झोला और छाता

झोला और छाता

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वैसे तो मुझे मेरे जन्म की तारीख ठीक से याद नहीं। मेरे पूर्वजों के उद्भव और विकास की कई झलकियां प्राचीन महाकाव्यों में मिल जाएंगी, लेकिन मेरा जन्म उस दिन हुआ था, जिस दिन मुझे बनवाया गया था, मुझे बनवाने वाले कोई और नहीं, मेरे बाबू जी थे। शायद कोई ४०-४५ साल पहले की ही बात होगी। बाबू जी को खादी से कुछ ज्यादा ही लगाव था। वो कुर्ता भी खादी का ही पहनते थे। उनका कहना था की खादी हमारे देश की पहचान है, इसीलिए उन्होंने मुझे भी खादी के मोटे और मजबूत कपड़े से बनवाया था। उस समय बाबू जी ने मज़ाक में कहा था -" ऐसा मजबूत झोला बनाना की, हम रहे ना रहें ये झोला जरूर रहे।" जी हाँ, मैं झोला ही बोल रहा हूँ। हर घर में पाया जाने वाला एक घरेलू झोला। मुझे याद है, जब मेरी बाहें पहली बार बाबू जी के कंधे को पकड़ कर झूली थीं, जैसे कोई छोटा बच्चा अपने पिता के कन्धों को पकड़ कर उन पर चढ़ने की कोशिश कर रहा हो। शुरू-शुरू में, जब मैं नया था, बहुत ही कम भार उठाना पड़ता था, जैसे एक-दो खाते की कॉपी, एक पेन। शायद वही मेरा बचपन रहा होगा, कोई २-४ दिनों का। उसके बाद मैं बहुत जल्दी जवान हो गया व रोज़मर्रा के बोझ उठाने में बाबू जी का बराबर साथ देने लगा। मैं इतना मजबूत था की ३० किलो के तरबूज़ भी उठा लेता था। लेकिन बाबू जी के कंधे शायद इतने मजबूत नहीं थे, सो वो मेरी बाहों को कंधे से हटाकर साइकिल के हैंडिल में टांग कर या फिर पीछे वाली सीट पर रख लेते थे।

मुझे याद है की जिस दिन वो मुझे बनवाकर दर्ज़ी की दुकान से ला रहे थे, उस दिन बारिश भी काफी हो रही थी। वो एक दुकान में खड़े हो कर बारिश से बचने की कोशिश कर रहे थे। उसी फुटपाथ पर एक छाते वाले ने दुकान लगाया हुआ था। बाबू जी ने थोड़ा मोलभाव कर के उस जगह से एक छाता भी ख़रीद लिया था। काले रंग वाला, मजबूत कपड़े का बना हुआ छाता। तो इस तरह से मेरे और छाते का जन्म एक ही दिन हुआ क्योंकि हमें एक ही दिन गोद लिया गया था। हम दोनों का स्वामी व पिता एक ही था, बाबू जी। तभी से हमारी दोस्ती भी हो गयी। छाते ने बचपन के दिन नहीं देख पाए, क्योंकि जिस दिन बाबू जी ने इसे ख़रीदा ठीक उसी दिन से इससे भरपूर काम लेने लगे। अगस्त-सितम्बर की मूसलाधार बरसात हो या फिर मई-जून की चिड़चिड़ाती हुई धूप, हर समय बाबू जी छाते को लिए रहते। हमारी मित्रता इतनी गहरी थी की हम जहाँ भी जाते, साथ ही जाते। जब बाबूजी अपनी दुकान से घर लौटते तो भी हम दोनों को एक ही खूँटी पे टांगते।

बाबू जी का व्यक्तित्व एकदम सरल व शांत प्रकार का था, वो ईमानदारी में ही विश्वास करते थे। उनका कहना था की काला धन जहाँ से आता है, वहीँ चला भी जाता है, ये कभी भी नहीं फलता। सादा जीवन उच्च विचार। बाबूजी की एक किराना की दुकान थी। आटा, दाल, चावल, चीनी, अचार, मसाले, टाफी, बिस्किट आदि, लगभग सभी चीजें उनकी दुकान में मिल जाती थीं। इसीलिए उनके ग्राहक भी बहुत हुआ करते थे। उनका कहना था की ग्राहक भगवान का स्वरुप होता है, वो खाली हाथ नहीं लौटना चाहिए। कभी भी कोई मिलावटी सामान नहीं बेचते थे, अगर किसी चीज में मिलावट दिखी, जैसे की सरसों के तेल में, वो उसी क्षण उसे दुकान से बाहर कर देते थे, फिर भले ही उनको नुकसान क्यों न हो जाए। लेकिन लोगों को क्या है, सस्ता माल चाहिए। मैंने तो कुछ लोगों को भी देखा था जो ये कहते थे की- बलराम की दुकान पे तो तेल ४० रुपये लीटर है और तुम ५० रूपए लीटर दे रहे हो।" तब बाबू जी भी जवाब देते थे-" भाई, वो जो तेल बाहर डिब्बे में पड़ा है न, वो ३८ रूपए लीटर है लेकिन मिलावटी है, और जो दुकान के अंदर तेल रखा है वो ५० रूपए लीटर है, लेकिन एकदम शुद्ध है" …खैर।

लगभग तीन-चार महीने बाद हमें बाबूजी का नाम मालूम चला। असल में जो भी हमारे घर आता वो बाबूजी को उनके नाम से नहीं पुकारता था। कोई बाबूजी, कोई बड़े भैया, कोई चाचाजी, तो कोई लालाजी कहता। उनकी पत्नी (अम्मा) भी उन्हें, ' सुनते हो' कह के बुलाती थीं। डाकिया भी भैया ही कह कर बुलाता था। एक दिन कोई बाबूजी का मित्र आया था, वो उनको 'नंदलाल' कह के सम्बोधित कर रहा था, तब हमें मालूम चला की उनका नाम 'नंदलाल' है। अम्मा का नाम 'प्रभावती' था। एक दिन अम्मा के बड़े भैया आये हुए थे, वो 'प्रभावती' नाम से पुकार रहे थे। तब हमें भी मालूम चला, अम्मा का असली नाम। बाबूजी का बचपन मुगलसराय में बीता था, लेकिन जवानी में वो राजातालाब आ कर बस गए थे, वहीँ पे अपना दुकान संभालने लगे। बाबूजी के तीन बेटे थे, सबसे बड़ा 'कुंजलाल', मझला 'बृजलाल' और सबसे छोटा 'बंशीधर'। एक बेटी भी थी,'माधुरी'। सभी बेटे, बेटियों की शादियाँ हो चुकी थीं। कुंजलाल की सरकारी नौकरी थी, सो अपने बीवी बच्चों के साथ बाहर ही रहते थे। उनके एक बेटा, 'अंशु' व एक बेटी, 'प्राची' भी थे, जो कभी कभी घर आया करते थे। बृजलाल और बंशीधर, बाबूजी के दुकान में हाथ बटाते थे। बृजलाल की दो लड़कियाँ 'सोहानी ' और 'साक्षी' थीं। बंशीधर की एक लड़की थी,'सोनाली'।

