वैजन्ती
वैजन्ती
ससुराल में अगली ही सुबह साड़ी कही उलझे नहीं, आँचल माथे से ढलके नहीं, पता नहीं चाय कैसी बनी है, इन्हीं सारे गहनतम नवेले प्रश्नों के साथ चाय की ट्रे लिए वैजन्ती पहली बार बाऊजी के सामने पहुँच गई। मुस्करा कर बाऊजी ने उसे सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया, बैजन्ती ट्रे मेज पर रख सकुचाई खड़ी रह गई।उसके संकोच को भांप बाऊजी पास आ कर बोले-
"मेरी बच्ची, तू मेरी बहू नहीं बेटी है, माय फ्लेस ,माय बोन....
बिटिया, कभी घबराना नहीं, ये जीवन है, ऊंच -नीच तो होगी, मैं हूँ,अब तुम्हारा बाप।
प्रेम के ये बोल सारे भय, संकोच, अपरिचय के बोध को बहा ले गये। बैजन्ती ऐसा नेह पाकर भावुक हो रो पड़ी।
बीतते रहे साल दर साल गृहस्थी के जीवन राग की उखड़खाबड़ राहों में वैजन्ती ने बाऊजी को हमेशा अपने साथ खड़ा पाया। विभोर के बाद विराज के भी अमेरिका जाने का विरोध करती वैजन्ती को बाऊजी ही समझा पाये थे।
दवा खा लेने के बाद भी दवा लेकर खाना, चाय, ब्रेकफास्ट फिर से मांगना, ऐसे ही कितने काम, सभी झल्लाते रहे, किसी को भनक न लगी कब बाऊजी एल्जाइमर की गिरफ्त में आ गये।
एक और प्रहार विधाता का, याददाश्त के साथ ही धाराप्रवाह बोलने वाले की वाणी भी नहीं रही, कभी -कभार एकाध शब्द वरना सब कुछ इशारे से कहने लगे। डॉक्टर भी उम्र का ही हिसाब बताते। विवशता दोनों तरफ थी।
शारीरिक क्षीणता, भूलने और न बोल पाने की विवशता से उनके कपड़े खराब होने लगे।
वैजन्ती उन्हें पैड बांधती, गद्दियां बिछाती, उनका मल-मूत्र सब कुछ साफ करती, जैसे उसने विराज और विभोर का किया था।
वैजन्ती को आज बहुत बेचैन लगे बाऊजी, उसने माथा सहलाया, गाल सहलाया और भींच लिया उन्हें कसकर।
बाऊजी मैं माँ हूँ आपकी, आप मेरे बच्चे हो...
माय फ्लेस, माय बोन,याद है न आपने ही कहा था....
बाऊजी वैजन्ती की गोद में अबोध बालक से दंत -विहीन, पोपला मुँह फैला कर हँस रहे थे।
आज बेटी माँ बन गई थी।।
