Sharad Kumar

Drama

4.3  

Sharad Kumar

Drama

वानप्रस्थ

वानप्रस्थ

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"और जीवन के तीसरे चरण को वानप्रस्थ कहते थे "- इस तरह से हरिलाल बच्चों को जिंदगी के चारों चरण के बारे में समझाते जा रहे हैं। बाहर पेड़ पे बैठी कोयल कुहू कुहू कर रही है। हरिलाल हिंदी के मास्टर थे और कक्षा ८ से १० तक के बच्चों को हिंदी पढ़ाते थे। हरिलाल ५६वां सावन का पड़ाव पार कर चुके हैं, गंभीरता की शिकन उनके चेहरे साफ़ झलकती थी, लेकिन साथ ही साथ संतुष्टि का एहसास भी दिखाई देता है। पहनावे में सफ़ेद धोती कुर्ता और भूरे रंग की सदरी। चमड़े का जूता चलने पे चर्र चर्र करता था। साढ़े पांच फुट की लम्बाई होगी। चेहरे का गोरा रंग और आँखों की रौशनी अभी भी बरकरार थी । उनका स्कूल गांव से यही कोई ३-४ मील की दूरी पर होगा। साइकिल से ही आना जाना होता था। उनका व्यक्तित्व शांत प्रकृति वाला था, और शायद इसीलिए वो चिंता और चिंतन दोनों करते थे। अपने शिष्यों को सही राह दिखाना, उनका पहला धर्म था । जब वो अपना विषय पढ़ाते थे तो एक एक लाइन को स्पष्ट करते थे। आज भी वो कुछ वैसा ही कर रहे थे। कोई हिंदी का अध्याय रहा होगा वहां पे जीवन के चारों चरणों की बात लिखी गयी थी, बस वही समझा रहे थे। तभी दयाशंकर ने हाथ उठा कर एक सवाल पूछ दिया -" मास्टर जी क्या हम लोग आज भी वानप्रस्थ या संन्यास जाते हैं ?" मास्टर जी ने उसे समझाते हुए बताया की ये सब प्राचीन काल की व्यवस्था थी जो आज हम भूल चुके हैं या फिर महत्व नहीं देते, क्योंकि हम अपनों से दूर नहीं होना चाहते। आगे दयाशंकर के प्रश्नों का उत्तर देते हुए वो कहते हैं की प्राचीन काल की समाज व्यवस्था काफी सोच समझ कर बनायी गयी थी, जिसमे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास जैसे चरणों का अपना महत्व था। हर चरण में मानव के लिए क्या जरूरी है जिससे की उसका मानसिक और शारीरिक विकास हो , इनको ध्यान में रखकर ही ये चारों आश्रम बनाये गए थे।

इस तरह से अपनी बात स्पष्ट करते हुए एक लम्बा चौड़ा उपदेश दे डालते हैं। "क्या आज हमे वो व्यवस्था के अनुसार ही चलना चाहिए?"- बड़े ही कौतूहल से दयाशंकर ने ये सवाल पूछा। एक यही सवाल जो हर साल मास्टर जी के सामने आ के खड़ा हो जाता था। मास्टर जी ने हामी भरते हुए समझाया की यही होना चाहिए। एक वक़्त के बाद हमें भी मोह माया का साथ छोड़कर वानप्रस्थ और फिर संन्यास ले लेना चाहिए क्योंकि ये रिश्ते नाते सभी नस्वर हैं, आज नहीं तो कल। हरिलाल अपनी कक्षा समाप्त करते हैं तभी स्कूल की छुट्टी हो जाती है। अपनी साइकिल को उठा कर गांव की तरफ रुख करते हैं। साइकिल की छांव में बैठा कुत्ता उठ कर चल देता है, जैसे उसे कोई काम याद आ गया हो। मास्टर जी की साइकिल उन्ही की तरह काफी मेहनती है। २४ इंच वाली, मजबूत लोहे की बनी साइकिल। रोज़मर्रा के बोझ को उठाने में मास्टर जी का इसने भी एक जीवन संगिनी जैसा योगदान दिया है। ये जो जंग है लोहे पे लगी हुई ये गुजरते हुए वक़्त को बयान करती है, और जो पैंडिल की चुरचुराहट है वो साइकिल की उम्र को। वो तो आगे बढ़ चले थे लेकिन उनका मन उसी दयाशंकर की बातों में अटक गया था। "क्या आज हमे वो व्यवस्था के अनुसार ही चलना चाहिए ?" पहले भी किसी न किसी ने ये सवाल पूछा था। मास्टर जी ने ये तो कह दिया दयाशंकर से की हमें भी ऐसा ही करना चाहिए क्योंकि प्राचीन काल में होता था लेकिन अब वो सोच रहे हैं की क्या उनका कहना सही था। इस समय मास्टर जी चिंतन कर रहे थे। अपने मन में ही सवाल जवाब कर रहे थे। शायद हमे उसका पालन करना चाहिए। क्या अपनों को ऐसे ही छोड़ के चल देना सही है ? हमारे बच्चों को हमारी जरूरत है, फिर अपने पोतों को हमारी जरूरत होगी। हमारे जाने के बाद, अगर उन पर कोई विपत्ति आयी तो कौन संभालेगा ? उनको उतना अनुभव नहीं है जितना की हमको है। अगर ऐसा होने लगे तो समाज का एक बहुत बड़ा और अनुभवी हिस्सा अपने आने वाली पीढ़ी से दूर हो जाएगा और फिर वो सारे ज्ञान, वो सारे अनुभव एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को कैसे पहुँच पाएंगे? अगर इंसान इस संसार में जन्मा है तो कर्म करने के लिए। और कर्म है तो फल भी है।

तभी एक आवाज़ ने उनका ध्यान भंग कर दिया। "अरे मास्टर जी, आइये फल लेते जाइये।" मास्टर जी जैसे नींद के जड़त्व में बहे जा रहे थे की फिर वही आवाज़ सुनाई दी "अरे मास्टर जी अनार लेते जाइये " मास्टर जी का चिंतन भंग हुआ, देखा तो नरेंदर जो की फल बेचता है मास्टर जी को आवाज़ दे रहा था। असल में मास्टर जी रोज़ स्कूल से आते समय यहीं से फल लिया करते थे और अगर कभी वो भूल भी जाते तो नरेंदर चिल्ला कर उन्हें बुला लेता था। मास्टर जी साइकिल से उतरे और ठेले के पास आ गए। "लगता है मास्टर साहब बड़ी चिंता में डूबे हैं?" -नरेंदर ने मुस्कुराते हुए पूछा। "अरे नहीं बस ऐसे ही थोड़ा चिंतन कर रहा था।"- मास्टर जी ने भी मुस्कुरा के जवाब दिया। " आज फिर भूल गया, अच्छा हुआ तुमने आवाज़ दे दी, और अनार अच्छे हैं ? " क्या दाम है भाई ? "वही पहले वाला जो आप सोमवार को ले गए थे" आधा किलो तौल दो। फिर दुकानदार ने आधा किलो अनार तौल दिया। उसने तराजू हरिलाल के सामने रख दिया। मास्टर जी ने उसमे से एक अनार चुन के निकाला और उसे काटने को कहा। नरेंदर ने अनार काटा। अनार अच्छा था तो फिर मास्टर जी ने अपने झोले में डाला , और ३० रूपए दिए और साइकिल पे चढ़ कर आगे बढ़ चले ।असल में ये मास्टर जी की आदत थी की जब भी किसी से वो कभी फल खरीदते थे तो उन खरीदे हुए फलों से अपनी पसंद का एक फल निकाल के उसे कटवाते थे, अपनी संतुष्टि के लिए केवल। अगर वो फल सही निकल गया तो वो फल ख़रीद लेते थे और अगर वो काटा हुआ फल खराब निकल गया तो उस कटे हुए फल का पैसा देकर बिना खरीदे हुए वापस चले आते थे, केवल वो काटा हुआ फल लेकर। इससे उस दुकानवाले को कटे हुए फल का नुकसान भी नहीं होता था। ये बात नरेंदर जानता था इसीलिए तराजू उनके सामने रख दिया था। फिर मास्टर जी ने झोला साइकिल के आगे टांगा और साइकिल घूमा के फिर से चल दिए।

सामान्य दिनों के मुक़ाबले आज वो थोड़ा धीरे जा रहे थे। उनके दिमाग पे फिर से वही वानप्रस्थ, संन्यास की बातें घूमने लगीं। मास्टर जी का दिमाग, उनका पैर और उनकी साइकिल तीनों ही चिंतन कर रहे थे क्योंकि तीनों की चाल धीमी थी। “लेकिन अगर फल है तो फिर से कर्म करना होगा उस फल को भोगने के लिए” उनके मुँह से अकस्मात् ही शब्द फूट पड़े, और कर्म तो मोह माया से लिपटा होता है। फिर ये नियम क्यों बनाये गए थे वानप्रस्थ के लिए? धर्मशास्त्र में लिखा गया है की ये चारों आश्रम मनुष्य की प्रगति के लिए बनाये गए थे। ब्रह्मचर्य को सीखने का समय, गृहस्थ को कार्य करने का दौर एक ग्रहस्थी के रूप में, वानप्रस्थ को फिर एकांत वास का समय जब सामाजिक रिश्तों को ढीला छोड़ा जाता है और अंत में संन्यास, या फिर त्याग का समय बताया गया है।

जहाँ तक मैं जानता हूँ पहला आश्रम था, “ब्रह्मचर्य” - विद्यार्थी जीवन। जो इस आश्रम में होते थे उन्हें ब्रह्मचारी कहा जाता था, "वो जिनका आचरण दैवीय होता था।" यह सामान्यतया बारह वर्ष का समय होता था जो ७ या ८ से १९ या २० की आयु तक का होता था। विद्यार्थी अपने गुरु से शास्त्र , दर्शन, विज्ञान और तर्क सीखते थे। ब्रह्मचारियों से यह भी उम्मीद की जाती थी कि वे एक सख़्त अनुशासन का पालन करेंगे जिसमे ब्रह्मचर्य, सत्य बोलना, शारीरिक तप जैसे कि ठन्डे पानी में स्नान एवं रात को कम खाना शामिल है…. खाना ....अरे हाँ खाने से याद आया दाल खत्म हो गयी है। किशन की माँ ने कहा था की दाल लेते आना। अच्छा हुआ याद आ गया नहीं तो चार बातें सुनाती। चलो भाई ईश्वरचंद का दुकान भी आ गया है, चल के दाल ले लिया जाए। ईश्वरचंद से मोलभाव करके २ किलो दाल ख़रीद लेते हैं। ईश्वरचंद का नाती आया हुआ था। बड़ा ही प्यारा बच्चा है।" किस कक्षा में हो बेटा?" मास्टर जी बड़े ही लाड से पूछते हैं। वो शर्माते हुए बताता है "तीसरी में" फिर मास्टर जी शाबाश बोलते हुए दाल को झोले में डाल कर चल देते हैं। तीसरी कक्षा से उन्हें याद आया की तीसरी अवस्था को “वानप्रस्थ” कहते थे। साधुत्व का जीवन- एवं जो इस आश्रम में थे वे वानप्रस्थी कहलाते थे, "जंगल में रहने वाले", ५० से ५५ की उनकी आयु होती थी। शास्त्रों में लिखा है की ग्रहस्थी को परिवार की जिम्मेदारियां बच्चों को सौंप कर जंगल की तरफ प्रस्थान करना चाहिए। उसे अपनी पत्नी को भी साथ ले जाना चाहिए अगर वो तपस्वी जीवन में उसका साथ देना चाहती हो। वैसे वो अपने बेटों के पास भी रुक सकती है। वानप्रस्थी अपना समय भगवान के चिंतन की ओर समर्पित करता था। यह सब कुछ इसलिए ताकि जीवन के अंतिम चरण के लिए अपने को तैयार कर सके।

