वचन
वचन
आज सुबह से ही विजय जी की आँखें नम थीं। कारण भी था, कुछ महीने पहले ही उनकी पत्नी जी का देहान्त हुआ था। अकेलापन और पत्नी की यादों ने उन्हें अधिक विकल कर दिया था। अतीत मानो उन्हें इन परिस्थितियों से निकलने ही नहीं देना चाहता था।
याद आया उन्हें, जब पहली बार उनकी मुलाकात तृप्ति से हुई थी। पहली नजर में ही उन्हें तृप्ति से प्यार हो गया था। घरवालों की रजामंदी से यह प्यार वैवाहिक जीवन के सुंदर बन्धन में बदल गया। तृप्ति को पाकर विजय बेहद खुश थे। उनकी हर छोटी-बड़ी आवश्यकताओं का तृप्ति पूरा ख्याल रखा करती। जीवन मानो स्वर्ग बन गया था उनका। समय अपनी गति से चलता रहा। दो बेटियों को संतान रूप में पाकर तो विजय के जीवन की खुशियाँ दुगुनी हो गयी। लेकिन हर सुख के बाद दुख का आना तय है, वैसे ही अचानक एक दिन तृप्ति की बीमारी का पता चला। बीमारी अपनी तीसरी अवस्था पर पहुँच चुकी थी। केवल ईश्वर का सहारा कहकर डॉक्टरों ने भी अपनी असमर्थता जता दी थी। विजय समझ नहीं पा रहा था कि अब वह क्या करे? तृप्ति को कैसे बचाए? क्या कहे उससे? पर तृप्ति इस परिस्थिति से वाकिफ थी। जब विजय रोते हुए कहने लगे, "मैं तुम्हारे बिना कैसे रह पाऊँगा? बच्चों का क्या होगा? तुम ऐसे हम सबको छोड़कर नहीं जा सकती।"
उस आखिरी पल में भी तृप्ति ने हँसते हुए कहा था, "अरे, मैं कहाँ जा रही हूँ? मैं तो हर पल तुम्हारे साथ थी और रहूँगी। शरीर का अंत होगा पर आत्मा कभी नहीं मरती। मैं तुम्हारी आत्मा से जुड़ी रहूँगी। हमेशा...हमेशा....। जब भी तुम मुझे पुकारोगे, मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगी। वादा है यह मेरा। अब रोना बंद करो और मुझे हँसी-खुशी विदा करो। जैसे मुझे इस घर में लाये थे सुहागिन बनाकर ठीक वैसे ही विदा हो जाऊँगी मैं। इससे बड़ा सौभाग्य एक पत्नी के लिए क्या हो सकता है।"
अचानक मन भर आया विजय जी का। अतीत की यादें अपना काम कर चुकी थी। आँखों बंद कर बहते आँसुओं से उन्होंने धीमे स्वर में पुकारा....."तृप्ति, लौट आओ। तुम्हारे बिना मैं बिल्कुल अकेला हूँ।" अचानक उन्हें एहसास हुआ की कोई उनके बहते आँसुओं को अपने कोमल हाथों से पोंछ रहा है। वही कोमलता जो तृप्ति के हाथों में हुआ करती थी।" तो क्या तृप्ति लौट आयी? " इस विचार के आते ही विजय जी ने झट अपनी आँखें खोल दी। देखा, दोनों बेटियाँ रोते हुए उनके बहते आँसुओं को भी पोंछ रही थीं। एकाएक उन्हें लगा की तृप्ति ही उनके पास खड़ी है। ये दो रूप उसी के तो हैं। सच कहा करती थी कि "मैं आपको छोड़कर कहाँ जाऊँगी?" उन्होंने दोनों बेटियों को गले से लगा लिया। दीवार पर टँगी तृप्ति की तस्वीर मानो मुस्कुरा रही थी।
आज सुबह से ही विजय जी की आँखें नम थीं। कारण भी था, कुछ महीने पहले ही उनकी पत्नी जी का देहान्त हुआ था। अकेलापन और पत्नी की यादों ने उन्हें अधिक विकल कर दिया था। अतीत मानो उन्हें इन परिस्थितियों से निकलने ही नहीं देना चाहता था।
याद आया उन्हें, जब पहली बार उनकी मुलाकात तृप्ति से हुई थी। पहली नजर में ही उन्हें तृप्ति से प्यार हो गया था। घरवालों की रजामंदी से यह प्यार वैवाहिक जीवन के सुंदर बन्धन में बदल गया। तृप्ति को पाकर विजय बेहद खुश थे। उनकी हर छोटी-बड़ी आवश्यकताओं का तृप्ति पूरा ख्याल रखा करती। जीवन मानो स्वर्ग बन गया था उनका। समय अपनी गति से चलता रहा। दो बेटियों को संतान रूप में पाकर तो विजय के जीवन की खुशियाँ दुगुनी हो गयी। लेकिन हर सुख के बाद दुख का आना तय है, वैसे ही अचानक एक दिन तृप्ति की बीमारी का पता चला। बीमारी अपनी तीसरी अवस्था पर पहुँच चुकी थी। केवल ईश्वर का सहारा कहकर डॉक्टरों ने भी अपनी असमर्थता जता दी थी। विजय समझ नहीं पा रहा था कि अब वह क्या करे? तृप्ति को कैसे बचाए? क्या कहे उससे? पर तृप्ति इस परिस्थिति से वाकिफ थी। जब विजय रोते हुए कहने लगे, "मैं तुम्हारे बिना कैसे रह पाऊँगा? बच्चों का क्या होगा? तुम ऐसे हम सबको छोड़कर नहीं जा सकती।"
उस आखिरी पल में भी तृप्ति ने हँसते हुए कहा था, "अरे, मैं कहाँ जा रही हूँ? मैं तो हर पल तुम्हारे साथ थी और रहूँगी। शरीर का अंत होगा पर आत्मा कभी नही मरती। मैं तुम्हारी आत्मा से जुड़ी रहूँगी। हमेशा...हमेशा....। जब भी तुम मुझे पुकारोगे, मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगी। वादा है यह मेरा। अब रोना बंद करो और मुझे हँसी-खुशी विदा करो। जैसे मुझे इस घर में लाये थे सुहागिन बनाकर ठीक वैसे ही विदा हो जाऊँगी मैं। इससे बड़ा सौभाग्य एक पत्नी के लिए क्या हो सकता है।"
अचानक मन भर आया विजय जी का। अतीत की यादें अपना काम कर चुकी थी। आँखों बंद कर बहते आँसुओं से उन्होंने धीमे स्वर में पुकारा....."तृप्ति, लौट आओ। तुम्हारे बिना मैं बिल्कुल अकेला हूँ।" अचानक उन्हें एहसास हुआ की कोई उनके बहते आँसुओं को अपने कोमल हाथों से पोंछ रहा है। वही कोमलता जो तृप्ति के हाथों में हुआ करती थी।" तो क्या तृप्ति लौट आयी?" इस विचार के आते ही विजय जी ने झट अपनी आँखें खोल दी। देखा, दोनों बेटियाँ रोते हुए उनके बहते आँसुओं को भी पोंछ रही थीं। एकाएक उन्हें लगा की तृप्ति ही उनके पास खड़ी है। ये दो रूप उसी के तो हैं। सच कहा करती थी कि "मैं आपको छोड़कर कहाँ जाऊँगी?" उन्होंने दोनों बेटियों को गले से लगा लिया। दीवार पर टँगी तृप्ति की तस्वीर मानो मुस्कुरा रही थी।