सभी बेटे, बेटियों की शादियाँ हमने देखी थी व बाबूजी की ही भांति हमने भी अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को निःस्वार्थ भाव से निभाया था। बाबूजी की मेहनत व लगन के पसीने को हमने कितनी बार सोखा था, उसके धब्बे आज भी मेरी पट्टी और छाते के हैंडिल पर साफ़ साफ़ दिखते हैं। कुंजलाल तो बाहर ही रहते थे, सो उन्हें दुकान से कोई मतलब नहीं था। बंशीधर भी कुछ दिनों तक दुकान में दिखे, लेकिन उनका भी मन इस छोटी सी दुकान में न लगा। केवल बृजलाल और बाबूजी ही बचे, जो दुकान में दिन-रात लगे रहते थे।

अम्मा को हम लोगों ने ज्यादा काम करते हुए नहीं देखा। दुकान में बैठना तो दूर, वो घर का भी काम नहीं करती थीं। क्योंकि जब वो ब्याह कर आयीं थीं तो उनकी ननद ने सारा काम-काज देखा, फिर घर की बड़ी भाभियों ने। फिर उनकी बेटी ने, और बेटों की शादी होने के बाद, बहूओं ने। वहीँ दूसरी तरफ हमारे बाबूजी, अम्मा के हिस्से का काम भी उन्हें ही करना पड़ता था। बाबूजी उनको कुछ बोलते ही नहीं थे। अम्मा का लगाव उनके छोटे बेटे, बंशीधर से कुछ ज्यादा ही था। शायद इसी लगाव की वजह से उनकी नज़रें भी अलग-अलग हो गयीं थीं। हम दोनों ने बेटों की शादी के बाद से अम्मा के व्यवहार में कई बदलाव देखे। है न छाते ?- झोले ने छाते की तरफ देखते हुए उससे पूछा। छाता- हाँ भाई। फिर छाते ने बोलना शुरू किया। अम्मा की अपने मझली बहू से नहीं पटती थी। पता नहीं क्यों ? लेकिन एक दिन हमने सुना था, वो अपनी बेटी से कह रही थी की, “कैसी काली बीवी लाइ है बृजलाल ने।“ हम दोनों तो वहीँ आँगन में टंगे थे। दहेज़ की भी बातें हो रहीं थीं। अम्मा को मझली बहू की दो बातें चुभती थीं। पहली ये की मझली बहू एक अमीर घराने से थी, लेकिन दहेज़ में कुछ भी सामान नहीं लाई थी और दूसरी ये की वो अपने खेतों में काम किया करती थीं, इसलिए वो सावली हो गयीं थी। जबकि अम्मा को गोरी बहू चाहिए थी। कुछ महीनों तक तो मझली बहू ने काफी ताने सुने, उसके बाद वो भी अम्मा को जवाब देने लगी थी। आखिर कोई कब तक सुनता ? दिन महीनों में, और महीने साल में बीतते गए। तारीख का कलेण्डर भी वहीँ हमारी खूटीं के सामने वाली दिवार पे टेंगा था। कलेण्डर से हमारी दोस्ती उतनी गहरी नहीं हो पाती थी, क्योंकि हर साल उसे बदल दिया जाता।

हमें याद है की जब मझली बहू को पहली लड़की हुई थी,'सोहानी'। घर में काफी ख़ुशी का माहौल था, लेकिन अम्मा का मुँह बना हुआ था। शायद लड़की हुई थी इसलिए, या फिर 'मझली बहू' के लड़की हुई थी, इसलिए, पता नहीं ? जब साक्षी हुई, तब भी वही चेहरा। हाँ जब बड़ी बहू के बेटा-बेटी हुए थे तो वो खुश थीं, और जब बंशीधर के एक बेटी हुई तो बहुत ज्यादा खुश थीं। शायद उनको मझली बहू से ही खुन्नस रही होगी, इसका सबूत वो आगे भी समय-समय पर देतीं रहीं। मझली बहू के कारण अम्मा को अपने मझले बेटे से लगाव भी धीरे धीरे कम होता रहा। उन्हें तो केवल अपने छोटे बंशीधर की ही चिंता रहती थी ।

माता के विषय में तो अपने शास्त्रों में भी मातृ देवो भवः’, अर्थात- माता देवताओं से भी बढ़कर होती है।‘माता गुरुतरा भूमेरु।‘, अर्थात- माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती है।

 

लेकिन अम्मा के लिए ये परिभाषा कुछ ठीक नहीं बैठ रही थी। ये श्लोक हमने बाबूजी के मुख से सुना था, जब वो बृजलाल को समझा रहे थे। बंशीधर का मन दुकान में नहीं लगता था। वो कम समय में ज्यादा कमाने का तिकड़म लगाता फिरता। मझली बहू बंशीधर को अपने बेटे जैसा प्यार करती और बृजलाल भी उसपर जान छिड़कते थे। जो भी सामान, कपड़ा आदि बंशीधर को पसंद आता, वो तुरंत ख़रीद कर देते, फिर चाहे भले ही उनका खून, पसीना बन जाए। सरकारी नौकरी में होने की वजह से कुंजलाल का ट्रांसफर अलग-अलग शहरों में होता रहता। उन्होंने कहीं एक जगह मकान नहीं ख़रीदा और न ही बनवाया। उनके नौकरी के बीस-पचीस सालों बाद कहीं एक जगह, शायद ‘वाराणसी ‘में, एक ज़मीन देख ली थी। उन्होंने सोचा था की रिटायर होने के बाद वहीँ, वाराणसी में रहेंगे। कभी कभी दीवाली, होली या किसी कार्यक्रम पर, वे लोग घर आते तो एक अजीब सा सुकून मिलता सब को साथ में देख के, बाबूजी, अम्मा, तीनों बेटे, तीनों बहूएं और उन सबके बच्चे। सोहानी व अंशु तो मुझे व झोले को लेकर बाबूजी जैसा बनने का नाटक करते और फिर जोर-जोर से हँसते।