और “सन्यासी” अर्थात त्यागी का जीवन। इस अवस्था में वह एक जगह से दूसरी जगह घूमता था, भोजन की भिक्षा मांग के, अपने को जप की ओर समर्पित करके, ध्यान और ईश्वर की पूजा करके स्वर्ग सवारते थे ।

 

खैर घर काफी जल्दी आ गया, पता नहीं चला की रास्ता कैसे कट गया। मास्टर जी अपने घर के बगीचे तक पहुंच गए थे, साइकिल से उतर कर साइकिल वहीँ खड़ी कर देते हैं। पास में खड़ी गाय की पीठ पे हाथ फेरते हैं। घर का दरवाज़ा दिन भर खुला रहता था। फिर वो खटिया बिछा कर बैठ जाते हैं। घर के अंदर से घरवाली पानी लेकर आती हैं। पानी देते हुए पूछा " ईस्वर के यहाँ गए थे?" मास्टर जी को आश्चर्य हुआ की इसे कैसे पता की मैं ईश्वर के बारे में सोच रहा हूँ। तभी उन्हें याद आया की उनकी घरवाली ईश्वरचंद को ईस्वर कह के पुकारती है। “हाँ दाल ले आया हूँ ।“ किशन की माँ झोला लेकर अंदर जाती हैं। आज मास्टर जी कुछ ज्यादा ही थका हुआ हुआ महसूस कर रहे थे। ये थकावट थी उम्र का ५६ वा पड़ाव पार करने की या फिर दिमाग में चल रहे उस उथल पुथल की। जूता उतार कर वहीँ बाहर खटिये पे लेट जाते हैं । मास्टर जी का लड़का किशन घर से ५-६ मील दूर स्थित पुस्तकालय के प्रबंधन में काम करता था । शाम साढ़े ५ बजे तक घर पहुँचता था। मास्टर जी के घर में एक भैंस भी थी, जिसको बुधनी कह के बुलाते थे क्योंकि वो बुधवार को पैदा हुई थी । खटिया पे सोए सोए आकाश की तरफ देखते हैं। आकाश एकदम साफ़ था। सूर्यास्त होने को चला था। पंछियों का झुण्ड अपने घर की तरफ लौट रहा था । किशन भी कुछ देर बाद आता है। आकर अपने पिता के पैरो के पास ही उसी खटिया पर बैठ जाता है। किशन ने भी तीसवां सावन देख लिया था। शादी हो चुकी थी फिर भी अपने पिता का आज्ञाकारी बेटा था। पिता की आज्ञा को कभी भी नज़रअंदाज़ नहीं करता था। मास्टर जी भी उस पर जान छिड़कते थे। शादी के ६ साल हो गए थे लेकिन कोई बच्चा नहीं हुआ था। इस बात की चिंता माँ बाप दोनों को होती रहती थी। लेकिन सोचते थे जब भगवान की इच्छा होगी तब मिल जाएगा। पत्नी मायके गयी हुई थी। फिर वही रोज़ की तरह ही ७-८ बजे तक खाना खा पी कर मास्टर जी किशन के साथ घर के बरामदे में अपनी अपनी खटिये पर लेट जाते हैं। मास्टर जी के दिमाग में तो वही वानप्रस्थ और संन्यास की बातें चल रही थीं। वे किशन से भी जीवन के चारों आश्रमों के बारे में वार्तालाप करते हैं। वो उससे ये भी कहते हैं की अगर उसके पुस्तकालय में कोई किताब हो इससे सम्बंधित तो ले आये। अगले दिन फिर वो अपने अपने काम पे निकल जातें हैं । सौभाग्य से किशन को प्राचीन सभ्यताओं पे आधारित १-२ किताबें मिल जाती हैं सो वो लाकर अपने पिता को दे देता है। मास्टर जी उसको गहराई से पढ़ने लगते हैं। वानप्रस्थ हिंदू धार्मिक संस्कारों में चौदहवां संस्कार है। वानप्रस्थ वह अवस्था है जिसमें मनुष्य पारिवारिक दायित्वों से मुक्त होकर अपने जीवन को समाज के प्रति समर्पित करने का संकल्प लेता है। इसमें व्यक्ति अपने अनुभवों से समाज कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। किताबों में ये बताया गया है की अपने से तीसरी पीढ़ी यानि दादा बनने के पश्चात व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है। ऐसे में वह अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को ज्येष्ठ पुत्र या परिवार के योग्य व्यक्तियों के हाथ में थमाकर अपने आप को समाज कल्याण के कार्यों में समर्पित कर सकता है। मनुस्मृति भी कहती है कि,

महार्षिपितृदेवानां गत्वाड्ड्नृण्यं यथाविधि:।

पुत्रे सर्वं समासज्य वसेन्माध्यस्थमाश्रित:।।

अर्थात “उम्र के ढलने के साथ ही पुत्र को गृहस्थी का दायित्व सौंप वानप्रस्थ ग्रहण करें एवं देव पितृ व ऋषि ऋण से मुक्ति पायें।“

कहीं कहीं वानप्रस्थ की संस्कार विधि भी बताई गयी थी। कहीं कहीं पे संन्यास के बारे में भी लिखा हुआ था जैसे संन्यास का मतलब है, निस्संगता, निर्लिप्तता, अनासक्ति आदि। इस भाव का सार्थक व सप्रयास तथा सजग प्रयोग तनावमुक्ति लाता है, मानसिक उद्विग्नता के ताप को शमन करने का साधन बनता है और दैनिक जीवन की परेशानियां सहन करने की शक्ति प्रदान करता है। सन्यासी जीवन बेहद कठिन है, जिसमें कठिन तप से गुजरना पड़ता है। सेवा भाव, ध्यान के प्रति समर्पण, मोक्ष की कामना और शून्यता की ओर लगातार अग्रसर होना सन्यासी की दिनचर्या में शामिल होते हैं। सन्यास का मार्ग कठिन होता है। यहां बहुत से नियमों का पालन करना होता है। ब्रह्मचर्य का पालन, सेवा भाव, वस्त्रों का त्याग, एक समय भोजन, पृथ्वी पर सोना, बस्ती के बाहर निवास, भीक्षा मांगकर भोजन, अधिकतम सात घर में भीक्षा और कुछ न मिलने पर भूखे सोना आदि….। मास्टर जी ने बारी बारी से १-२ दिन में सारी किताबें पढ़ डाली । मास्टर जी की गंभीरता को और जैसे गहराई मिल गयी हो । अब तो मास्टर जी के चिंतन में वानप्रस्थ का समावेश होने लगा था क्योंकि उनकी उम्र जीवन के इसी चरण को व्यक्त करती थी । इन बातों का ऐसा असर हुआ मास्टर जी पे की सोते, जागते, उठते, बैठते हर समय इसी पे चिंतन करते रहते क्योंकि ये संस्कार की बातें पुराने लोग लिख कर चले गए थे और मास्टर जी को पूरा विश्वास था की वो लोग बिना किसी कारण के बस यु ही नहीं लिख गए । इन बातों का अपना गहरा और गूढ़ महत्व होगा । कभी कभी तो मास्टर जी अपने में ही बड़बड़ाने लगते । लेकिन उन्हें अभी भी संदेह था की क्या आज के जमाने में ये वानप्रस्थ सही है ? क्योंकि इसके रास्ते कठिन हैं । कठिन इसलिए की हमें आदत हो गयी है ऐशो-आराम की । हमें आदत हो गयी है अपनी रोज की जिंदगी को रोज के रोज दोहराने की । वही सबेरे उठना, वही खाना खा कर अपने रोज़मर्रा के कामो में लग जाना, कुछ जानकार, तो कुछ अनजान चेहरों से मिलना , वही घर वापस लौटना, फिर खाना खाना , वही सब के पास बैठना और फिर से सो जाना । यही एक दिन वाली ज़िंदगी रोजाना अपने आप को हर दिन दोहराती है । असल में हमारा क्ष्रेत्र ही बांध कर रह गया है। और वही हमारी आदतें भी हम पर बोझ बन गयी हैं जैसे भूख को अन्न की आदत लग गयी है, प्यास को पानी की आदत, कानों को अपने बारे में अच्छा सुनाने की आदत, मित्रों के साथ बैठने की आदत, रात में सोने की आदत, साफ़ सुथरे कपडे पहनने की आदत और अपनों के साथ रहने की आदत या यूँ कह लें की ये आदतें ही हमारी जरूरत बन गयीं हैं। ये आदतें ऐसी ही चलती रहेंगी जब तक की हम ये देह नहीं त्यागेंगे । सारी मोह माया इसी देह, शरीर की वजह से है ,क्योंकि इसी शरीर की वजह से हमारा अस्तित्व है, लोग हमें देख पाते हैं, हमसे बाते कर पाते हैं, हमें सहानुभूति दे पाते हैं , इसी शरीर की वजह से सारे रिश्ते हैं, नाते हैं, हमारी सारी आदतें इसी की वजह से हैं,और सारी मजबूरियां भी । शरीर नहीं तो कौन किसके बारे में सोचता है, जो दीखता नहीं उसकी चिंता कौन करता है। यानि शरीर ही सारे दुखों का कारण है । और इसीलिए शायद पुराणों में इस शरीर से मोह नहीं करने को बताया गया होगा और यही वानप्रस्थ या संन्यास का महत्वपूर्ण उद्देश्य होगा । क्योंकि परमात्मा तभी मिलेंगे जब अपने “मैं” का मोह छूटेगा ।

