स्वाभिमान
स्वाभिमान
सुम्मी से तलाक लेने की प्रक्रिया चल रही थी।लेकिन इन नई परिस्थितियों में रोहन घर की गृहस्थी ठीक तरह से बिठा नहीं पा रहा था। माँ की बीमारी, बच्चों की पढ़ाई सबकुछ सुम्मी अकेले संभाल लिया करती थी।घर की जिम्मेदारियों से रोहन बिलकुल मुक्त था।पैसे कमाने और घर का मुखिया होने का भाव कब अहंकार में बदल गया,रोहन को पता ही ना चला।आए दिन सुम्मी को झिड़कना और अपमानित करना रोहन की आदत ही बन गई थी।ऐसे में जब परिस्तिथियां हद से ज्यादा खराब होने लगी तो सुम्मी ने कोर्ट में तलाक की अर्जी दाखिल कर दी और बच्चों को लेकर अपने पिता के पास रहने चली गई।अब रोहन को समझ आने लगा कि वास्तविक रूप से तो सुम्मी ही घर को संभाल लिया करती थी पर अपने अहम भाव में उसने कभी भी सुम्मी के महत्व को समझा ही नहीं।
घर की बिगड़ी दशा से परेशान होकर वह सुम्मी को वापिस लाने उसके घर जा पहुंचा।"चलो सुम्मी,घर चलो।मेरी गलतियों को माफ कर दो।पूरा घर बिखरा हुआ है तुम्हारे बिना।"रोहन सिर झुकाकर कहने लगा।
"नहीं रोहन,आज नहीं आऊंगी तुम्हारे साथ। क्योंकि तुम यहां मुझे लेने नहीं बल्कि घर की बिगड़ी दशा से परेशान होकर आए हो।जिस दिन सच्चे मन से मेरी कमी महसूस करोगे मैं उसी दिन साथ चलूंगी तुम्हारे। क्योंकि मेरे पिता ने मुझे सदैव रिश्तों को निभाने की शिक्षा दी है,लेकिन अपने स्वाभिमान को बनाए रखते हुए। वैसे भी जिन रिश्तों में स्वार्थ और अहंकार हो तो ऐसे रिश्ते अधिक समय तक टिका नहीं करते।ठीक वैसे ही जैसे रेत पर लिखा कोई नाम।एक लहर आई और सब कुछ समाप्त।"
अबकी बार रोहन की आँखें आंसुओं से नम थीं तो वहीं सुम्मी की आंखों में स्वाभिमान की चमक दिखाई दे रही थी।एक किनारे खड़े सुम्मी के पिता की भी आंखें आंसुओं से भीगी थी पर यह आंसू खुशी के थे, संस्कारों की जीत के थे।