रिश्ते में हम दोनों भी तो इन बच्चों के चाचा ही लगते हैं। अम्मा ने सोहानी और साक्षी को दादी का प्यार नहीं दिया। मालिश करना तो दूर, अम्मा ने इन्हे कभी भी अपनी गोद में नहीं उठाया। जब ये दोनों छोटी थीं, ये अक्सर रोया करती थीं, लेकिन अम्मा को जैसे इनका रोना सुनाई ही नहीं देता था। मझली बहू ही सब कुछ करती थी, खाना बनाना, बर्तन धोना, कपड़े साफ़ करना, झाड़ू-पोछा करना फिर बच्चे को दूध पिलाना, उनको शांत कराना, उनकी मालिश करना, नहवाना और साथ ही साथ जब बृजलाल दुकान का सामान खरीदने बाहर जाते थे तो दुकान भी देखना। सारा दिन व्यस्त रहती थी। आज बाबूजी ने बाजार से भूंजी हुई ढेर सारी मूंगफलियां लाई थी। अम्मा, बाबूजी, सोहानी, बृजलाल, बंशीधर मिल के मूंगफली खा रहे थे और बातें कर रहे थे। सोहानी मूंगफली के छिलकों में से दाने खोज रही थी, और अगर उन फेके गए छिलकों से एक दाने भी उसको मिलता, तो वो उसकी सब से बड़ी जीत होती। ये पल तो बड़े गिने चुने ही मिलते हैं जब सब लोग साथ बैठ के बातें करें, वर्ना कल किसने देखा है। पता नहीं ऐसे पल रहे ...ना रहें। अम्मा का एक कमरा अलग से बना हुआ था, उसी में बाबूजी व अम्मा रहते थे। बाबूजी ने अपनी मेहनत से काफी बड़ा घर बनवाया व बगल में एक छोटा सा प्लाट भी ले लिया था। साक्षी की एक हरकत सबका मन मोह लेती थी। उसे एक प्लास्टिक की बड़ी सी पन्नी मिल गयी थी। उस पन्नी में वो दुनिया भर के सामान बटोर कर रखती, कोई भी चीज जो उसे अच्छी लगती जैसे, माँ की लिपस्टिक, जूते की बद्धी, पेन का ढक्कन, चश्मे का निकला हुआ शीशा, कपूर की छोटी डिब्बी, दीपावली के बुझे हुए दीपक, प्लास्टिक के टूटे हुए खिलौने, रंग-बिरंगी पेंसिल के छोटे टुकड़े, टॉफी का कवर, पेन की खाली रिफिल, स्याही की दवात, इत्यादि। जब भी कोई सामान गुम हो जाता, लोग उसी पे शक करते। उसके जागते हुए तो कोई उसके सामान को हाथ नहीं लगाता, लेकिन उसके सोने के बाद, लोग उसकी पन्नी खोल के देखते की कहीं उनका तो कोई जरूरी सामान उसने न रख लिया हो। लोगों को गुस्सा भी आता, व हंसी भी। अम्मा ने अपने कमरे में मझली बहू को आने से मना किया था। एक दिन सोहानी घुटने के बल डोलते हुए अम्मा के कमरे में चली गयी, तो अम्मा ने उसे खींच कर घसीटते हुए बाहर निकाल दिया। मुझे तो रोना ही आ गया था। उस समय बाबूजी घर के बाहर किसी मेहमान से बातें कर रहे थे। एक नारी होते हुए भी अम्मा ने ऐसा क्यों किया ? बाबूजी अम्मा की हरकतों से भली-भांति परिचित थे, वे उन्हें समझाते भी थे, लेकिन अम्मा जैसे ठान के बैठी हों की, मझली बहू और उसके बच्चों से नफरत ही करनी है। बाबूजी अपना पूरा समय केवल दुकान को ही देते थे। दिन-रात केवल दुकान की बढ़ोत्तरी के बारे में सोचते। पारिवारिक मत-भेदों से उनका कोई वास्ता ही नहीं था, वो एकदम शांत प्रवृत्ति के आदमी थे। सभी बेटों और बहूओं को समान भाव से देखते।


बाबूजी की दुकान में चूहों के भी ढेर सारे परिवार पलते थे। लगभग दस-पंद्रह पीढ़ियाँ तो हमने भी देखी होंगी। इन्ही चूहों की बदौलत, बाबूजी को कभी कभी दर्जी की दुकान के भी चक्कर लगाने पड़ते थे। कुतरने की आवाजें दिन भर दुकान में गूंजती रहती। कभी मेरा कपड़ा कुतरा गया, तो कभी झोले की थैली। लेकिन जब भी गए दर्जी के पास, हम दोनों की ही मरम्मत साथ-साथ हुई। समय बीतता गया, चूहों का परिवार भी बढ़ता गया, लेकिन उनके घर उसी दुकान के एक कोने में ही रहे। सारे चूहे वहीँ रहते थे, वहीँ...उसी एक बिल में। उन्हें अलगाव का शायद मतलब भी नहीं पता था। कैसे पता हो, क्योंकि ये शब्द और इसकी परिभाषा तो इंसान के दिमाग की उपज है। ईश्वर की बनाई हुई रचनाओं में सबसे श्रेष्ठ प्राणी है , 'इंसान'। ये इंसान इतने समझदार होते हैं की हर जगह अपना फायदा ढूंढ ही लेते हैं...रिश्तों में भी। जब सोहानी और साक्षी स्कूल जाने लगे तो घर के खर्चे भी बढ़ गए। अभी भी बंशीधर कोई ढंग का काम नहीं करते थे, इनकी बेटी, ‘सोनाली’ अभी स्कूल नहीं जाती थी। फिर अचानक से अम्मा को ग़लतफहमी हो गयी की बृजलाल दुकान के पैसे अपने पास छुपा लेते हैं। आखिर बेटियाँ स्कूल जाने लगी हैं और भविष्य में उनके हाथ भी तो पीले करने होंगे। लेकिन मुझे पता है की ये बात एकदम झूठ थी, मैं और झोला तो वहीँ दुकान में ही बैठते थे बाबूजी के साथ। वैसे भी बृजलाल, बाबूजी की तरह ही ईमानदार आदमी थे। कोई भला अपने ही पैसे क्यों चुरायेगा ? ये केवल अम्मा के दिमाग की घास थी जो पनप रही थी, और उसे पानी दे रहीं थी उनकी बेटी माधुरी व कुछ मोहल्ले वाले। मोहल्ले वालों का क्या है न की ये बड़े ही परोपकारी किस्म के जंतु होते हैं। इन्हे अपने से ज्यादा चिंता, दूसरों के घरों की होती है। दूसरा इतनी तरक्की कैसे कर रहा है ? दूसरे के घर में इतनी खुशियाली कैसे है ? तीन-तीन बेटे हैं फिर भी बाबूजी को दुकान में दिन-रात खटना पड़ता है, अभी भी तीनों बहूएं एक में कैसे हैं ? अम्मा के कोई पैर क्यों नहीं दबाता ?...आदि।