मास्टर जी को शायद अपने प्रश्नों का उत्तर मिलने लगा था। ये चिंतन के बादल जो घुमड़ घुमड़ कर मास्टर जी के दिमाग पर छा रहे थे, अब छटने लगे थे और इसकी जगह चिंताओं की बारिश होनी शुरू हो गयी थी। इसका मतलब वानप्रस्थ आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की पहले था । यानी आज भी लोगों को वानप्रस्थ जाना चाहिए । यानी मुझे भी वानप्रस्थ के लिए सोचना चाहिए? एक डर भी बैठ गया और… एक चिंता भी। मास्टर जी को लगने लगा था की अब उनकी दिशा ठीक हो रही है । अब वो सही दिशा में सोच रहे हैं । उन्होंने बहुत से सवाल जवाब खुद से ही कर डाले और एक दिन उन्हें वानप्रस्थ ही सही लगने लगा, क्योंकि किताबों के तर्क के आगे उनके सवाल नहीं टिक पा रहे थे। उन्हें भी कहीं न कहीं वानप्रस्थ एकदम सही लगने लगा था । वे अपने मित्रों के यहाँ भी जाया करते थे, कभी कभी किसी के दाह-संस्कार में भी उपस्थित रहते थे , मोहल्ले के परिवारों के झगड़े भी देखते थे , उन्हें लगता था की कौन यहाँ खुश है, और जो खुश है वो भी कुछ समय के लिए ही । हम बस यूँ ही अपनों और दूसरों में उलझे रहते हैं, और यही मोह, हमारे रास्ते का रोड़ा बन जाता है । ये तो तय की हर कोई को यहाँ से एक न एक दिन जाना है , तो फिर ये व्यर्थ के रिश्ते क्यों? ये व्यर्थ के नाते क्यों? ये व्यर्थ का लगाव क्यों?... अब से ही , देर से ही सही लेकिन मुझे तो इस संसार की सच्चाई साफ़ दिख रही है , मुझे तो अपनी सच्चाई भी साफ़ दिख रही है । जितने रिश्ते हम बनाते जाते हैं ये मोह माया की डोर उतनी ही मजबूत होती जाती है, और अंत समय में यही डोर हमें भी और अपनों को भी दुःख देती है । नहीं नहीं इस बंधन से मुक्त होना पड़ेगा, इस मोह माया से बचना पड़ेगा, और इसका एक ही रास्ता है " वानप्रस्थ " और इसके जरिये अपने आपको धीरे धीरे करके समाज से दूर करना होगा और फिर अंत में संन्यास। “मुझे वानप्रस्थ लेना होगा , हाँ यही सही होगा” । अंततः मास्टर जी ने वानप्रस्थ जाने का इरादा बना ही लिया । मास्टर जी ने ये फैसला बस यूँ ही नहीं ले लिया बल्कि ये खिचड़ी उनके दिमाग में तब से पल रही थी जब से दयाशंकर ने वो सवाल पूछ लिया था । आज २२ दिन हो गए उस सवाल को, और शायद आज उन्हें सही उत्तर का आभास हुआ । मन में एक डर था की ये समाज, उनके सगे सम्बन्धी, उनके स्कूल के लोग, उनके पास-पड़ोस के लोग, उनके बेटे-बहु, और सबसे बढकर उनकी घरवाली क्या कहेगी? क्या वो राजी होगी मेरे फैसले से? क्या मेरी पत्नी राजी होगी मेरे साथ वानप्रस्थ जाने के लिए? कैसे पूंछूं उससे? कहीं वो भड़क न जाए?

एक बार मास्टर जी ने सोचा क्यों न घरवालों के मन की टोह ली जाए, देखें तो इसके बारे में उनका क्या मत है ? सो उन्होंने एक शाम खाना खाने के बाद खटिया पे बैठते हुए कहने लगे। "आज वहीं रास्ते में एक सन्यासी मिल गए थे, कहने लगे की वो घर -बार छोड़ के आये हैं, उनके घर में बड़ी सुख शान्ति थी, सभी बच्चे अपना खा कमा रहे थे। लेकिन मोह माया बड़ा तकलीफ देती है ,जितना हम एक दूसरे से जुड़े रहेंगे उतना मुश्किल होता है इस दुनिया से दूर होना ।" पहले तो सभी लोग सुनते रहे फिर उनकी पत्नी बोल पड़ी "अरे ये सब रिश्ते भगवान ने ही तो बनाया है , मोह तो अपने आप ही आ जाता है ,अब बचपन से यहीं बच्चे पले बड़े, अम्मा अम्मा ,बाबू जी कही के पुकारे हैं, अपनापन तो हो जाता ही है , अब कोई ऐसे ही छोड़ के कैसे चल दे सब कुछ , इ सन्यासी लोग का दिमाग फिर जाता है " तभी मास्टर जी बात काटते हुए कहे " अरे ऐसा अपने शास्त्रों में भी लिखा हुआ है की एक समय के बाद हम लोगों को सन्यासी हो जाना चाहिए और अपने बच्चो के हाथो में घर की चाभी रख कर वन के तरफ चल देना चाहिए। ” उनकी पत्नी भड़कते हुए " ज़रूर ज़रूर , जा तब सन्यासी बन जा तुहिन, पागल होइ गए हैं। अरे ये सब पुरानी बाते रहीं राजा दशरथ के जमाने का " ओह समय ऐसा होता रहा , अब ऐसा नहीं होता , सन्यासी न फन्यासी , और कौनौ काम नहीं बचा है का की चली सब कुछ छोड़ के सन्यासी बन जाई,अरे आपण बेटवा बहु छोड़ के चली जंगल में लकड़ी काटइ, इतनी खुशियाली बा घरे में , चली बैरागी बनै, का खाबो उंहा घास-फूस ?" "अरे अम्मा काहे भड़क रही हो, पिता जी कौन सा सन्यासी बनै जा रहे हैं , ये तो केवल उ सन्यासी की बात बता रहे थे " हँसते हुए उनके बेटे ने अपनी अम्मा को समझाया। मास्टर जी भी ऊपरी हंसी हँस के बातों को दूसरी दिशा में ले गए । घर वालों की प्रतिक्रिया देख के मास्टर जी को समझ में आ गया की कोई भी उनका मत स्वीकार नहीं करेगा। उस दिन के अलावा भी मास्टर जी ने बहुत बार मज़ाक मज़ाक में वानप्रस्थ और सन्यास की बात कही लेकिन हर बार घरवाली का मत विपरीत ही पाया।

उनके बड़ी उम्र के मित्रगण भी थे, उनसे भी उन्होंने इसके बारे में वार्तालाप किया लेकिन सभी का जवाब ना में ही मिला। कुछ मित्र उनकी बातों से सहमत भी थे लेकिन वो खुद वानप्रस्थ के लिए तैयार नहीं थे, कुछ अपने बेटी बेटों से परेशान थे फिर भी अपने घर के मोह के कारण वन चलने को तैयार नहीं हुए। मास्टर जी ने अपने स्कूल के बुजुर्ग अध्यापको से भी बात की लेकिन लोग यही कहते रहे की ये सब प्राचीन काल में होता था । उनकी बातों से ऐसा लगता था की वो सब मोह माया से ग्रसित हो चुके हैं, आने वाले समय में अपने स्वर्ग को सुधारने का मौका ये सब गवां देंगे। खैर थक हार कर कुछ दिनों के बाद मास्टर जी ने खुद ही फैसला लिया की उन्हें अकेले ही वानप्रस्थ के लिए सोचना होगा। न घरवाली ,न मित्र एकदम अकेले ही चल देंगे । खैर लोगों की बातों का उनपर उतना प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उनका यकीन पुराने ग्रंथो में कहीं ज्यादा था और वो ये भी जानते थे की यही मोह और माया लोगों के पैरों की जंजीर बन गयी है जिसे तोडना शायद सब के बस की बात नहीं है, उन्हें ये भी पता था की कब तक आखिर हम अपनों के पास रह पायंगे।

इंसान के पैदा होते ही उसकी मृत्यु की तारीख भी तय हो जाती है । लोगों की उम्र बढ़ती है लेकिन असल में ये घटती जाती है। तो फिर मोह किस के लिए । जो सत्य है उसको स्वीकारना पड़ेगा। मुझे इस बंधन से निकलना पड़ेगा। अपने स्वर्ग को सुगम बनाने के लिए ही वानप्रस्थ जाना पड़ेगा। ये फैसला लेते हुए उन्हें २०-२५ दिन और लग गए। स्कूल की परीक्षायें भी ख़त्म होने को आ गयी थीं। फिर स्कूल भी १ महीने के लिए बंद होने वाला था। सो उन्हें ये महसूस हुआ की उनका काम यहाँ पे समाप्त होता है । और उनकी सारी जिम्मेदारियां भी। बेटा अपना कमा खा रहा है, बहु भी खुश है, भगवान ने चाहा तो पोता भी हो जाएगा, घरवाली भी अपने बेटे और बहु के सहारे रह लेगी, थोड़े से खेत हैं तो किशन देख ही लेता है। तो फिर अब मुझे निकलना चाहिए। लेकिन घरवालों को बताऊंगा तो सर पे पहाड़ उठा लेंगे और मुझे जाने नहीं देंगे, पड़ोस में भी किसी को बता नहीं सकता, मित्रों को भी नहीं ,लगता है चुपके से निकलना पड़ेगा। कुछ भी बहाना मार दूँगा। पत्नी नहीं आना चाहती है साथ, तो शास्त्रों के अनुसार उसे बेटों के पास ही छोड़ देना चाहिए।

ऐसा मन में ठानकर मास्टर जी मई के महीने में निकलने की योजना बनाते हैं। घर से बहुत दूर जाना होगा जहाँ पे मोह-माया की परछाईं भी न हो । कुछ आश्रम हैं जहाँ पर सन्यासी जैसे लोग मिलेंगे, वहीं चलना होगा। लेकिन मुझे एक जगह स्थिर भी नहीं होना है नहीं तो वहीँ से मोह पैदा हो जाएगा । जैसे बहता पानी । मई के पहले सप्ताह में ही मास्टर जी बहाना बना कर घर से निकल आते हैं। उनका बहाना था की वो और उनके कुछ मित्रगण १०-१५ दिनों के लिए दक्षिण भारत की यात्रा पे जा रहे हैं । उन्होंने कुछ दूर के मित्रों के नाम बताये। बहु और घरवाली ने मिलकर खाने की कुछ चीजें बनाई जैसे कचौड़ी, लाइ-चुरा इत्यादि। मास्टर जी का मन थोड़ा द्रवीभूत हो रहा था लेकिन उन्होंने पहले से ही प्रण बना लिया था की घर से निकलते समय फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखेंगे, न ही बेटे को, न ही बहु को , न ही घरवाली को और न ही अपने अनाथ हो रहे घर को क्योंकि वो जानते थे की अगर वो जरा भी विचार से कोमल हुए तो बहुत तकलीफ होगी इसलिए उन्होंने अपने मन को एकदम कठोर सा बना लिया था। घर वालों को जरा भी अंदाजा नहीं था की ये अब वापस लौट कर नहीं आयंगे सो वो लोग भी हँसते हुए उन्हें विदा कर रहे थे। "जल्दी घरे लौटी आया हो.... "पीछे से उनकी पत्नी की नरम सी आवाज़ आयी। उन्होंने अपना सर हिला के इशारा किया की जल्दी ही आ जाऊँगा। मास्टर जी भी अपने कोमल विचारों को और आँसू के आवेग को रोक रहे थे आखिरकार अब दूर जो हो रहे थे ...सदा के लिए...।

वैसे तो शास्त्रों में वानप्रस्थ के लिए कुछ कर्म-काण्ड और संस्कार बताये गए थे, लेकिन मास्टर जी के लिए मन चंगा तो कठौती में गंगा जैसा विचार उचित ही था क्योंकि अगर संस्कार करने जाते तो घर वालों को पता चल जाता । घर की चौखट को पार करते हैं तो अपना बचपन याद आ जाता है, जब वो चौखट पार नहीं कर पाते थे क्योंकि उनका पैर बहुत छोटा था लेकिन अब वो बड़े हो गए हैं, बहुत बड़े...। “जीवनसंगिनी” वो साइकिल दिखाई दी जो उन्हें उनकी शादी में मिली थी या यूँ कह लें जो ससुराल से विदा हो के आयी थी और अब उन्हें विदा लेना पड़ रहा है । साइकिल कुछ इस तरह से खड़ी थी की जैसे वो उन्ही को देख रही हो। फिर घर का बगीचा पार करते हैं, उन फूलों को देखते हुए गुजरते हैं जिन्हे उन्होंने हाथों से सींचा था, जिनकी कुछ पत्तियां उनके रास्ते में पड़ी हुई थीं ।

अंत में एक बार फिर से मुड़ के वो सारी चींजे एक बार फिर से देखते हैं, घरवाली और बहु को.....

