वचन--भाग(१२)
वचन--भाग(१२)
जुम्मन चाचा ऐसे ही अपने तजुर्बों को दिवाकर से बताते चले जा रहे थे और दिवाकर उनकी बातों को चटकारे लेकर के सुन रहा था, ताँगा भी अपनी रफ्त़ार से सड़क पर दौड़ा चला जा रहा था, जुम्मन चाचा एकाएक दुखी होकर बोले___
मियाँ! हमारे दादा परदादा भी रईस हुआ करते थे, मगर जबसे गोरों का इस देश में हुक्म चलने लगा तो धीरे धीरे सब छिनता चला गया और बँटवारे के बाद तो जैसे रोटी के लाले पड़ने लगें, सारी जमापूँजी खत्म होने को थी, तब अब्बाहुजूर ने खेंतों पर एक अस्तबल तैयार करवा लिया, जहाँ तरह तरह के घोड़े थे, उस समय रईस लोग डर्बी खेल के शौकीन हुआ करते थे, इसलिए अब्बाहुजूर का धंधा चल पड़ा लेकिन मेरे और भी बड़े भाई थे, उन्हें ये धंधा पसंद नहीं था, अब्बाहुजूर बूढ़े हो चले थे, उनके बस में अब इतना बड़ा व्यापार सम्भालना ना रह गया था तो उन्होंने घोड़े बहुत ही सस्ते दामों में बेचनें शुरू कर दिए, कुछ ही घोड़े बचाएं और कुछ बघ्घियाँ रख ली जिन्हें वो लोगों को किराए पर देने लगें लेकिन उतना मुनाफ़ा ना हुआ जितना होना चाहिए था, फिर इस सब की फिक्र में अब्बाहुजूर की सेहद ख़राब रहने लगी और एक दिन वो इस दुनिया से रूख़सत हो गए, उनके बाद किसी भी बड़े भाई ने उनके धन्धे को आगे बढ़ाने की तकलीफ़ नहीं उठाई।
लेकिन अम्मीजान का बुझा हुआ चेहरा देखकर, हमें समझ आ गया कि वो क्या चाहतीं हैं, लेकिन हम भी इतनी बघ्घियों की जिम्मेदारी अकेले नहीं सम्भाल सकते थे तो हमने भी कुछ बेंच दीं, फिर धीरे धीरे लोगों का बघ्घियों पर से भी शौक हटता गया क्योंकि उसकी जगह अब मोटरें लेतीं जा रहीं थीं, फिर मजबूर होकर हमने ताँगें रखें और बची हुई बघ्घियाँ भी बिक गईं लेकिन ताँगें चलाने वाले कम थे और टैक्सियाँ चलाने वाले ज्यादा, अब हमारे पास एक दो ताँगें ही हैं, एक हम चलाते हैं और कभी कभार दूसरा भी किराए पर चला जाता है, हमारे इकलौते बेटे को भी ये धंधा अच्छा नहीं लगा और उसने शराब का ठेका ले लिया और उसी दिन हमने उसे अलग घर बसाने के लिए कह दिया, अब एक ताँगा ऐसे ही खड़ा रहता है, बेग़म कई बार कह चुकीं हैं कि दूसरा बेंच तो लेकिन बर्खुरदार हमारा जमीर इस बात की गवाही नहीं देता, ख़ुदा के फ़जल से तीनों बेटियों का निकाह कर चुके हैं, सब खुश हैं अपने परिवार में, घर में मैं और बेगम ही रहते हैं, जुम्मन चाचा बोले।
तभी दिवाकर को एक विचार आया और उसने जुम्मन चाचा से कहा____
जुम्मन चाचा! अगर बुरा ना माने तो एक बात कहूँ।
हाँ, मियाँ! कहो, जुम्मन चाचा बोले।
अगर आपका वो खाली ताँगा मैं चलाने लगूँ तो, दिवाकर ने पूछा।
ना मियाँ! सारंगी बिटिया, ना जाने क्या कहेंगी हमें, जुम्मन चाचा बोले।
वो कुछ ना कहेंगीं, मेरे पास कोई भी काम नहीं अभी, तब तक मैं ताँगा चला लेता हूँ और मैं उनका भाई नहीं किराएदार हूँ, मेरे पास अभी एक भी पैसे नही हैं, दिवाकर बोला।