बाबूजी के यहाँ भैसें भी पलती थीं। लगभग छः-सात किलो दूध तो रोज़ का था, जो की पर्याप्त था । लेकिन कहते हैं ना की जिसे किसी की बुराई करनी हो, वो छोटी छोटी चीजों में भी अपना स्वार्थ सिद्ध कर ही लेता है। जैसे की अम्मा ने उदाहरण दे ही दिया। एक दिन वो मझली बहू से कहने लगी की तुम्हारे बच्चे सारा दूध पी जाते हैं, बंशीधर के बच्ची को दूध नहीं मिल पाता। फिर कुछ दिनों के बाद वो कहने लगीं की मझली बहू दूध चुरा के रख लेती है बृजलाल के लिए, बंशीधर रात में आता है तो उसे भूखा ही सोना पड़ता है। मैं तो हैरान था की अब बात यहाँ तक आ पहुंची है। बृजलाल अपनी बीवी की नहीं सुनते थे, उन्हें लगता था की अम्मा सच बोलती हैं और उनकी बीवी झूठ। बृजलाल स्वभाव में एकदम अपने बाबूजी जैसे थे, हर वक़्त केवल दुकान की चिंता। घर में क्या चल रहा है, उन्हें कोई मतलब नहीं था। ऐसी छोटी-छोटी बहुत सी बातें थीं, जो मिलकर एक बड़े नतीजे की ओर इशारा कर रहीं थी। फिर वो शाम भी मुझे याद है जब अम्मा ने बँटवारा करा के ही माना। वो जून की रात थी। कुंजलाल भी छुट्टी मनाने आये हुए थे। हालांकि बाबूजी ने कभी नहीं सोचा था की चूल्हे के भी टुकड़े होंगे। उन्हें इसका भी एहसास था की अगर शुरू से ही अपनी बीवी पे काबू रखते तो आज ऐसी नौबत नहीं आती। बृजलाल ने अपनी मेहनत से बाबूजी का मन मोह लिया था। उसे अलग करते हुए उनके हाथ कांप रहे थे, उस कम्पन को मेरे हैंडल ने महसूस किया था। उनकी उंगलियां रह-रह कर मेरी हैंडल को दबाती, और जुबान फैसले करते। तभी झोला बोल पड़ा- हाँ छाते भाई, तुम सही कह रहे हो। मैंने देखा था वो पल, मैं तो वहीँ सामने ही टंगा था। वो बार बार तुम्हारे हैंडल को कन्धा समझ कर तुमसे सहारा लेते। आदमी कमजोर नहीं होता, लेकिन बड़े फैसलों के आगे उसकी ताकत बौनी लगती है। बृजलाल के सामने अम्मा ने दो रास्ते रखे थे, या तो वो बने-बनाए मकान का एक हिस्सा ले या फिर बगल वाली प्लाट ले ले। बृजलाल ने अम्मा का ये रूप पहले कभी नहीं देखा। वो समझ नहीं पा रहा था, की बँटवारे की जरूरत क्यों आ पड़ी ? फिर उन्होंने सारा फैसला अम्मा पे ही छोड़ दिया। यह निर्णय लिया गया की, खाली प्लाट बृजलाल के हिस्से में जाएगा, दुकान व घर कुंजलाल और बंशीधर के हिस्से में। अम्मा ने यहाँ भी दिमाग लगा दिया, बना-बनाया घर बंशीलाल के हिस्से में गया, उन्हें पता था की कुंजलाल तो हमेशा बाहर ही रहेंगे, तो फिर सारा घर बंशीधर व उसकी बीवी को ही मिलेगा। बाबूजी भी चुप थे, लेकिन वो मन ही मन ये जानते थे की बृजलाल हीरा है, वो अपनी मेहनत से कुछ ना कुछ अच्छा कर ही लेगा। बाबूजी ने कुछ रुपए बृजलाल के हिस्से में डाल दिए जिससे वो एक-दो कमरों का घर बनवा सके। घर बनने तक उन्होंने ये भी कहा की बृजलाल का परिवार इसी घर में रहेंगे। फिर ईंटे, बालू गिर गए और कुछ दिनों में एक कमरा बन कर तैयार हो गया। उसी समयांतराल में बृजलाल बाबूजी के साथ दुकान पर भी बैठते थे। बाबूजी ने उन्हें समझाया की वो भी एक दुकान खोल ले और धीरे धीरे कर के पूँजी लगाए। बाबूजी ने ये भी दिलासा दिया की वो कुछ पैसे और देंगे, जिससे वो दुकान के लिए शुरूआती सामान ले आ सके। पता नहीं कैसे ये बात अम्मा को मालूम चली। अम्मा ने बाबूजी को कसम दिया किया की वो अब अठन्नी भी बृजलाल को नहीं देंगे। बाबूजी मजबूर हो गए, चाह कर भी बृजलाल की मदद नहीं कर पाए। अंततः बृजलाल को घर बनवाने का काम बीच में ही रोकना पड़ा। एक कमरा बन चुका था व एक कमरा, उस कमरे के ऊपर बन रहा था। बृजलाल ने सोचा था की नीचे दुकान रख लेंगे व ऊपर वाले में परिवार रह लेगा। ऊपर वाले कमरे की छत पड़नी अभी बाकि थी। उन्होंने सोचा की अब ज्यादा पैसे तो हैं नहीं, या तो छत पड़ेगी या फिर दुकान खुलेगा। उन्होंने फैसला किया की दुकान खुलना ज्यादा जरूरी है, जब दुकान से पैसे आने लगेंगे, छत बनवाने का काम फिर शुरू कर लेंगे। बचे हुए पैसों से बृजलाल ने थोक के भाव में थोड़े से सामान खरीदे। जैसे तैसे कर के उसी एक कमरे में, बाबूजी के दुकान के थोड़ा बगल, एक छोटी सी दुकान खोल ली।