बेटा दूसरी साइकिल से उनका झोला लेकर बस तक छोड़ने आ रहा था। दोनों आपस में बातें करते हुए आ रहे थे। मास्टर जी कुछ जिम्मेदारियों की बातें समझाते जा रहे थे। बस स्टैंड पर पहुंचने के बाद थोड़ा इंतजार करते हैं फिर बस में चढ़ जाते हैं और आखिरी बार बेटे को देख कर, आशीर्वाद देते हुए नज़रें फेर लेते हैं। बस चल देती है । मन का आवेग तो पुरे उफान पे था क्योंकि मोह की रस्सी काफी मजबूत होती है । बस में बैठे बैठे ही एक बार पीछे बस स्टैंड को देखते हैं जो अब पीछे छूट चला था । अपने आप को रोकना थोड़ा मुश्किल पड़ रहा था सो उन्होंने अपने आप को वानप्रस्थी के रूप रखकर मजबूत बनाना चाहा और अपने मन को फिर से कठोर किया। वो एक ऐसे रहस्य को समझने चले थे जिसको की अब तक केवल किताबों में ही पढ़ा था। धीरे धीरे वो सारी गलियां, वो सारे लोग, वो सारे घर, वो सारे दुकान, वो सारे रास्ते , वो उनका स्कूल, वो सारे रिश्ते, वो सारे उधार जो लोगों ने उनसे लिए थे, वो सारे वादे जो उन्होंने लोगों से किये थे, वो सारे भोज जिनमे वो आमंत्रित हुए थे, वो सारी दीक्षाएं जो उन्होंने दी थीं, वो सारे मंदिर जहाँ उन्होंने त्यौहार मनाये थे, वो सारे अखाड़े जहाँ उन्होंने कुश्तियां देखी थीं, वो सारे कुएं जहाँ से उन्होंने प्यास बुझाई थी, वो सारी चीजें जो ५६ साल तक के पड़ाव से कहीं न कहीं जुडी हुई थीं, एक एक कर के छूट रहे थे। साथ चल रहा था तो केवल उनका संकल्प, बाकी सब केवल यादों में कैद होता जा रहा था। आधे घंटे चलने के बाद रेलवे स्टेशन आ गया। उस स्टेशन से भी काफी यादें जुड़ी हुई थी।

जब वो बोर्ड के पेपर चेक करने जाते थे तो उसी स्टेशन से गाड़ी पकड़ते थे। गाड़ी आने में अभी ४-५ घंटे का समय था तो वहीँ स्टेशन पे बैठ के पुरानी यादों के ऊपर नई उम्मीदों का खोल चढ़ा रहे थे। उम्मीदें थी उन्हें अपनेआप से की मोह-माया के बंधन से हमेशा के लिए ऊपर उठेंगे, ईर्ष्या-द्वेष के ख्याल से बाहर निकलेंगे। अभी वो एकदम से अपने घर से, अपने परिवार से, अपने गांव से और सारे रिश्ते नाते से अलग हुए हैं तो थोड़े समय तक मन क्षुब्ध रहेगा फिर धीरे धीरे खाली जगहों को भरने के लिए नई भावनाएं जो पूर्ण रूप से समाज के लिए होंगी जगह लेने लगेगी। क्योंकि वानप्रस्थ एक तपस्या ही है। यह तपस्या है अपने स्वार्थ को छोड़ने की और शायद पूरे समाज को ही अपना समझने की। अब परिवार केवल ४-५ लोगों का समूह नहीं बल्कि सारे संसार के लोगों का समूह है । अब जो उन्हें करना है वो सभी जीवधारियों के लिए होगा । अब उन्हें अपनी शिक्षा और परिश्रम का सारा फल पूरे समाज को देना होगा । और जिसके लिए सारा समाज ही अपना हो, उसका कोई शत्रु नहीं, उसका खुद का कोई स्वार्थ नहीं ।अब ये बात मास्टर जी को समझनी होगी और शायद वो जानते भी हैं। अपने अशांत और क्षुब्ध मन को राहत पहुंचने का एक तरीका ये भी है की आने वाले समय के धनात्मक पहलुओं को सोचों और यही मास्टर जी ने किया भी।

वहीँ स्टेशन पर कितने सारे लोग थे, कितने सारे दिमाग, कितने सारे मन, कितनी सारी भावनाएं, कितने सारे ख्याल, कितनी सारी दुकानें, कितने सारे पेट, कुछ भरे हुए ...कुछ भूखे। मास्टर जी को अपने गांव से बहुत दूर जाना था जहाँ उन्हें कोई जानता न हो इसलिए ही वो दक्षिण की तरफ जा रहे थे, तभी एक दूसरी गाड़ी स्टेशन पे आने लगती है। लोग दौड़ने लगते हैं उसकी ओर। हरीलाल भी ये दृश्य देख रहे होते हैं, वो सोचते हैं की क्या जरूरत है दौड़ने की, अरे गाड़ी खड़ी होगी तब चढ़ जाना, ऐसे में तो दुर्घटना भी हो सकती है। लेकिन नहीं, लोगों को तो जल्दी है सबसे पहले चढ़ने की । कुछ लोग तो सर पे सामान ले के दौड़े जा रहे थे। कुछ फल बेचने वाले दौड़े जा रहे थे, तो कुछ पानी वाले। गाड़ी से उतरने वाले भी गाड़ी के दरवाज़े पे आ गए थे । मास्टर जी ये दृश्य देखते देखते खड़े हो गए की तभी एक बुढ़िया गाड़ी के दरवाज़े को पकड़े बड़ी दूर से दौड़ी आ रही थी, जो लोग स्टेशन पे खड़े थे उसकी तरफ बड़ी हैरानी से देखे जा रहे थे, कुछ लोग तो चिल्ला भी रहे थे । एक तो वो बूढी है और दूसरे गाडी की रफ़्तार भी तेज है, अगर कहीं गिर गयी तो । उसके कंधे पे एक झोला भी टंगा था और देखने में मास्टर जी की अम्मा की उम्र जितनी प्रतीत होती थी । एक मैली कुचैली सी धोती पहने हुए थी, लेकिन ये दौड़ क्यों रही थी ? अरे गाड़ी खड़ी हो जाए तो आराम से चढ़ ले इतनी बूढी है की कोई भी बैठने की जगह दे देगा । गाडी धीरे धीरे स्थिर होने लगी थी और स्टेशन पे रूक गयी । तभी मास्टर जी ने देखा की वो दौड़ती हुई बुढ़िया एक बूढ़े आदमी के हाथों को अपने कंधे पे रख के सहारा देकर गाड़ी पर से उतार रही थी । उस आदमी के हाथों में एक लाठी भी थी । उसकी लाठी को अपने हाथों में लेकर बिना किसी की मदद से उसने उस आदमी को उतारा और गाड़ी से दूर ले आयी । वो बूढ़ा आदमी कोई और नहीं उसका पति था जो अँधा था और इसीलिए वो बुढ़िया दौड़ी चली जा रही थी उसको संभालने के लिए की कहीं उतरते समय वो गिर न जाए और इसलिए भी की कहीं गाडी चल दे और वो अपने पति को उतार नहीं पायी तो ? मास्टर जी थोड़ा उन लोगों के पास भी गए। मैले कुचले कपडे पहने हुए, चेहरे पे झुर्रियां पड़ी हुईं वो दोनों कुछ देर तो वहां पर बैठे रहे । वो बुढ़िया अपनी धोती से बूढ़े के चेहरे को पोछती रही, फिर स्टेशन से एक पुराने शीशे की बोतल में पानी भर लायी उस बूढ़े के लिए । कुछ देर बाद बुढ़िया उसे सँभालते हुए उसके हाथ को अपने कंधे पे रख कर चल दी, अपने घर की तरफ।

मास्टर जी भी सोचने लगे की ये मोह कितना जटिल है और इसके इरादे कितने मजबूत हैं। सब के बस की बात नहीं है इससे निपटना । लेकिन ये मोह था या वो वचन जो पति-पत्नी लेते हैं अपने फेरे के समय एक दूसरे की परछाईं बन कर चलने की इस जन्म में ही नहीं अगले सात जन्मो के लिए। वचन ये भी तो कहते हैं की एक दूसरे की सेवा करना निःस्वार्थ भाव से, पति अपने पत्नी की और पत्नी अपने पति की । वो बूढ़ी भी तो यही कर रही थी अपनी चिंता किये बिना वो दौड़ी जा रही थी की कहीं उसके पति को तकलीफ़ न हो वो भी तो निःस्वार्थ था, इसे मोह भी कह सकते हैं, वचन पालन भी या फिर भावना भी । मास्टर जी मन थोड़ा सा कमजोर पड़ने लगा था लेकिन उसे मजबूत होना था । जैसे तैसे कर के मास्टर जी ने फिर से अपने आप को मजबूत किया और वानप्रस्थ के नियमों के बारे में चिंतन करने लगे। गाड़ी की घंटी हुई, उन्होंने टिकट लिया कुछ देर बाद उनकी गाड़ी आयी सो वो उसमे बैठ लिए.. बिना दौड़े । जगह थी, एक स्थान मिल भी गया । कुछ समय बीतने के बाद उनकी आँख लग गयी । तभी उन्हें उनकी घरवाली दौड़ते हुए दिखी । वो गाड़ी में बैठे हुए थे और उनकी घरवाली गाड़ी के सामानांतर ही दौड़ रही थी उन्हें देखते हुए । वो उनका नाम पुकार रही थी, तभी उनका बेटा किशन भी गाड़ी के अंदर उनकी साइकिल ले कर आ गया था कोई साइकिल की घंटी बजा रहा था और ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रहा था " वो सात वचन ...सात ...सात.." तभी अचानक से मास्टर जी कांप गए और उनकी आँख खुल गयी।

