इंसान सुधार गया है, सुबह का भूला, अगर शाम को वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते और तुझे देखकर लगता है कि तूने जो गलती की है उसका तुझे बहुत पछतावा है, इसलिए ज्यादा दिल पर मत ले, एक ना एक दिन सब ठीक हो जाएगा, साधना बोली।

      थैंक्यू माँ! मेरी उलझनों को सुलझाने के लिए और मुझे तुमसे भी माफी माँगनी है, आज तक जो मैं तुम्हारे साथ व्यवहार करती आई उसके लिए, मधु बोली।

 भला माँ भी कभी अपने बच्चों से रूठती है, माँ का काम होता है कि अपने बच्चों को सही शिक्षा और संस्कार देकर उन्हें एक अच्छा इंसान बनाएं, मै ने तो बस वही कोशिश की है, साधना बोली।

        मेरी प्यारी माँ और यह कहकर मधु , साधना से लिपट गई।

अच्छा, चल अब नाश्ता कर लें, तेरी पसंद की आलू पूरी बनवाई है, साधना बोली।

   हाँ, माँ! आज तो मैं हल्का महसूस कर रही हूँ, प्रदीप सही सलामत है इसलिए, आज तो मैं जीभर कर खाऊँगी, मधु बोली।

   और माँ बेटी नाश्ता करने पहुँचे।

          उधर सब चन्दनपुर गाँव पहुँचे___

घर के सामने तक सँकरी गलियों में मोटरें नहीं जा सकती थीं तो मोटरें पाठशाला के मैदान में जाकर खड़ी हो गई, सब मोटरों से उतरे, पाठशाला में ही संदीप और विजयेन्द्र सबका इंतजार कर रहें थे, जैसे ही विजयेन्द्र ने शक्तिसिंह को देखा तो फ़ौरन ही उनके चरणस्पर्श किए, शक्तिसिंह ने उसे अपने सीने से लगा लिया, उनकी आँखों से खुशी के दो आँसू भी ढुलक पड़े और वो मारें खुशी के कुछ भी ना बोल पाएं , बस एकटक ही अपने नन्हे को निहारते रहे।

     उधर दयाशंकर का भी यही हाल था संदीप को देखकर, संदीप ने भी अपने बापू के चरणस्पर्श किए और दयाशंकर ने भी उसे अपने सीने से लगा लिया, अब दया जल्दी से मंगला को देखना चाहता था और शक्तिसिंह जी जल्द से जल्द लीला से मिलना चाहते थे।

 संदीप ने कुसुम को देखा तो वो भी शरमा गई लेकिन बोली कुछ भी नहीं।

      सब लीला के घर पहुँचे, क्योंकि लीला और मंगला ने मिलकर आज की रसोई तैयार की थी, ढेरों पूड़ी पकवान बनाएं थे, इतने सालों बाद पूरे परिवार की मिलने की खुशी में।

     मंगला ने जैसे ही दया को देखा तो सब कुछ बिसराकर उसके पैरों में अपना सिर रख दिया और फूट फूटकर रोने लगी, मंगला का ये हाल देखकर दया की भी आँखें भर आईं और दया बोला__

उठ पगली! सब देख रहे हैं, अब बुढ़ापे में ये स्वांग करके बदनाम करने का इरादा है क्या?

 ये सुनकर सब हँसने लगे___

 हाँ, अब भी तुम्हारी हँसी करने की आदत गई नहीं, जाओ मैं तुमसे नहीं बोलती, मंगला बोली।

 रूठती है पगली! इतने सालों बाद मिली है, आज भी रूठेगी, दया बोला।।

 तो तुम क्यों ऐसी बातें करते हो जी! मंगला बोली।

 ये तो मेरा हक़ है, तुझे चिढ़ाना अच्छा लगता है, तू कहे तो कल से पड़ोसियों की बीवियों को चिढ़ाया करूँ, दया बोला।

 अब बुढ़ापे में सठिया गए हो क्या? सब सुनेंगे तो क्या सोचेंगे, चलो हठो जी! मंगला बोली।

तू तो मसखरी भी नहीं समझती, अच्छा! ये बता लीला जीजी कहाँ हैं, दिख नहीं रहीं, शक्तिसिंह के मन की बात भाँपते हुए, दया ने मंगला से पूछा क्योंकि शक्तिसिंह की नज़रें बहुत देर से कुछ ढूँढ़ रहीं थीं लेकिन मारे संकोच के वो कुछ पूछ नहीं पा रहे थे।

    तभी मंगला ने जवाब दिया___

लीला जीजी! चाय के लिए ताजा दूध लेने गईं हैं, अभी आतीं होंगी, मैंने कहा कि मैं चली जाती हूँ लेकिन वो बोली, मैं ही ले आती हूँ।