मुझे याद है, जब मैं बाबूजी के साथ बृजलाल का घर देखने गया था। अगस्त की दोपहर थी। आकाश में काले बादल बूंदे गिरा-गिराकर हलके हो रहे थे। उनके ऊपर वाले कमरे में छत तो थी नहीं, हाँ लकड़ियों और पेड़ों की सूखी डाल के ऊपर सफ़ेद पन्नी बिछी हुई थी, जगह जगह से पानी टपक रहा था, ईंटो के बीच में दबी सीमेंट कुछ ज्यादा ही ठंडी लग रही थी, पानी की एक पतली सी धारा सीढ़ियों से उतर रही थी, कुछ बिस्तर, कुछ बर्तन, बच्चों के स्कूल के बस्ते, वही पुरानी चारपाई जिसकी टूटी हुई कुछ सुतलियाँ नीचे झूल रहीं थी, पुराने कपड़ों के बोझ से लटकी हुई रस्सी, मक्खियों की भनभनाहट और दीवार के एक छोटे से मुक्के में रखी हुई दीया-बत्ती, जिसकी लौ से मुक्का काला पड़ गया था। काफी कुछ रखा था उस कमरे में या फिर शायद...कुछ भी नहीं। बाबूजी का ह्रदय भी पिघल गया होगा, उन्होंने बृजलाल को पैसे देने की बात की और ये भी कहा की जल्दी से जल्दी छत डलवा ले। लेकिन बृजलाल ने बाबूजी से पैसे नहीं लिए क्योंकि अम्मा ने उन्हें कसम दिलाई थी। अब भला अम्मा की कसम बृजलाल कैसे भूल सकता है, रही बात छत डलवाने की तो वो जल्दी ही पड़ जायेगी। फिर हमलोग नीचे दुकान में आ गए, वहां भी यही कोई २०-२५ कपड़े के साबुन, १०-१५ नहाने के साबुन, पार्लेजी बिस्कुट के २०-२५ पैकेट, कुछ खुली हुई टाफियां, डिब्बे में खुली दालमोट की नमकीन, तार पे लटके हुए शैम्पू की कुछ पुड़िया, बच्चों की कापियां, पेन्सिलें, पेन, ५-६ छोटे बोतलों में बालों वाला तेल, आदि। वहीँ ज़मीन पे बैठ कर सोहानी व साक्षी अपना स्कूल का काम कर रहीं थीं। स्कूल की सफ़ेद सर्ट के कॉलर पर जमी हुई काली मैल इस बात की ओर इशारा कर रही थी की साबुन का दाम उनके लिए कितना भारी पड़ रहा है। मझली बहू भी वहीँ दुकान में बैठे हुई थी, सामान बेच रही थी। लेकिन सामान ख़रीद कौन रहा था? दुकान के बाहर तो कोई था ही नहीं, या फिर था....शायद, दुकान के बाहर लगी पन्नी से टपकती हुई बारिश की कुछ बची हुई बूंदें, चबूतरे पे पड़ी हुईं कीचड़ की कुछ छीटें या फिर मिट्टी में पड़े हुए साइकिल के टायरों के निशान। असल में कोई भी नहीं आता था उनकी दुकान पे। वजह ? बाबूजी की दुकान। बाबूजी की दुकान काफी पुरानी थी, आस-पास के सारे लोग बाबूजी के ही ग्राहक हो चुके थे, ऊपर से अलगाव। बाबूजी के मुकाबले, बृजलाल की दुकान में बहुत ही कम सामान थे। अब ग्राहक तो वहीँ जाएगा, जहाँ उसे उसकी जरूरत का सारा सामान मिल जाए । इस बात को बाबूजी भी जानते थे, व बृजलाल भी। इसलिए उन्हें चिंता भी होती थी। वो अक्सर सोचा करते की बृजलाल की तरक्की कैसे हो ? मझली बहू व बृजलाल दिन भर दुकान में बैठे रहते, ग्राहकों का इंतजार करते। कभी-कभी एक-दो स्कूल के बच्चे आ जाते थे, पेंसिल या फिर टाफी खरीदने । बगल में बाबूजी की दुकान झमाझम चलती। इतने ग्राहक आते की बाबूजी को बैठने तक का समय नहीं मिलता, वहीँ दूसरी तरफ, बृजलाल अपनी दुकान में बैठे ही रहते क्योंकि उन्हें खड़े होने की वजह न मिलती।

बृजलाल के पैसे भी धीरे धीरे ख़त्म हो रहे थे, स्रोत तो एक ही था, केवल दुकान का चलना व सामान का बिकना। फिर तुम्हें पता है छाते भाई, की क्या हुआ ? छाता- हाँ, फिर हमारे बाबूजी ने बृजलाल को एक मंत्र दिया। वो मंत्र था- 'लाल मिर्चे का अचार', वैसे तो अपने प्रतिद्वंदी की उन्नति कौन चाहेगा, लेकिन बाबूजी के लिए बृजलाल प्रतिद्वंदी नहीं थे। बेटे की नज़रों में भले ही बाप प्रतिद्वंदी लगे लेकिन बाप की नज़रों में एक बेटा प्रतिद्वंदी नहीं बल्कि उनके अनुभवों को आगे बढ़ाने वाला उनका अंश ही होता है। मझली बहू मिर्चे का अचार बहुत ही स्वादिष्ट व चटाकेदार बनाती थी, ये बात बाबूजी भी मानते थे। इसलिए उन्होंने बृजलाल से मिर्चे के अचार बनवाने व उसे बेचने की बात कही। असल में जब बँटवारा नहीं हुआ था, तब से ही बाबूजी की इच्छा थी की, अचार का भी व्यापार शुरू किया जाए, लेकिन टालते जा रहे थे या यूँ कह लीजिए की समय का इंतज़ार कर रहे थे। बृजलाल के लिए ये मंत्र गुरुमंत्र ही था । उन्होंने अपने पत्नी से बात की और अगले ही दिन बचे हुए पैसों से अचार की सारी सामग्री ले आये, लाल-लाल मोटे-मोटे मिर्चे, सूखा धनिया, सरसों का तेल, जीरा, उरद की दाल इत्यादि। यही कोई ५-६ दिन लगे, क्योंकि धूप भी ज्यादा नहीं होती थी। फिर दसवें दिन उन्होंने लाल-लाल मिर्चे के, तेल में डूबे हुए अचार दुकान में रखे। बृजलाल ने सोहानी के हाथों चुपके से २-३ अचार बाबूजी को भी भिजवा दिए। अचार का श्री गणेश बाबूजी ने ही किया। भगवान ने भोग लगा लिया। तभी छाता बोल पड़ा- बहुत ही स्वादिष्ट अचार था। झोले ने पूछा की छाते को कैसे पता। तब छाते ने बताया की बाबूजी ने अम्मा से छुपाकर रोटी और अचार खाया था फिर मेरी हैंडल को पकड़ लिया था, तब मैंने भी अचार का स्वाद लिया था। पहले दिन तो कोई ग्राहक नहीं आया, दूसरे दिन १-२ बच्चे आये थे, कॉपी खरीदने। फिर एक दिन सोहानी अपनी टीचर के लिए ले गयी थी, अपनी टिफिन में रखकर। इधर से बाबूजी भी अपने ग्राहकों को अचार के स्वाद के बारे में बताते। उसके दो दिन बाद उसकी टीचर ने १०० ग्राम अचार मंगवाए थे। फिर पड़ोस के मिश्रा जी ले गए, उन्होंने सक्सेना जी को बताया , फिर मुरली चाचा, गुड्डू भैया, सुशीला, रजनी, मुद्दसिर, हाफिज....। लोगों को उनका अचार पसंद आने लगा। पहले २ किलो अचार बना था, फिर ५ किलो, १० किलो, २० किलो...। ये एक श्रृंखला थी, पहले स्वाद बना, फिर ग्राहक, फिर पैसा, फिर रूपया...और जब रुपया आया तो भूख मिट गयी, फिर ज्यादा रुपया आया, तो भूख के साथ-साथ स्वाद की परिभाषा भी बनी, फिर से वही शृंखला…स्वाद...ग्राहक...पैसा...रुपया...। ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी, तो बृजलाल ने दूकान में और भी माल भर दिए। बृजलाल ने अपने दूकान का नाम भी 'बाबूजी जनरल स्टोर" रख लिया । जो लोग अचार के दीवाने हो गए थे, वो अचार के साथ रोजमर्रा के सामान भी ख़रीद लेते थे। अचार में फायदा तो था ही, १०० रु का माल तैयार किया, २०० रु का बिक गया, मेहनत भरपूर थी, कमी थी तो सिर्फ धूप की।