ये तो एक सपना था जो क्षण मात्र का था । गाड़ी के अंदर देखा तो टी-टी टिकट चेक करते हुए बोल रहा था की सात लोग एक ही साथ हो ना? सामने से उत्तर मिला " हाँ जी हम सात लोगों की सीट है।“ मास्टर जी ने खिड़की से बाहर झाँका की कहीं उनकी घरवाली सच में तो नहीं दौड़ रही है, फिर गाड़ी के अंदर भी देखा कहीं उनका बेटा तो नहीं आया। शुक्र है ये केवल एक सपना ही था। गाड़ी अपनी तेज गति से चली जा रही थी । वैसे वो सात वचन तो मास्टर जी पे भी लागू होते हैं और ये बात कहीं ना कहीं वो भी समझ रहे थे लेकिन ये भी जानते थे की अगर हर कोई ऐसा मानने लगे तो फिर वानप्रस्थ और संन्यास कैसे हो पाएंगे? वैसे भी सात वचनों में पत्नी का साथ निभाने की बात कही गयी थी सो उन्होंने घरवाली की राय भी ली थी वानप्रस्थ के लिए लेकिन उसकी इच्छा इसके विपरीत थी। हाँ ये और बात है की उन्होंने सीधा सीधा नहीं पूछा था, क्या पता वो अपने पति के साथ चलने के लिए तैयार भी हो जाती? मास्टर जी अपने मन से ही बाद-विवाद कर रहे थे, गाड़ी चल रही थी, समय गुजर रहा था । अब तो रात भी हो गयी थी और भूख भी लग रही थी सो उन्होंने कचौड़ी निकाली । पहले तो बहुत ध्यान से उसे देखा और फिर खाने लगे । वो स्वाद जो उनकी घरवाली बनाती थी, उसके क्या कहने। वो भावना जिस प्रेम से वो बनाती है क्या कहने । अब कहाँ मिलेगा ये सब। क्या वानप्रस्थी होने का मतलब अपनी पुरानी सारी भावनाओं और सारे प्रेम के बंधन को ख़त्म कर देना होता है? कचौड़ी खाते हुए वो सोचे चले जा रहे थे की प्रेम का मतलब हर उस जीव से है जो की इस संसार में है, उस हर मानव से है जो हमारे आस-पास है , जो छूट गए वो अपने थे लेकिन अब जो मिल रहे हैं उन्हें ही अपना समझना है । उस स्वाद को भूल नहीं सकते तो उन्हें दिमाग के किसी कोने में पड़े रहने दो । एक वानप्रस्थी के लिए स्वाद का कोई महत्व नहीं होना चाहिए \। अन्न मिल गया , ये तुम्हारा भाग्य है इसलिए हर एक अन्न को सामान रूप से देखो । फिर उन्होंने जैसे तैसे भोजन ख़त्म किया, कुछ खाया, कुछ बचा दिया। ईश्वर को याद किया, एक दो भजन गुनगुनाये और वहीँ अपनी सीट पे सो गए। गाड़ी चलती रही... छुक… छुक ..छुक... छुक …।

गाड़ी में जो शोर हो रहा था, धीरे धीरे वो सन्नाटे में बदल गया...रुक रुक के आवाजें आती रहीं लेकिन केवल गाड़ी की सीटी की या फिर लोगों के खर्राटे की । नींद भी क्या खूबसूरत चीज है, अमीर-ग़रीब में फर्क नहीं करती, सुखी-दुखी में फर्क नहीं करती, रात-दिन में भी नहीं। जब आनी होती है तो एकदम से आती है और जब नहीं आनी होती तो कोई कितना भी करवट बदल ले, जैसा की कुछ लोगों के साथ हो रहा था। "अरे उठा हो, सबेर होइ गवा" उन्हें ऐसा लगा की घरवाली आवाज़ दे रही है,उनकी आँखें खुल गयी। उठ कर देखा तो कोई नहीं, केवल सपना था। फिर सोने की कोशिश की, पर नींद ही नहीं आयी ।अपनी घड़ी में देखा तो सच में ४ बजने को था। मास्टर जी की आदत थी भोर में उठने की। वानप्रस्थ का नियम था भोर में उठना। वानप्रस्थी के नियम आसान नहीं हैं लेकिन जो बातें आदत में हैं वो करना मुश्किल नहीं । पुराना गांव छूट गया। अब नयी जगह है, नए लोग, नई भाषा और एक नयी सुबह भी। जो बीत गया वो एक सपना था, जो आ रहा है बस अब वही अपना है। सेवाग्राम स्टेशन आने वाला था, कुछ लोग वहां पे उतरने के लिए उठ रहे थे। वैसे तो हरिलाल दक्षिण की तरफ जा रहे थे लेकिन उन्होंने सेवाग्राम का नाम सुना तो मन में हुआ की यहीं पे उतर लेते हैं, कहीं कहीं किताबों में भी पढ़ा था। वैसे भी हज़ार- बारह सौ किलोमीटर तो आ ही गए थे, जो की उनके गांव से काफी दूर था। सेवाग्राम महाराष्ट्र के वर्धा जिले में स्थित है । यहाँ पे काफी आश्रम और धर्मस्थल हैं। ये एक सही जगहं होगी वानप्रस्थ के कुछ दिन बिताने की। गाड़ी धीरे धीरे स्टेशन पे रुकने लगी, लोग उतरने लगे तो वो भी अपना झोला उठा कर उतर लिए। लोगों से पूछते हुए वो गाँधी आश्रम में पहुंचे। वहां का वातावरण काफी शांत लग रहा था, बगीचे भी थे। स्वच्छता का भी काफी ख्याल रखा गया था। वहां पे लोग खुद से ही सारा काम करते थे। उनके पहनावे भी साफ़ सुथरे थे। गाँधी जी ६७ वर्ष की उम्र में सेवाग्राम आ गए थे। उन्होंने ही इस जगह का नाम शेगाव से बदलकर सेवाग्राम रखा था । सेवाग्राम का अर्थ है -'सेवा का गांव '। वो यहाँ पे ही रुकना चाहते थे लेकिन वो गाँधी जी के मुख्य आश्रम में न जाकर किसी दूसरे आश्रम में जाकर रहने लगे।

वहां से कभी कभी वो गाँधी जी के भी आश्रम में घूम आया करते। वहां पे ढेर सारी कुटिया बनी हुई थी। वो अक्सर अपना समय गाँधी जी की किताबों या फिर धार्मिक किताबों में बिताते थे। जो लोग बाहर से आते उन्हें वो उपदेश भी देते । सारे काम खुद से करते। अपने आप को पुरानी यादों से दूर रखने की भरपूर कोशिश करते। लेकिन ये यादें कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में एक घटना बनकर सामने आ ही जाती थीं। आश्रम के कामों में भी हाथ बटाते थे । छोटे मोटे काम जैसे चरखा चलना, दाल, चावल से कंकड़ बिनना, लिखा पढ़ी करना इत्यादि भी कर लेते थे, जिससे आर्थिक रूप से आश्रम को मदद मिल सके और वानप्रस्थ भी परिभाषित हो सके। यही कोई ६-७ दिन बीते होंगे। आश्रम में बहुत से लोग थे, कोई अपने घर की कलह से दूर होना चाहता था, तो किसी की औलाद ने उन्हें ठोकर मार दिया था, तो किसी के कोई औलाद ही नहीं थी। मगर ऐसा कोई नहीं था जो की घर से संतुष्ट होकर आया हो और न ही कोई वानप्रस्थ के लिए आया था सिवाय हरिलाल के। सभी अपने दुखड़े सुनाने लगते।

कोई अपने परिवार की कहानी बताता, तो कोई अपने रिश्तेदारों की । कोई आश्रम के खाने की बुराई करता तो कोई अपने घर के खाने की तारीफ। लेकिन हरिलाल कभी भी अन्न की कोई बुराई नहीं करते थे , वो कहते थे की बड़ी कृपा है ईश्वर की जो की अन्न नसीब हुआ। वहां एक बुढ़िया भी थी जिसको उसके बेटों ने निकाल दिया था, उसके पति के स्वर्गवास होने के बाद। स्वभाव से वो हमेशा चिढ़ी रहती थी। वो हमेशा अपने पति को कोसती रहती थी । अक्सर कहा करती थी की उसका पति तो स्वर्ग चला गया और उसको यहाँ छोड़ दिया बेटों के पास, कोई भी उसकी इज़्ज़त नहीं करता, और अब तो घर से भी निकाल दिया । सब अपने जोरुओं के गुलाम हो गए हैं। अपने तो पकवान खाते होंगे और हम यहाँ...। बूढ़ी की अक्सर बातें हरिलाल सुनते थे लेकिन वो भी कुछ नहीं कर सकते थे सिवाय सांत्वना देने के। ऐसे ही वहां बहुत से लोग थे जिनको कोई न कोई दुःख-दर्द था और सभी अपने अपनों से पीड़ित थे । हरिलाल ये देख के सोचते थे आखिर मोह-माया का अंत यही है तो फिर इंसान रिश्ते क्यों बनाता है ? इससे तो अच्छा की इंसान इस माया में पड़े ही नहीं । माँ-बाप किस दिन के लिए अपने बच्चों को पालते हैं? हरिलाल को १० दिन हो गए थे घर से बाहर निकले हुए। वो घर पर यही बोल कर आये थे की १५ दिनों के लिए जा रहे हैं। और घर वाले भी इंतज़ार कर रहे होंगे, परेशान भी होंगे। वहां उनके इन दस दिनों में काफी मित्र बन गए थे। ऐसा वो इसलिए करते थे ताकि घर की यादों से दूर रहें। अक्सर ऐसा देखा गया है की हम नए रिश्तों की तलाश में बहुत दूर तक चले आते हैं। पुरानी यादों को भूलने की कोशिश भी करते हैं फिर कुछ दिनों तक ऐसा लगता है की सब कुछ ठीक हो गया है, नए रिश्ते हैं, नई ख़ुशियाँ हैं और हम रोजमर्रा के कामों में फिर से लिप्त हो जाते हैं। हम अतीत को भूलने की कोशिश भी करते हैं लेकिन हमारा अतीत खुद का वजूद बनाये रखने के लिए कहीं न कहीं, किसी न किसी मोड़ पे, किसी न किसी शक्ल में वो अपने आप को दोहराता है। जब कभी ऐसा होता है तो एक एक करके वो दबी हुई यादें फिर से सामानांतर चलने लगती हैं । यही माया का खेल है और मोह की जंजीरें भी।