अच्छा! तो ये बात है, लेकिन मियाँ! तुम तो पढ़े लिखे लगते हो, इस तरह सड़को पर ताँगा चलाते तुम्हें शर्म महसूस ना होगी, जुम्मन चाचा बोले।
शर्म कैसी चाचा! काम कोई भी छोटा बड़ा नहीं होता, बशर्ते जिम्मेदारी और ईमानदारी से किया जाए, दिवाकर बोला।
मियाँ! कह तो तुम सही रहे हो लेकिन एक बार और सोच लो, जुम्मन चाचा बोले।
सोच लिया चाचा! किराए के पैसे भी नहीं हैं चुकाने के लिए, कल माँ जी ने सब्जी लाने को कहा था तो उन्हीं ने पैसे दिए, बहुत शर्म महसूस हुई थी, दिवाकर बोला।
तो मियाँ! हमें तो कोई एतराज़ नहीं हैं, आप कल से ये काम शुरू कर सकते हैं, चलिए आपको अपना गरीबखाना दिखा देते हैं, कल आकर ताँगा ले जाइएगा और आपको घोड़ी के बारें में हिदायतें भी दे देते हैं कि उसे कब खाने को देना है, कब पानी देना है, जुम्मन चाचा बोले।
ठीक है तो चलिए, इसी बहाने चाचीजान से भी मुलाकात हो जाएगी, दिवाकर बोला।
दिवाकर, जुम्मन चाचा के घर पहुँच गया और घोड़ी और ताँगे के बारें में भी सब जान लिया, चाचीजान से भी मुलाकात करके घर लौट आया क्योंकि जुम्मन चाचा का घर सारंगी के घर से नज़दीक था।
घर का दरवाज़ा खटखटाया, सारंगी ने दरवाज़ा खोला, तब तक सारंगी भी घर लौट आई थी उस औरत से मुलाकात करके, दिवाकर को खुश देखकर पूछ ही बैठी___
क्या बात है? बड़े खुश नज़र आ रहे हो।
हाँ, दीदी! काम जो मिल गया है, दिवाकर बोला।
अच्छा! तब तो बहुत बढ़िया हुआ, क्या काम है और कौन सी जगह ? सारंगी ने पूछा।
जी, जुम्मन चाचा का दूसरा ताँगा खाली पड़ा था तो उसे चलाने के लिए उन्होंने इजाजत दे दी हैं, दिवाकर बोला।
तुम्हारा दिमाग़ खराब हो गया, ताँगा चलाओगे, तुम्हारे घरवालों को पता चलेगा तो कैसा लगेगा उन्हें? सारंगी बोली।
क्या बुराई है ताँगा चलाने में? मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं है, कहाँ से लाऊँ पैसे? नौकरी भी इतनी जल्दी मिलने वाली नहीं है, पढ़ाई जो अधूरी छोड़ दी, मेरी अय्याशियों ने मेरी जिन्दगी बर्बाद कर दी, घरवालों को भी धोखे में रखा, देवता समान बड़े भाई को धोखा दिया, अब इतनी भी हिम्मत नहीं रह गई मुझमें कि मैं उनसे आँखें मिला सकूँ, दिवाकर ये कहते कहते रो पड़ा।
रहने दे ना बिटिया! किसी के जख्मों को नहीं कुरेदा करते, कर गया होगा नादानी में गलती , अब उसका पश्चाताप करना चाहता है तो करने दे ना! मैं और तुम कौन होते है उसे रास्ता दिखाने वाले, अब वो खुद ही सुधरना चाहता है तो सुधरने दे, अनुसुइया जी बोलीं।
ठीक है, लेकिन बहुत मेहनत का काम है और इन जनाब की शकल से तो नहीं लगता कि इन्होंने कभी भी मेहनत की है, सारंगी बोली।
अच्छा! चल छोड़ बिटिया! जा दिवाकर बेटा! हाथ मुँह धो ले, जब तक मैं सबके लिए चाय लाती हूँ, अनुसुइया जी बोलीं।
सबने बैठकर चाय पी फिर शाम गहराने चली तो अनुसुइया जी ने मिट्टी का चूल्हा जलाकर अरहर की दाल चढ़ा दी____