दिन बीतते गए, दुकान धीरे धीरे मजबूत होती गयी । इसी बीच मझली बहू के पैरों में चोट आ गयी। दुकान में बृजलाल के अलावा एक और आदमी की जरूरत थी। अभी भी पैसे उतने नहीं आते थे की किसी को दुकान में रख सके। फिर सोहानी मदद करने लगी। उसका स्कूल २ बजे तक ख़त्म हो जाता था, स्कूल से आने के बाद सीधे दुकान में बैठ जाती, बृजलाल बाजार चले जाते, थोक में माल खरीदने । अपने पिता के साथ रहते-रहते उसे भी दुकान की काफी जानकारी हो गयी थी। कौन सी चीज कहाँ रखी है ? कितने की है ? अचार का क्या भाव है ? ५० पैसे की कितनी टॉफी ? साबुन का क्या दाम है ?... उसे जुबानी याद हो गया था । दुकान की बिक्री कम न हुई बल्कि और भी बढ़ने लगी। उस कक्षा ५ में पढ़ने वाली बच्ची के अंदर दुकानदारी के गुणों को देख कर अपने आप ही लोग खींचे चले आते। फटाफट सामान तौलना, कागज़ की पुड़िया बांधना, उँगलियों पे हिसाब कर देना तो कोई उससे सीखे। वो अपने पिता की भी लाडली बन चुकी थी । उसे देखकर बाबूजी भी खुश होते थे व अक्सर सोचा करते की, काश फिर से सब एक में हो जाएँ । समय बीतता गया, मौसम बदलते गए । मेहनत ने किस्मत की लकीरों में बदलाव किय । ऊपर वाले कमरे की छत भी पड़ गयी, दुकान के आगे वाली पन्नी की जगह अब टिन ने ले ली। अचार ने लोगों के रसोइयों में जगह बनाई, तो सोहानी ने लोगों के दिलों में और बृजलाल ने बाजार में। इधर बाबूजी अकेले पड़ गए थे। कुछ दिन तक बंशीधर भी दुकान में बैठा, फिर उसको लगने लगा की उसकी जिंदगी कहीं इसी में बंध के न रह जाए, सो वो भी बड़ा हाथ मारने के चक्कर में पड़ गया। सुबह होते ही बाहर निकल जाता। अम्मा दुकान में बैठती नहीं थी, बाबूजी को अगर कुछ सामान लाना हो तो दुकान बंद करनी पड़ती थी। अम्मा के रहते वो बंशीधर को कुछ बोल नहीं सकते थे। सोनाली को भी कोई रूचि नहीं थी, अपने दादाजी के साथ दुकान में बैठने की। आती थी वो दुकान में, अपने सहेलियों के साथ, टॉफी या बिस्कुट खाने। कभी-कभी बाबूजी मुझे (छाता ) बृजलाल की दुकान पर भूल आते थे, तो मैं भी उन लोगों की बातें सुन लेता था। कई बार तो मैंने मझली बहू को ये भी कहते सुना था की," बताओ तुम्हें इस तरह से अलग कर दिया, ऐसे कोई करता है क्या? अरे इन बच्चों का भी नहीं सोचा, कैसे माँ-बाप हैं ये ? तुम भी अब इन लोगों से बातें मत किया करो, इत्यादि…। बृजलाल उसे समझाता था की ये सब समय का चक्र है, दुःख तो उन्हें भी हुआ होगा। दोनों बहूओं में बातें होती थीं, लेकिन कम, क्योंकि मझली बहू हमेशा अपने काम में व्यस्त रहती।

कुंजलाल जब भी अपने परिवार के साथ आते तो अम्मा के यहाँ ही ठहरते। बातें सभी से होती थीं, लेकिन बातों में अपनेपन की थोड़ी कमी सी लगती थी...दोनों तरफ से। ये जो "कमी" की बात मैं कर रहा हूँ, ये अदृश्य होती है, सामने दिखाई नहीं देती। असल में ये दिमाग में छुपी होती है और हमारे भाव में विकार घोलती रहती है। इस वजह से अकस्मात् फूट पड़ने वाले वाक्यों पे ये भी नियंत्रण करती है, केवल उतने ही बातों को मुँह से बाहर निकालती है, जितने की एक परिचित से पहचान बनाये रखने के लिए चाहिए...बस । कभी-कभी बहूओं के मायके से बच्चों के नानी, नाना, उनके पोते, या मामा-मामी आते। अम्मा बड़े ही संस्कार से नाना-नानी के पैर छूतीं। नाराज़गी अपनी जगह है, और संस्कार...अपनी जगह। बंशीधर के सपने काफी बड़े थे, शायद इसीलिए वो बड़े-बड़े लोगों के साथ घूमता था। उसे कोई बड़ा उद्योग करना था। बाबूजी ने कितनी बार उसे समझाया की पहले वो शुरुआत तो करे फिर धीरे धीरे अपने लिए रास्ते बनाये, लेकिन उसे सब कुछ बहुत जल्दी चाहिए था। एक-दो बार बाबूजी ने अपने दोस्तों से बातें करके उसे अच्छी नौकरी भी दिलवा दी लेकिन, जनाब को वो भी रास नहीं आयी। कारण..? किसी की पगार कम है, तो किसी का व्यवहार सही नहीं है...आदि। बंशीधर के रंग में मेहनत नजर नहीं आ रही थी और इधर बृजलाल की मेहनत रंग ला रही थी। बंशीधर के सामने ढेर सारे रास्ते थे, ढेर सारे अवसर भी, लेकिन बृजलाल के आगे केवल एक ही रास्ता था, उसकी दुकान।