आश्रम में बूढ़े लोग ज्यादा थे सो कभी कभी किसी की मृत्यु भी हो जाया करती थी। हरिलाल के वहां पे रुकने की अवधी में भी ऐसा हुआ। उस बूढ़ी औरत की मृत्यु। उस शाम वो बहुत खुश थी पता नहीं क्यों? उसने सब से बातें की, अपने पति और बच्चों की तारीफ भी की। लोग हैरान थे की ऐसा उन्होंने कभी भी उस बूढ़ी के मुँह से नहीं सुना था। काफी देर गुज़र जाने के बाद वो हँसते हँसते एकदम से रोने लगी। उसके वाक्यों में आंसुओं की मिलावट थी, उसके ज़ुबान भी लड़खड़ा रहे थे। वो कहती रही की वो अपने बच्चों से बहुत प्यार करती है, आखिर में उन लोगों ने उसके कोख से जनम लिया है, सो वो भला उनसे कैसे नफरत कर सकती है । वो अपनी बहुओं को भी बहुत प्यार करती थी। वो निश्चिंत थी की उसके घर से चले आने के बाद उसकी बहुएं उसके बच्चों का ख्याल रख रही होंगी। उसने अपने पति को भी बहुत याद किया। उसके साथ गुजारे गए कितनी ही बातें उसने बिना पूछे बता डाली। उसने अपने पति के पसंद और नापसंद को भी बताया। और ये भी कहा की अब तो वहीँ पे मुलाकात होगी। सच में वो खुश थी या दुखी कोई समझ नहीं पा रहा था, लेकिन किसी ने उसे पहले कभी ऐसे नहीं देखा। उसने हरिलाल की तरफ देख कर कहा था की उसे अपने बच्चों से मिलना है,उनकी बहुत याद आ रही है । हरिलाल ने ये कह के टाल दिया था की अम्मा कल सुबह चिट्ठी लिख देंगे उन लोगों को, अभी सो जाओ। उस बूढ़ी ने भी संतोष के साथ कहा था “हाँ लिख देना।“ लेकिन किसे पता था की रात कुछ ज्यादा ही लम्बी हो जायेगी उसके लिए…शायद उसकी उम्र से भी ज्यादा... । इस घटना से हरिलाल थोड़ा क्षुब्ध रहने लगे। बूढ़ी का दाह संस्कार किया गया। हरिलाल के मन में वो बात अखर रही थी की अंत समय में वो अपने बच्चों को नहीं देख पायी । ये उसकी इच्छा रह ही गयी । चलो माना की मोह पैरो का बंधन है, लेकिन अगर अंत समय उसने अपने बच्चों के साथ गुजारे होते तो क्या हो जाता? मोह तो तब भी वहीँ पे होता जैसा यहाँ पे था, कल रात को । मोह स्थान से बंधा हुआ नहीं है की जो बदल जाएगा। मोह एक जड़ की तरह है जहाँ से जुडी है वही से जुडी रहेगी भले ही तुहारे तने इधर-उधर फ़ैल जाएँ । उधर हरिलाल की घरवाली चिंता कर रहीं थी ।अपनी बहुरिया से- " ६ तारीख के गए रहें तोहार बाबू , आज १८ होइ गवा, १२ दिना होइ गवा कुल मिलाई के । देखा कब आवा थें ।" उनकी बहु- " हाँ अम्मा कहें रहें की १५ दिना में आयी जहिनी, ३-४ दिना में आईहीं ।" अम्मा- "अरे घुमन्ता मनई हैं, दोस्ती यारी में घरवाऊ भुलाई जाथें , जब दोस्तान छोड़िहीं, तबै ता आईहीं ।"


इधर हरिलाल बूढ़ी के मरने पे बहुत व्याकुल थे। ऐसा नहीं है की हरिलाल ने पहले कभी किसी को मरते हुए नहीं देखा। माँ की मृत्यु, पिता का अंतिम समय, पड़ोस के चाचा का देहांत । कितना भी आदमी आमिर या सुखी क्यों न हो, मृत्यु के क्षणों में वो केवल बेबस, लाचार और ग़रीब सा दीखता है। ये एक ऐसी अवस्था है की हम चाहते हुए भी उसके लिए कुछ नहीं कर सकते सिवाय सांत्वना देने के । ये एक ऐसी अवस्था है जब, दुश्मन पे भी दया और उसकी स्थिति पे आँसू आ जाते हैं। जबकि हम सब जानते हैं की ये एक अचल सत्य है। ये एक ऐसा सत्य है जो की जन्म के बाद से निरंतर ही हमारी ओर आता रहता है। इससे बचना असंभव है । हर उस चीज का, जिसका आकार है, अंत भी तय है । हमें जो प्रत्यक्ष दीखता है वही हमारे लिए सत्य है। जब हम जन्म लेते हैं तो आगे की जिंदगी सामने दिखती है लोगों को, लेकिन जब मृत्यु की कगार पे खड़े हो तो कुछ नहीं दीखता सिवाय शुन्य के। क्योंकि जिंदगी पीछे छूट चुकी है, उम्र का एक लम्बा सफर पीछे छूट चुका है, जितने रिश्ते बन गए और जितने टूट गए वो सब पीछे छूट चुके हैं, हमारे भविष्य के लिए देखे गए सारे सपने पीछे छूट चुके हैं, आगे है तो वो जिसे कोई नहीं जानता, जिसे किसी ने न ही देखा न बताया, जो शून्य है या फिर एक अन्धकार या फिर जहाँ से आये थे वहीँ पे विलीन होना है। जहाँ से शुरू हुआ था ये चक्र, उसी के अंतिम बिंदु पे खड़े हों। यहाँ से क्या फिर उस चक्र की नई शुरुआत होगी? कौन जानता है? जीवन असल में क्या है एक घटना? किसी अनंत ब्रह्माण्ड से टूट कर, जीवन की आशा में आना और वापस फिर उसी ब्रमांड में लौट जाना। ये आवागमन किस लिए? या फिर ये जीवन एक भ्रम है, जिसे हम हर पल जीते हैं और जब भ्रम टूटता है तो अपने आप को उसी दुनिया में पाते हैं जहाँ से इस भ्रम की शुरुआत हुई थी।

बूढ़ी को मरे हुए ४ दिन बीत चुके थे। हरिलाल का मन क्षुब्ध था क्योंकि उन्होंने बूढ़ी से कुछ कहा था जो की पूरा नहीं हुआ। हरिलाल ने तय किया की वो बूढ़ी के घर जाएंगे और उसके बेटों को ये समाचार ज़रूर देंगे की तुम्हारी माँ ने तुम लोगों को बहुत याद किया था, अपने अंत समय में। बूढ़ी की एक पोटली थी जिसमे उसके पति की फ्रेम की हुई एक तस्वीर थी और संयोग से उस फ्रेम के पीछे ही उस दुकान का पता भी लिखा हुआ था जहाँ से ये बनवाई गयी थी । तस्वीर उतनी पुरानी नहीं थी, उसपे उसके पति के जन्म और मृत्यु की तारीख भी लिखी थी, जो की ३ साल पहले की थी। ये हरिलाल इसलिए नहीं कर रहे थे की उन्हें उस बूढ़ी से मोह हो गया था अपितु इसलिए की उसके घरवालों को भी पता चलना चाहिए की जिसे तुम लोगों ने घर से निकाल दिया था अब वो हमारी दुनिया में नहीं है। वैसे भी वानप्रस्थी को एक जगह नहीं रुकना चाहिए, नहीं तो उसी जगह से मोह हो जाएगा। शायद हमारी भावना रूपी मिट्टी से ही ये मोह का बीज अंकुरित होता है और फिर ये रिश्ते उसपर खाद का काम करते हैं, जितनी खाद पड़ती है उतनी जड़े फैलती जाती हैं। उम्र बढ़ती हैं और ये मोह का बीज पेड़ बनकर अपनी शाखाएं फैला लेता है। ये पेड़ कितने ही जान और अनजान चेहरों को छाव देता है ।पेड़ कट भी जाए या सूख जाए लेकिन इसका अंश और अवशिष्ट उस मिट्टी में बचा ही रह जाता है जिससे फिर नए अंकुर बनते हैं। समय और जीवन दोनों को ही ये वरदान मिला होगा की ये कभी ख़त्म नहीं होंगे और निरंतर ही आगे बढ़ते रहेंगे तभी तो कोई एक मरता है, दूसरा पैदा हो जाता है।

कभी किसी एक से जीवन की शुरुआत हुई होगी और ये निरंतर ही एक के बाद एक बढ़ती ही जा रही है जैसे समय बढ़ रहा है। खैर हरिलाल का ये चिंतन तो चलता ही रहता है। अगले दिन सुबह ही इन्होंने आश्रम को अंतिम प्रणाम किया और बूढ़ी के घर की तरफ बढ़ लिए। आश्रम हरिलाल के घर से कुछ बारह सौ किलोमीटर की दूरी पे था और बूढ़ी के घर के लिए उन्हें वापस दो सौ किलोमीटर आना था, सो उन्होंने बूढी के पति की तस्वीर ली और चल पड़े। पैसे तो कुछ बचे नहीं थे तो कभी बैलगाड़ी से, कभी ट्रक से, कभी किसी की साइकिल से चलते जा रहे थे। साइकिल पे बैठ कर उन्हें अपनी जीवन-संगिनी याद आ गयी। इंसान जब घर से बाहर निकलता है तो उसे तरह तरह के अनुभव होते हैं, भिन्न भिन्न लोगों से वो मिलता है, बिछड़ता है। अलग अलग तरह के उतार चढ़ाव से वो बहुत कुछ सीखता है। हालां की उतार चढ़ाव तो वो अपने घर पे भी देखता है, लेकिन हरिलाल अनुभव पाने नहीं बल्कि अनुभव बांटने निकले थे। जैसे तैसे कर के वो उस दुकान पे पहुंचे, शाम के ४ बज रहे थे। दुकान बंद लग रही थी। पास के एक पान की दुकान पे जाकर दुकानवाले से पूछते हैं तो पता चलता है की वो दुकान वाला शहर गया हुआ है , २ दिन से दुकान बंद है । हरिलाल उस दुकानवाले को वो फोटो दिखाते हैं तो वो पहचान जाता है और कहता है की ये तो विनीत प्रसाद हैं ,जिनकी तेरही में वो गया था । वो दुकानवाला हरिलाल को बूढ़ी के घर तक छोड़ आता है। "अच्छा काका मै चलता हूँ "- कह कर वो दुकानवाला अपनी दुकान पे लौट आता है । विनीत प्रशाद का घर भी एक बड़े से गांव में बना हुआ था। देखने से काफी उन्नत गांव लग रहा था । पक्के मकान, जगह जगह हैंडपंप , सब्जी बाजार अलग, राशन बाजार अलग, पक्की सड़कें, इंटर कालेज इत्यादि।