माँ !क्या बना रही हो खाने में, सारंगी ने पूछा।
अरहर की दाल चढ़ा दी हैं, सोचती हूँ कि भरवाँ बैंगन और बना दूँ, अनुसुइया जी बोलीं।
ठीक है माँ! मैं अभी भरवाँ बैंगन के लिए सिलबट्टे पर मसाला पीस देती हूँ, सारंगी बोली।
ठीक है बिटिया! लेकिन पहले क्यारी से तोड़ी हरी धनिया और मिर्च तोड़कर लहसुन की चटनी पीस ले फिर मसाला पीस दे, अनुसुइया जी बोलीं।
ठीक है माँ! अभी पीस देती हूँ सारंगी बोली।
अरे वाह... माँ जी! भरवाँ बैंगन, अपने कमरे से आते हुए दिवाकर ने कहा।
तुम्हें पसंद हैं, अनुसुइया जी ने पूछा।
हाँ , माँ जी! मेरी माँ बनाया करती थीं और बिन्दू भी, दिवाकर बोला।
ये बिन्दू कौन है, सारंगी ने पूछा।
मेरे पड़ोस वाले काका की बेटी, दिवाकर बोला।
अच्छा... अच्छा... लगता है तुम्हें गाँव की बहुत याद आती है, वैसे तुम्हारे गाँव का नाम क्या है? सारंगी ने पूछा।
जी दीदी! चंपानगर, दिवाकर ने उत्तर दिया।
क्या कहा? चंपानगर! मैं तो वहाँ गई हूँ, मेरे बुआ-फूफा जी का गाँव है, वो वहाँ के जमींदार हैं, सारंगी बोली।
अच्छा! ये तो बहुत अच्छी बात है कि आप मेरे गाँव जा चुकीं हैं, दिवाकर बोला।
अच्छा! ये बताओ, क्या तुम प्रभाकर बाबू को जानते हो? जो गाँव में पंसारी हैं, बहुत बड़ी दुकान है उनकी, बहुत ईमानदारी से काम करते हैं, कभी एक पैसा फालतू नहीं लेते, सारंगी बोली।
जी, जानता तो हूँ, क्या आप मिली हैं उनसे, दिवाकर ने पूछा।
हाँ, पहली बार मेरी मुलाकात उनसे रेलगाड़ी में हुई थी, तब मुझे लगा कि बहुत ही रूखे व्यवहार के व्यक्ति हैं लेकिन उस समय वो किसी बात को लेकर बहुत परेशान थे, फिर एक दो बार गाँव में मुलाकात हुई, लेकिन अभी कल शाम को उनसे मेरी मुलाकात नारायण मंदिर में हुई, उन्होंने कहा कि वो कुछ दिनों से नारायण मंदिर की धर्मशाला में रह रहे हैं लेकिन वजह नहीं बताई, सारंगी बोली।
अच्छा !तो वो अब शहर आ गए हैं, दिवाकर बोला।
अच्छा, बिटिया! तुम दोनों की बातें खतम हो गईं हों तो झटपट मसाला पीस दे, दाल बस होने वाली है और अँधेरा भी तो हो चला है, अनुसुइया जी बोलीं।
ठीक है माँ! मैं तो भूल ही गई और सारंगी फौरन चटनी और मसाला पीसने में लग गई, दिवाकर अब कुछ देर अकेले रहना चाहता था, इसलिए अपने कमरे में चला गया और बिस्तर पर लेटकर अपने मन में सोचने लगा कि भइया दुकानदारी छोड़कर केवल मेरे लिए मुझे ढ़ूढ़ते हुए शहर आ पहुँचे, मैनें उनका कितना अपमान किया, आज तक कोई परवाह नहीं की और वो मेरी कितनी चिंता करते हैं, अब मैं उनसे किस मुँह से माफ़ी माँगने जाऊँ और यही सोचते सोचते दिवाकर की आँखों की कोरे गीलीं हो गईं।
तभी अनुसुइया जी ने दिवाकर को पुकारा___
बेटा! दिवाकर जरा इधर तो आ।
अभी आया माँ जी! दिवाकर इतना कहकर बाहर पहुँचा और अनुसुइया जी से पूछा__
जी माँ जी! कहिए, क्या बात है? दिवाकर ने पूछा।