     मिट्टी वाला कच्चा घर खपरैल छाया हुआ, दो तीन कोठरियाँ ही बनीं थीं और बाकी़ का मैदान छोड़ रखा था, वहीं आँगन में ही एक हैंडपंप लगा था, वहीं छोटा सा स्नानघर बना था, बाकी जगह में थोड़ी फूल फुलवारी लगा रखा थी लीला ने, कुछ सब्जियाँ भी बो रखीं थीं, जैसे कि धनिया, मिर्च और बैंगन।

    शक्तिसिंह जी नीम के पेड़ की छाँव में पड़ी आँगन की चारपाई में बैठे थे और घर को बड़े ध्यान से निहार रहें थे और वो बेकरार थे लीला को देखने के लिए, तभी लीला छोटी सी बाल्टी में दूध लेकर घर के भीतर आँगन में आईं और जैसे ही शक्तिसिंह को देखा तो फौरन ही रसोई में चली गई और मंगला से बोली___

 लो मंगला भाभी! दूध। जरा झटपट सबके लिए अच्छी सी गुड़ वाली चाय तो बना लो सौंठ डाल के।

         ना जीजी! चाय तो तुम ही बनाओ, मैं तो सबको अपना घर दिखाने ले जा रही हूँ, हम सब घर देखकर आतें हैं तब तक तुम चाय बनाकर रखो, और धीरे से बोली चिंता मत करो, जमींदार साहब हमारे साथ नहीं जा रहें हैं, जाओ तुम उनसे अकेले में दो घड़ी बातें कर लो, ये साँठ गाँठ दया और मंगला की थी, शक्तिसिंह और लीला को मिलवाने के लिए।

  तभी संदीप बोला___

दीदी भी तो दवाखाने से अभी लौटी नहीं है, चलो उनके दवाखाने चलकर उनको भी ले आएंगे और सब चल पड़े, अब इधर लीला और शक्तिसिंह घर में अकेले रह गए।

  लीला उनके लिए पानी लेकर पहुँची, उन्होंने लीला को देखा तो अभी भी वो उतनी बूढ़ी दिखाई नहीं दे रही थी, बस बालों में हल्की सी सफेदी आ गई थी।

      पानी देकर लीला जाने लगी तो शक्तिसिंह जी बोले___

ऐसे ही चली जाओगी, बोलोगी भी नहीं।

    जी, बोलने के लिए अब कुछ बचा ही नहीं है, लीला बोली।

 तो क्या इस बार भी मुझे अकेले छोड़ देने का इरादा है, शक्तिसिंह जी बोले।

  अब उम्र के इस पड़ाव में भी आकर आप मुझे अपना बनाने का सोच रहे हैं, लीला बोली।

सच्चा प्रेम कभी मिटता नहीं है लीला! तुम मेरी ना होकर भी सदा मेरी रहोगी, क्या हुआ जो मैंने तुम्हारे संग सात फेरे नहीं लिए, मन का बंधन मैंने तुमसे तो सालों पहले बाँध लिया था, जो कभी भी नहीं टूटेगा, शक्तिसिंह जी बोले।

   लीला ने ये सुना तो उसकी आँखें छलक आईं और वो बोली___

आप! क्यों मेरा इंतज़ार अभी तक कर रहे हैं, आप को तो मेरी पिछली जिन्दगी के बारे में सब पता है ना!

   और मुझे ये भी पता है कि तुम भी मुझसे प्रेम करती हो, भले कभी भी कहा नहीं, शक्तिसिंह जी बोले।

    हर चीज का एक समय होता है और समाज के भी कुछ नियम होते हैं, आप और मैं समाज के नियमों के विरूद्ध भला कैसे जा सकते हैं, लीला बोली।

  अगर हम दोनों का प्रेम सच्चा है तो सब कुछ सम्भव है लीला! शक्तिसिंह जी बोले।

  भगवान के लिए ऐसी बातें ना करें, लीला बोली।

तुम समाज से नहीं, अपनेआप से डरती हो लीला! शक्तिसिंह जी बोले।

डरना पड़ता है क्योंकि हम समाज में रहते हैं, लीला बोली।

  और ये समाज भी हमसे ही बना है, हम ऐसा कोई अपराध तो नहीं कर रहें हैं, तुम मुझसे प्रेम करती हो और मैं तुमसे प्रेम करता हूँ तो फिर अड़चन किस बात की, शक्तिसिंह जी बोले।

  इस उम्र में आप ये बंधन जोड़ने की बात कर रहे हैं, लीला बोली।

 ये सब तुम्हारे बहाने हैं, तुमने सालों पहले भी यही किया था और अब भी कर रही हो, शक्तिसिंह जी बोले।

   तो कान खोलकर सुन लीजिए, ये कभी नहीं हो सकता और लीला इतना कहकर रसोई में चली गई।

क्रमशः___

सरोज वर्मा..

 


                 

    



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