विनीत प्रशाद का घर दो मंजिला था, उनके दो बेटे थे। नीचे एक बेटा ऊपर दूसरा बेटा अपनी अपनी बीवियों के साथ रहते थे। उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया`। शाम के साढ़े चार बज रहे थे। बड़ा बेटा अपनी दुकान पे गया था, छोटा बेटा स्कूल में अध्यापक था और जल्दी काम से वापस आ गया था। छोटे बेटे ने किवाड़ खोला, नमस्ते किया, और परिचय पूछा। उसका नाम सोमनाथ था। हरिलाल ने वो फोटो दिखाई। छोटे बेटे ने कहा " ये तो बाबू जी की फोटो है, जो माँ ले गयी थी, माँ कहाँ है? आयी है क्या?" उसने हरिलाल के पीछे देखा इधर उधर लेकिन कहीं नहीं दिखी। हरिलाल ने बताया अब वो इस दुनिया में नहीं है। सोमनाथ के भाव उत्साह से करुणा में तब्दील हो गए। वो अचानक से रोने लगा, घर के अंदर देखते हुए बोला-" अरे माधवी, माँ गुजर गयी।" अंदर से उसकी पत्नी आयी और अचानक से सिसकने लगी। वो ऊपर जा के अपनी दीदी यानि बड़े भाई की पत्नी को भी ले आयी। सब लोग रोने लगे । किसी को याद नहीं रहा की वो घर के अंदर हैं या बाहर केवल रोना ही रोना। आस पास के भी कुछ लोग इकट्ठा होने लगे। उन लोगों ने उन्हें संभाला । लोग हरिलाल से बूढ़ी के बारे में पूछते, वो कहाँ गयी थी, क्या कहती थी, बेटे बहु को याद करती थी की नहीं... खैर अब उन सब बातों का कोई फायदा नहीं था। तभी बड़ा भाई भी आ गया। वो भी अधीर हो गया, लेकिन जब देखा उसने अपने छोटे भाई को एकदम से रोते हुए, वो उसको सांत्वना देने लगा । छोटा भी भैया भैया कहकर बूढ़ी को याद करने लगा था। ये सब मेरे सामने ही हुआ था। उनके विलाप में कोई दिखावा या झूठापन नहीं था। अब उन्हें शायद पता चला होगा की किसी बड़े का साथ होना कितना जरूरी है । बूढ़ी भी यही चाहती थी। जीते जी तो नहीं हो पाया लेकिन आखिर मरने के बाद दोनों को साथ कर गयी। इसमें कुछ भी गलत नहीं था। सोमनाथ ने उन लोगों के घर का पानी भी नहीं पिया, केवल समाचार दिया, वो तस्वीर वापस की और वापस लौटने लगे। उन लोगों ने उन्हें बहुत रोकने की कोशिश की, दिखावे के लिए नहीं बल्कि इसलिए की अंत समय में वो बूढ़ी के साथ थे, उन्हें हरिलाल में अपनी माँ की कुछ झलक दिख रही थी, मानो माँ ही आखिरी बार आयी हो। लेकिन हरिलाल वहां न रूक कर उस गांव से थोड़ा दूर बने एक मंदिर में रुके। वहां जाकर उसने वहां के पंडित से बोला की रात होने को है, उन्हें वहां रुकने दिया जाए, सुबह होते ही वो चले जाएंगे। पंडित को कोई ऐतराज़ नहीं हुआ। बल्कि जब हरिलाल ने ये बताया की वो वानप्रस्थ पे निकले हैं, तो उस पंडित को आश्चर्य भी हुआ की इस कलयुग में कौन महात्मा पैदा हो गया। उसने उनका बहुत आदर किया और अपने घर से खाना भी लाना चाहता था, लेकिन हरिलाल ने मना कर दिया, थोड़े से मंदिर में चढ़े हुए प्रसाद लेकर ही संतुष्ट हो गए।


उधर हरिलाल के घरवाले थोड़े परेशान से दिख रहे थे, आखिर १६-१७ दिन बीत चुके थे और हरिलाल अभी तक वापस नहीं आये। हरिलाल की घरवाली अपने बेटे से-"२० दिना होइ गवा आज, आएं नाही तोहार बाबू? किशन अम्मा से- "अरे अम्मा आज अठारह दिना भवा बा" ,"कैसे?" किशन " देखा बाबू ६ तारीख के गए रहें और आज २४ हाउ"। अम्मा-"हाँ ता, दुइ दिना में २० होइ जाए ", देखा कब आवा थें ।" हरिलाल की घरवाली अपने बेटे से-"बेटवा, तनी पता करा की तोहार बाबू कहाँ रही गएँ । उनकी घरवाली एक एक दिन गिन रही थी। किशन भी बोलता है हाँ वो मालूम करेगा पीताम्बर चाचा के घर जाकर । इधर मंदिर की सीढ़ियों पे हरिलाल बैठे हुए थे। गांव के बच्चे आपस में खेल रहे थे। कुछ लोग पूजा के लिए आ रहे थे। कोई अपना समय बिताने, तो कोई हरिलाल से बात करने के लिए। भीड़ धीरे धीरे घट रही थी । तारे दिखाई देना शुरू हो रहे थे । गांव के कुत्ते भी धीरे धीरे अपनी आधी रोटी खाकर वहीँ मंदिर के पास आकर बैठ रहे थे। चूहे भी मंदिर में चढ़े हुए प्रसाद का कुछ हिस्सा अपने बिलों में ले जा रहे थे। दीपक की रौशनी में चीटियों की लाइने भी साफ़ दिख रही थी। झींगुर भी आपस में बाते करने लगे थे । हवायें धीरे धीरे ठंडी हो रही थी। हरिलाल ने ईश्वर को याद कर प्रसाद ग्रहण किया और वहीँ मंदिर के पास गमछा बिछा कर बैठ गए। बूढ़ी के घर वालों का विलाप उन्हें याद है। बूढ़े के मरने के बाद उनके दोनों बेटों में नहीं बनती थी, इसलिए वो दोनों अलग हो गए थे। छोटे ने नीचे वाला और बड़े ने ऊपर वाला घर ले लिया। अक्सर दोनों के बीच में झगड़े हुआ करते थे जैसा की गांव वालो ने बताया था । बूढ़ी कोशिश करती थी की वो दोनों फिर से एक हो जाएँ। बूढ़ी दिन का खाना छोटे के घर और रात का खाना बड़े के घर करती और कोशिश करती रही की ये दोनों फिर से मिल जाएँ, आखिर हैं तो दोनों उसी के बेटे या यूँ कह लीजिए की दो आँखें। बूढ़ी दोनों बहुओं में भी बटी रहती, लेकिन आखिर कब तक? एक दिन इसी से नाराज़ होकर बूढ़ी ने दोनों का घर छोड़ दिया था। अपने अंत समय में वो कितना अपने बेटों को याद कर रही थी। जरूरी नहीं है की रिश्ते हों तभी लगाव हो। ये परे हैं रिश्तों से। ये तो मन की बातें हैं, जैसे हरिलाल को हो गया था उस बूढ़ी से। उसके बच्चे भी कितना विलाप कर रहे थे। जब तक माँ-बाप रहें, उनकी सेवा करनी चाहिए। मृत्यु एक ऐसी घटना है जिसे सुन के सारे ईर्ष्या-द्वेष एक क्षण के लिए एकदम दूर हो जाते हैं। असल में हम अपने भविष्य को ही सोच कर दुखी होते हैं। जो मर रहा है या जो मर गया हो, उसकी कमी भविष्य में दिखाई देती है और यही शोक और दुःख का कारण है। अतीत की यादें तो हमेशा सुख देती हैं। जन्म और मृत्यु दोनों ही घटनाएं हैं लेकिन एक के होने से ख़ुशी और दूसरे के होने से दुःख क्यों होता है? क्योंकि जन्म भविष्य में एक नए व्यक्तित्व, एक नए अनुभव और एक नए जीव आत्मा का सृजन करता है जो कभी हमारे साथ पलेगा, बढ़ेगा, जिससे हम अपने विचार साझा कर सकेंगे, जबकि मृत्यु ठीक इसका उल्टा है और ये सारी चीजे हम से वापस ले लेता है वो भी तब, जब हमें इन सब की लत लग चुकी होती है और क्योंकि हम अपनी लत के हाथों मजबूर हो जाते हैं, बेबस हो जातें हैं, इसीलिए हम दुखी होते हैं। लेकिन उस बूढ़ी का क्या स्वार्थ था अपने बच्चों से? हाँ मान लिया की मोह था लेकिन वो भी निःस्वार्थ था। उसे अपने बच्चों से केवल इतना चाहिए था की दोनों मिल कर रहते तो इसमें गलत क्या था? हाँ उसे मृत्यु के वक़्त अपने बेटों को देखना था, तो वो भी गलत नहीं था, क्योंकि बूढ़ी ने उनको जन्म दिया था फिर जन्म से लेकर बचपन, जवानी सब में वो उन लोगों के साथ थी, जब अंत समय में उनका चेहरा देखना चाहती थी तो क्या बुरा था इसमें? कम से कम इसी संतोष के साथ मरती की उसके बच्चे खुश हैं और जो बीज उसने इस दुनिया में अपने बच्चों के रूप में बोया था, अब उन्हें ईश्वर ही संभालेगा।

एक किसान भी तो अपनी फसल और लहलहाते खेतों को देख कर संतुष्ट होता है। अगर मृत्यु के समय संतुष्टि हो जाए तो इसमें बुराई क्या है? बल्कि मैं तो समझता हूँ की ये, सब से अच्छा है। संतुष्ट बनना अलग बात है और संतुष्ट होना अलग। चिंतन करते हुए जाने कब उन्हें नींद आ गयी। उन्होंने देखा की उनकी घरवाली उनसे पूछ रही है की स्कूल कब से खुलेगा? और वो अचानक से उठ जाते हैं। रात कब बीत गयी पता भी नहीं चला। भोर हो चुकी है । पक्षी एक दूसरे को जगाने में लगे हुए हैं । दूर कहीं से मुर्गे के बाग़ देने की आवाज आ रही है। झींगुरों का वार्तालाप अभी भी चल रहा था। कुत्ते भी एक नई उमंग के साथ एक दूसरे से खेल रहे थे । कौए एक दूसरे को समझा रहे हैं की आज पूरब की तरफ कौन जाएगा और उत्तर की तरफ कौन। रात की कालिमा धीरे धीरे भोर की लालिमा में विलुप्त हो रही थी। हरिलाल वहीँ कुएं के पास नहा-धो कर मंदिर की सीढ़ियों पे बैठ जाते हैं । अब आगे कहाँ जाना है ? वहां के पंडित ने उन्हें सुझाव दिया की एक-दो दिन वहां के स्कूलों में अपना उपदेश दें । हरिलाल तो पहले भी विद्यार्थियों को पढ़ाते ही थे और स्कूल के कार्यालय में भी थोड़ा काम वाम करके अपनी रोज़ी रोटी भी देख सकते हैं। फिर पंडित वहां से चला गया। मास्टर जी ने थोड़ा सोचा की अगर पेट भरना है तो घर घर माँगना ठीक नहीं होगा और फिर रोज़ रोज़ कौन भिक्षा देगा। लेकिन रमता जोगी बहता पानी। एक जगह रुकना भी ठीक नहीं। चलो एक-दो दिन इस स्कूल में तो एक-दो दिन दूसरे स्कूल में। आज यहाँ तो कल कहीं और। फिर हरिलाल ने ऐसा ही किया। कभी इस स्कूल तो, कभी उस स्कूल। यहाँ के स्कूल अभी भी खुले हुए थे। हरिलाल कभी हिंदी तो कभी गणित समझाते थे। प्रधानाचार्य भी उनका बड़ा अभिनन्दन करते थे। खाने में किसी न किसी मास्टर के घर से, तो कभी, फल खाकर पेट भर लेते थे और शाम को किसी न किसी मंदिर में ठहर जाते थे। ३-४ दिन बीत गए। कुछ स्कूलों में वैदिक गणित के भी अध्याय थे जो की हरिलाल ने कुछ दिन में सिख लिया। उन्होंने पाया की वैदिक गणित के प्रयोग से बहुत ही कम समय में जटिल से जटिल प्रश्नों का हल सुगमता से निकला जा सकता है। अंकगणित, बीजगणित, समतल ज्यामिति , ज्योतिर्विज्ञान, कलन आदि सभी क्षेत्रों में वैदिक सूत्रों का अनुप्रयोग समान रूप से किया जा सकता है। जगद्गुरू स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ द्वारा विरचित वैदिक गणित अंकगणितीय गणना की वैकल्पिक एवं संक्षिप्त विधियों का समूह है।