दो ही सूरतों में इंसान असमंजस में रहता है, एक जब उसके पास कोई रास्ता न हो, और दूसरा जब उसके पास कई सारे रास्ते हों। कुछ महीनों बाद, बाजार में बंशीधर ने कपड़े की एक बड़ी सी दुकान खोल ली। बाबूजी की जमापूंजी के साथ- साथ उसने काफी लोगों से उधार भी लिया। कुछ लोगों को वो घर लेकर भी आया था। वो अपना घर दिखा रहा था, दो-दो दुकान हैं, ऐसा कुछ वो बोल रहा था। मैं तो वहीँ कुर्सी पे टेंगा हुआ सारी बातें सुन रहा था। मुझे एहसास हो रहा था की कुछ बड़ा हाथ मारने के चक्कर में है ये। रात को बाबूजी से भी बातें कर रहा था की- “यही कोई ४-५ लाख का खर्चा आएगा।" बाबूजी से उसने ४ लाख रूपए लिए थे बाकि १ लाख बाहर के लोगों से। बाबूजी ने भी ये सोच के पैसे लगा दिए होंगे की चलो इसी बहाने ये कुछ कर लेगा । एक बार मैं भी बाबूजी के साथ उसकी दुकान के उदघाटन में गया था। काफी बड़ी दुकान थी, शायद बाबूजी की दुकान की तीन गुनी बड़ी। फिर मैंने बाबूजी की दुकान और बंशीधर की दुकान की तुलना की। कहाँ बाबूजी के बल्ब की पीली रौशनी और कहाँ वहां चमचमाती हुई ढेर सारी टियूबलाइट की सफ़ेद रौशनी…..कहाँ वो दुकान के चबूतरे की मिट्टी और कहाँ यहाँ चबूतरे पे बिछी कालीन…., कहाँ वो लकड़ी की टूटी हुई कुर्सी और कहाँ ये स्टील की चमचमाती हुई गद्दी वाली कुर्सियां…, कहाँ वो चूने की पपड़ी छोड़ती हुई लकड़ी व उसपर तेल से सनी हुई अखबार की तह और कहाँ ये पारदर्शी शीशे की साफ़ सुथरी अलमारियां…., हर तरीके से बंशीधर की दूकान बड़ी लग रही थी। लेकिन इतनी बड़ी दुकान में मुझे कहीं वो खूँटी नहीं दिखी, जिसपे मैं और छाता टंग सकें। जहाँ मैं और छाता नहीं वहां पे बाबूजी कैसे रह सकते थे, इसका मतलब ये था की, ये दुकान बाबूजी के लिए नहीं थी। वैसे भी बाबूजी तो अपनी किराना की ही दुकान में व्यस्त रहते थे, यहाँ पर आने का समय कब मिलता ? अम्मा भी बड़ी खुश थीं। जब बेटा अपने पैरों पे खड़ा होता है व जब वो घर के खर्चों को उठाने लगे तो माँ-बाप के झुकते हुए कन्धों को जैसे एक अदृश्य सी मज़बूती मिल जाती है। लोगों से बात करते हुए उन्हें एक अजीब सी संतुष्टि का अहसास होता है। सुबह की खिली हुई धूप कुछ ज्यादा ही खिली नजर आती है। दिन कुछ ज्यादा ही लम्बे लगने लगते हैं, क्योंकि समय को खाने वाली चिंताएं अब नहीं होती हैं। रात थोड़ी सी छोटी हो जाती है, क्योंकि सुकून की नींद आती है, बिना सपनों वाली। बाबूजी खुश थे की चलो बंशीधर भी अब काम पे लग गया। सुबह उठ कर वो जल्दी ही अपनी दुकान पर चला जाता व रात को देर से लौटता। अब वो भी मेहनत करने लगा था, आखिर इतना सारा पैसा जो लगा है, लोगों से लिया हुआ कर्ज़ भी तो उतारना है।

उधर बृजलाल ने एक पुराना स्कूटर ख़रीद लिया था। क्योंकि उन्हें बाजार से सामान लाने के लिए हर बार गाड़ी किराए पर लेनी पड़ती थी, साइकिल पर इतना ढेर सारा सामान लाना काफी मुश्किल पड़ रहा था। उन्होंने हिसाब लगाया की जितना किराया वो २ साल में लगाएंगे उतने में उस पुराने स्कूटर का दाम निकल जाएगा। फिर वो सारा सामान स्कूटर से ही लाने लगे। उनकी साइकिल का इस्तेमाल सोहानी करने लगी। स्कूल जाना, सब्जी लाना, आदि। वो साक्षी को भी साइकिल सीखती थी, इन्ही गलियों में। सोहानी कभी-कभी बृजलाल से कहती थी की वो अपनी दुकान में एक टीवी लगवा ले। जब ग्राहक नहीं होते तो टीवी देख कर उनका मन लगा रहेगा। तब बृजलाल ने उसको समझाया था की एक दुकानदार को कभी भी टीवी नहीं लगानी चाहिए, दुकान में। क्योंकि व्यापार करने वाले को हमेशा अपने व्यापार के बारे में ही सोचना चाहिए, अगर टीवी रहेगी तो वो उसी को देखता रहेगा, फिर जो समय उसे दुकान की तरक्की के बारे में सोचना चाहिए, वो उसे टीवी देखने में बिता देगा । भाई बृजलाल भी एकदम बाबूजी जैसा सोचता था। बंशीधर बाबूजी जैसा नहीं था। दोनों की सोच में बड़ा फर्क था, लेकिन मेहनत की परिभाषा, सोच के तरीकों से नहीं लिखी जाती। इसकी परिभाषा एकदम सीधी व सरल है। जो जुटेगा, उसे मिलेगा। कोई रातों-रात आमिर नहीं बन जाता। हाँ कभी-कभी किस्मत अपने हाथ फैला दे तो अलग बात है।

इंसान का समय उसकी मेहनत से भी बदलता है और उसकी किस्मत से भी। रंक से राजा बनने में मेहनत अपना साथ देती है, जबकि राजा से रंक बनने में किस्मत अपना । किस्मत का कोई उसूल नहीं होता, जबकि मेहनत का अपना एक उसूल है, वो निरंतर अभ्यास मांगती है। बृजलाल मेहनत के उसूल को जानता था इसलिए निरंतर जुटा रहता था, बंशीधर ने भी प्रयास अच्छा किया लेकिन बिना उसूलों के किस्मत की तरफ मुड़ गया । यही कोई ३-४ महीने ही हुए होंगे। बंशीधर की बड़ी दुकान बड़े-बड़े पैसे बना रही थी, फिर बड़े- बड़े लोग जुड़ने लगे, नए-नए लोग, नई नई सोच के साथ । अब बड़े बड़े लोगों से नाता जुड़ने लगा तो अपना रहन-सहन भी बड़ा रखना पड़ेगा। बंशीधर को भी अमीरों वाली आबो-हवा लग गयी। गाड़ियों से ही आना-जाना होने लगा, हांलाकि उसने गाड़ी नहीं खरीदी, क्योंकि लोगों से लिया हुआ पैसा अभी लौटाना था, उनसे ली हुई ३ महीने की अवधि भी अब पूरी हो गयी थी। लोग घर आ कर पूछते, तो बाबूजी कह देते की जल्द ही बंशीधर लौटा देगा। सोनाली ने जो भी मांग की, वो तुरंत मिल जाती थी। जो चीज बिना इंतजार या फिर बिना मेहनत की मिल जाए, उसका मूल्य पता नहीं चलता। सोनाली को चीजों की अहमियत नहीं पता थी, उसकी हर तरह की इच्छाएं तृप्त थीं। सोहानी को एक-एक पैसे व चीजों का मूल्य मालूम था, लेकिन इच्छाएं अतृप्त थीं। एक समय ऐसा भी था जब बृजलाल के परिवार को एक-एक चीज के लिए अपनी इच्छाओं से मोल-भाव करते हुए देखा था, वो चाहे आम का एक टुकड़ा हो, खरबूजे का एक टुकड़ा हो, ५ रूपए की जलेबी हो, या फिर आधी कटोरी खीर ...। ये सब उदाहरण मैंने इसलिए दिया, क्योंकि ये सब चीजें उन दो बच्चों, सोहानी और साक्षी के लिए बहुत मायने रखती थीं, उन दिनों में जब बृजलाल की हालत पानी से भी पतली थी। वो एक ऐसा समय था जब असंतोष, अतृप्ति, लालच, गरीबी, इन सारे शब्दों की परिभाषाएं मालूम चलीं।