कुछ नहीं बेटा! बस वो घी का मर्तबान, सबसे ऊपर वाली अलमारी में रखा है, लगता है रखते हुए, थोड़ा पीछे की ओर खिसक, हम दोनों का हाथ नहीं पहुँच रहा, जरा निकाल देना, अनुसुइया जी बोलीं।
जी माँ जी! बताइए तो कहाँ रखा है, दिवाकर ने पूछा।
और अनुसुइया जी, दिवाकर को भण्डार गृह में लें गईं, दिवाकर ने घी का मर्तबान निकाल दिया और बाहर आँगन में आकर गुमसुम सा बैठ गया।
अनुसुइया जी ने कुछ देर में ही दाल में देशी घी का तड़का लगाया, भरवाँ बैंगन तैयार किए और दोनों की थाली लगाकर , गरमागरम चूल्हे की सिकीं रोटी में देशी की चुपड़ कर परोस कर बोलीं, चलो भाई दोनों खाना खाने बैठो।
और दोनों खाना खाने बैठ गए, तभी सारंगी बोली___
क्या हुआ दिवाकर? देख रहीं हूँ, जब से गाँव के बारे में बताया है, थोड़े परेशान नज़र रहे हो।
ना दीदी! ऐसा कुछ नहीं है, इतना कहकर दिवाकर चुपचाप खाना खाने लगा, खाना खाकर बिस्तर पर लेटकर सोचने लगा कि क्यों ना मैं कल भइया से मिलने धर्मशाला चला जाऊँ, लेकिन क्या भइया मुझे माफ़ करेंगे?
और अगर मुझसे खफ़ा होते तो शहर क्यों चले आते, सब कुछ छेड़छाड़ कर, इसका मतलब है कि उन्होंने मुझे माफ़ कर दिया, तभी तो शहर आएं, तो कल भइया से मिल ही आता हूँ, दिवाकर यही सोचते सोचते सो गया।
सुबह हुई, आज दिवाकर जल्दी उठा, उसने ही आज सबके लिए चाय बनाई और सबके लिए हलवा बनाया फिर तैयार होकर नाश्ता किया, अनुसुइया जी और सारंगी से आशीर्वाद लेकर जुम्मन चाचा के यहाँ पहुँच गया और ताँगा लेकर जुम्मन चाचा से इजाजत लेकर निकल पड़ा, शहर की ओर ताँगा लेकर।
दिन भर उसने शहर में बहुत सी सवारिओं को मंजिल तक पहुँचाया और काफी कमाई भी कर ली, अब उसने सोचा कि भइया से मिलकर आता हूँ और वो धर्मशाला की ओर प्रभाकर से मिलने चल पड़ा, धर्मशाला पहुँचकर उसने लोगों से पूछा कि प्रभाकर कहाँ रहता है?
वहाँ मौजूद लोगों ने बता भी दिया कि वो इस कमरें में रहता हैं, दिवाकर बहुत देर तक प्रभाकर का इंतज़ार करता रहा लेकिन आज प्रभाकर को सराफा बाजार से लौटने में देर हो गई थीं, दुकान में सेठ जी ने कह दिया कि मुनीम जी, आज महीने का आखिरी दिन है सारा हिसाब किताब जोड़कर जाइए, इसलिए प्रभाकर को दुकान से आने में देरी हो गई।
उधर दिवाकर को भी घर जाने में देरी हो रही थी, उसे लगा रहा था कि माँ जी और दीदी उसका इंतजार कर रहीं होगी, आज पहला दिन है तो और चिंता में होगी, मैं अब और नहीं रूक सकता, कल फिर से आ जाऊँगा और धर्मशाला के एक व्यक्ति को अपना संदेशा देकर वो घर चला आया।
उधर प्रभाकर जब दुकान से लौटा तो उस व्यक्ति ने कहा कि कोई आपसे मिलने आया था, आपने आज देर कर दी, आपका इंतज़ार करते करते चला गया।
प्रभाकर ने उस व्यक्ति से पूछा कि___
कौन था वो, उसने अपना कोई नाम पता बताया।
जी हाँ, कह रहा था कि उसका नाम दिवाकर है लेकिन पता नहीं बताया, उस व्यक्ति ने उत्तर दिया।