एक गांव में उन्होंने देखा की केवल संस्कृत ही बोली जाती है। वहां का बच्चा बच्चा भी संस्कृत में ही बात करता है। हरिलाल ये तो जानते थे की संस्कृत को देव-भाषा कही गयी है । लेकिन इसका विस्तृत अध्ययन उन्हें उस गांव के स्कूलों में मिला। यहीं पर उन्होंने जाना की संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है, अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। इस प्रकार से हरिलाल कुछ न कुछ, कहीं न कहीं से सीखते भी जा रहे थे और सिखाते भी।

वैसे तो हरिलाल का मन बहुत मजबूत था लेकिन घरवालों से दूर होकर थोड़ा कमजोर पड़ने लगे थे। घर की थोड़ी थोड़ी चिंता सी होने लगी। यह संसार मोह-माया से लिप्त है, कहीं निःस्वार्थ का स्वरुप है तो कहीं स्वार्थ की छाया। पुरानी यादें मन को द्रवीभूत करती हैं लेकिन मन है की उन्ही यादों से घिरा रहना चाहता है । वो अपने संकल्प की शक्ति से अपने मन की आवाज़ को हर पल दबाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन मन तो आखिर मन ही है। भावना के आगे कितना ढृण रहेगा, और जब भावना में छल-कपट या स्वार्थ न हो तो और भी मुश्किल। ये भावना अग्नि के उन सात वचनों से लिपटी है जिसमे जीवन के हर मोड़ पर साथ रहने की बात थ । जो शिक्षा और ज्ञान वो यहाँ पे बाँट रहे हैं वही तो वो अपने स्कूल में भी बाटते थे। निःस्वार्थ तो वो पहले भी थे । मोह तो था, लेकिन ये स्वार्थ था, या निःस्वार्थ, ये उस समय नहीं पता था। कभी कभी सपने में ही घरवाली को देख लेते थे। कहते हैं की अगर मन के तार काफी मजबूती से जुड़े हो तो दूरियाँ प्रभाव नहीं डालती। मन थोड़ा व्याकुल सा होने लगा था। बुढ़ापे में पति पत्नी ही एक दूसरे का सहारा होते हैं, और इसी वचन से तो अग्नि ने भी हमे बाँध रखा है। कभी कभी हरिलाल रात में, एकांत में अक्सर सोचते थे की जो वो कर रहे हैं, क्या वो ठीक है? या फिर मेरा मोह मुझे बार बार ये सोचने पे मजबूर करता है। कभी कभी तो एकदम से खुद को ही जवाब देते थे-“हाँ ये मोह है लेकिन निःस्वार्थ है, मुझे उसकी चिंता है क्योंकि वो मेरे भरोसे ही अपना घर छोड़ के आयी थी और अब मैंने उसे छोड़ दिया।“

कुछ समय और बीतने के बाद उन्हें अहसास होने लगा था की वानप्रस्थ के लिए जरूरी नहीं है की वन की तरफ ही जाया जाय, अगर आपके अंदर संतोष की भावना आ चुकी है, आप जो कर रहे हैं अगर उसमे स्वार्थ नहीं छुपा है, और जिसमे जन-कल्याण की भावना निहित है, जिसके लिए अपने घर व पराये समाज में कोई अंतर न हो और जो अपने किये गए कर्मो को निःस्वार्थ भाव से ईश्वर को समर्पित करता हो वही वानप्रस्थी है।

हरिलाल को डेढ़ महीने हो गए थे वानप्रस्थ का सही मतलब समझने में। एक स्कूल से दूसरे स्कूल। एक गांव से दूसरे गांव। एक शहर से दूसरे शहर । उन्होंने ये भी महसूस किया की जब वे अपने गांव में थे तो ज्यादा संतुष्ट थे। वानप्रस्थ के लिए आत्मा और मन का संतुष्ट होना अनिवार्य शर्त है। उन्हें लगने लगा था की इस तरह घर से दूर होकर वानप्रस्थ करना केवल एक मजबूरी बन कर रह गया है। और मज़बूरी में किया गया पुण्य कार्य कभी भी ईश्वर तक नहीं पहुँचता। उनकी आत्मा गावं लौटने की तरफ इशारा कर रही थी। इस बार तो दिमाग भी विरोध नहीं कर रहा था। गांव वापस लौटने की इच्छा मात्र से ही वो अपने अंदर एक सूख की अनुभूति महसूस कर रहे थे। उनके अंतर्मन में एक धनात्मक स्फूर्ति की तरंगे उठ रही थी। उनका वचन भी उन्हें वापस बुला रहा था। ये भाग्यवान-प्रस्थ उनके वानप्रस्थ पर भारी पड़ रह था । सो उन्होंने गांव वापस चलना ही मुनासिब समझा। लेकिन हाँ अपने आप से ये भी संकल्प किया की गांव वापस जाकर वानप्रस्थ के कुछ नियमों का पालन निरंतर करेंगे क्योंकि ये नियम मनुष्य-मात्र के शारीरिक और मानसिक विकास के साथ साथ सामजिक सुधार के लिए बनाये गए थे। उन्हें अब जाकर एक सही दिशा मिली। वो अब पहले से ज्यादा अपने आप को संतुष्ट और खुश अनुभव कर रहे थे, वो इसलिए की जब उन्होंने घर से निकलने का संकल्प लिया था तो उन्हें हर वक़्त यही चुभता था की उन्हें अपनी पत्नी को इस तरीके से छोड़ कर नहीं आना चाहिए था। उन्हें चिंता थी की उनका दिया गया एक वचन टूट रहा है। उनके मन में किसी चीज का स्वार्थ नहीं था लेकिन एक निःस्वार्थ चिंता ज़रूर थी, अपनी जिम्मेदारी को लेकर।

वो शायद तन से वानप्रस्थी बनने चले थे, लेकिन एक लम्बे वियोग व डेढ़ महीने के अनुभव से अब वो मन से वानप्रस्थी हो चुके थे। उन्होंने तय कर लिया था की गांव लौट कर वानप्रस्थ के नियमो का सही और नए तरीके से पालन करेंगे। जिनमे शिक्षा और अनुभव का दान, शिष्यों के बौद्धिक विकास के लिए वैदिक गणित का प्रचार और प्रसार, संस्कृत भाषा में छिपे रहस्यों को जन सामान्य से अवगत कराना, इन सब के साथ ही अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियों को निःस्वार्थ भाव से निभाना। प्राचीन काल में गुरुकुल हुआ करते थे । जो लोग सन्यासी थे वो ज्ञान और उपदेश अपने आश्रम में ही दिया करते थे । ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले विद्यार्थी उनके शिष्य हुआ करते थे। वो भी तो सन्यासी ही थे। अपनी जिम्मेदारियों को पूरी निष्ठां से निभाना भी तो वानप्रस्थ के नियम के अंतर्गत ही आता है।

अपने वचन को छोड़कर हरिलाल मोक्ष भी नहीं पाना चाहते। वानप्रस्थ के लिए संतुष्ट होना अनिवार्य शर्त होनी चाहिए। अगर आप असंतुष्ट हैं तो फिर ये तो केवल एक बोझ सा हो जाएगा। फिर आप हर काम उस बोझ से दबकर करेंगे, हो सकता है की दिखावा भी आ जाए। असल में वानप्रस्थ दिखावा नहीं होता बल्कि अपने आप को, अपनी आत्मा से और अपनी आत्मा को ईश्वर से जोड़ने का एक माध्यम होता है। एक ऐसा माध्यम जिसमे सारे कर्म निःस्वार्थ और शुद्ध होते हैं, कोई छल -कपट नहीं होता, कोई अपना-पराया का भाव नहीं होता।

हरिलाल का रूख अब उनके गांव के तरफ होने लगा था। पंछियों का झुंड दाना लेकर अपने बच्चों की तरफ लौट रहा था। रात मंदिर में गुजारने के बाद सुबह की पहली किरण के साथ ही उन्होंने वापसी यात्रा की शुरुआत की। बैलगाड़ी, बस और फिर रेलगाड़ी। इस एक महीने और बीस दिनों के समयांतराल में उन्होंने अनेक अनुभवों को इकट्ठा किया। कई प्रकार के छिपे हुए रहस्यों से भी अवगत हुए। भावना, संकल्प, जिज्ञासा और वचन के चक्रव्यूह से जूझकर और सब को साथ में लेकर, एक समाधान निकाला। असल में वानप्रस्थ कोई कर्म नहीं बल्कि एक विचार है जो की मनुष्य के लिए बनाये गए थे, जिससे की वो अपने परिवार के प्रति अपनी मूल जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद अपने अनुभव से समाज के प्रति भी अपना योगदान दे, जिससे प्रकृति का संतुलन बना रहे । ये पशु-पक्षी, ये पेड़-पौधे व प्रकृति द्वारा बनाये हुए पांचों तत्त्व निरंतर इस संतुलन में अपना योगदान दिए जा रहे हैं। ये सभी चीजें प्रकृति द्वारा संचालित होती हैं, इसलिए ये प्रकृति के विपरीत नहीं हैं। केवल मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो प्रकृति द्वारा पूर्ण रूप से संचालित नहीं हो पाया । वैसे तो मानव भी पूर्ण रूप से प्रकृति पर निर्भर है लेकिन इसके अंदर प्रकृति के विपरीत कार्य करने की भी क्षमता है। हालां की ऐसा करके वो अंततः अपना ही विनाश करता है। अगर हम अपने समाज के प्रति और अपने वातावरण के प्रति जिम्मेदारियों का निःस्वार्थ भाव से पालन करें तो असल में हम सभी वानप्रस्थी कहे जाएंगे।

हरिलाल के दिमाग में अब विचारों की उथल-पुथल नहीं थी, बल्कि एक सीधी रेखा थी। इसी रेखा से उनके संकल्प और उनके वचन जुड़े चले जा रहे थे, जिस तरह सीधी पटरी पर रेलगाड़ी चली जा रही थी। सूरज पश्चिम में चला जा रहा था। रास्ते छोटे होते जा रहे थे..... झींगुरों की आवाज़ गाड़ी की छुक-छुक में दबी जा रही थी और लोगों की बातें अब उनके ख़र्राटों में…।

 

 

 

 

 



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