बाद में एक समय ऐसा भी आया जब जिम्मेदारी, संतोष, बड़प्पन और काबलियत को नई परिभाषा मिली। वक़्त एक ईमानदार जमींदार है, जो आपके गिरवी रखे कर्मो को, प्रतिफल के साथ आपको लौटा देता है। बाकि रही बात सूत की, तो वो आपके पाप व पुण्य ही हैं। बंशीधर की मेहनत में कमी आने लगी, लेकिन उसके रुतबे में बढ़ोत्तरी । असल में पेड़ अभी तैयार नहीं हो पाया था, लेकिन बंशीधर उनसे फल लेने लगा था। बड़े-बड़े लोगों के चक्कर में पड़ कर, वो छोटी बहू और सोनाली को लेकर पार्टियों में जाने लगा। वैसे तो कारोबार के लिए मिलना- मिलाना और पहचान बनाना जरूरी था, लेकिन उस स्तर की संगत के लिए, वैसी ही परिधान, महंगे गिफ्ट, गाड़ी का किराया, वगैरह में काफी पैसे खर्च होते थे। बंशीधर दुकान में कम समय देने लगा, उसने अपनी जगह नौकर रख लिए। शुरू के ४-५ महीने में काफी आमदनी हुई, लेकिन ७-८ महीने में सारा लाभ, हानि बराबर हो गया और फिर ९-१० महीने के बाद दुकान घाटे में चलने लगी। बाबूजी के पास जो पैसे थे, वो उन्होंने लोगों के कर्ज़ उतारने में लगा दिए। लेकिन कर्ज़ की उम्र बड़ी थी, बाबूजी की आमदनी से भी बड़ । बाद में मालूम चला की बंशीधर ने घर भी गिरवी रखवाया था। अब मुझे याद आया की उस दिन वो दो आदमी आये थे, और जिनको वो अपना घर दिखा रहा था, असल में वो घर को गिरवी रखने की उद्देश्य से आये थे। बाबूजी के पूछने पर बंशीधर ने बताया की वो दुकान को बढ़ाना चाहता था, इसलिए थोड़े और रुपयों की जरूरत थी । पूरी बात तो मुझे नहीं पता, क्योंकि उस समय बाबूजी गुस्से से घर के अंदर गए थे, मैं और छाता दुकान में ही थे, अम्मा के साथ। बाद में मालूम चला की कहीं- कहीं से पैसों का इंतज़ाम करके या यूँ कह लीजिए की कुछ और लोगों से उधार लेकर बंशीधर ने घर छुड़वाया। कुल मिला-जुला कर उधार का काफी बोझ हो गया। भैंस को भी बेच दिया गया। बृजलाल ने कुछ मदद करनी चाही, लेकिन अम्मा ने नहीं ली। अम्मा भी बृजलाल से किस मुँह से मदद मांगती, आखिर उन्होंने उसके साथ, गलत जो किया था। अब आप सोचेंगे की अम्मा ने क्या गलत किया ? 'सही' और 'गलत' की क्या परिभाषा है ? जो बातें मेरी नज़रों में सही होंगी, वो हो सकता है, आपकी या किसी अन्य की नज़रों में गलत हों। फिर सही व गलत का निर्णय कौन करेगा ? खैर ये तो वाद-विवाद का विषय है । बंशीधर को ३-४ महीने बाद दूकान बंद करनी पड़ी । दूकान के बचे माल को किसी तरह सस्ते में बेच कर रफा-दफा किया गया । मिले पैसो से कुछ लोगों के उधार उतारे गए। बंशीधर के रवैये में थोड़ा फर्क आने लगा था। कुछ पड़ोस वाले कह रहे थे की, संगत का असर है। लेकिन मुझे नहीं लगता, क्योंकि जिस बाप की संगत में बंशीधर ने २५-३० साल बिता दिए, उसकी संगत का असर नहीं दिखता, जबकि कुछ लोगों के साथ २-४ महीने ही बिताये, तो बड़ा असर दिख गया। कुछ अन्य बात होगी । बाबूजी की दुकान थोड़ी कम ही चलती थी, वजह थी बृजलाल की फैलती हुई दुकान व दूसरी वजह थी बंशीधर की डूबी हुई दुकान। बंशीधर ने आस-पड़ोस से भी कुछ कर्ज़ लिए थे, सो जिन लोगों के कर्ज़ थे उन लोगों ने बाबूजी के यहाँ अपना उधार खाता खोल लिया था। कभी-कभी बृजलाल बाजार से बाबूजी का भी सामान ला देता था। यही कोई १-२ महीने बीते होंगे की, बंशीधर की दुकान के साझे वाले अपने पैसे के लिए दुकान के चक्कर लगाने लगे। ४-५ महीनो बाद बंशीधर ने दूर मंडी में दाल-चावल का व्यापार शुरू किया। भर भर के अनाज बीस-बीस , तीस-तीस बोरी उसकी दुकान में भरी रहती थी। बाबूजी को भी अगर अपनी दुकान में कुछ चाहिए होता था तो बंशीधर को उसका पैसा चुका कर ले आते थे। बाबूजी हिसाब के बहुत पक्के थे । उनके लिए व्यापार अपनी जगह था और रिश्ते अपनी जगह। बाबूजी के लिए थोड़ा आसान हो गया, अनाज खरीदना। बंशीधर सीधा गोदाम से माल उठाता था। धीरे-धीरे कर के ये व्यापार बढ़ने लगा। इस दुकान के लिए भी उसने कुछ लोगों से कर्ज़ लिए थे व कुछ पैसा पिछली दूकान के सामान बेच कर लगा दिए थे । मेहनत रंग लाती हुई दिख रही थी, लेकिन यहाँ भी उसने वही गलती दोहरा दी । थोड़े पैसे आये नहीं की, रुआब दुगना बढ़ गया। फिर से वही आबो-हवा का असर, लेकिन इस बार अमीरों वाली नहीं बल्कि एक ठेकेदार वाली हवा लग गयी। वो व्यापार को छोड़कर पंचायत ज्यादा करने लगा। मेहनत जुबान नहीं, पसीना मांगती है। होना क्या था, ये व्यापार भी ८-९ महीने बाद ठप्प पड़ गया। बंशीधर ने ऐसे ही न जाने कितने काम शुरू किये और बंद कर दिए। शायद अभी भी वो इतनयस्मिन देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बांधव:।

न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत्।।

 

अर्थात, जहां ना तो सम्मान हो, न रोजगार हो, न कोई दोस्त या रिश्तेदार हो, जहां शिक्षा न हो, जहां लोगों में कोई गुण न हो, ऐसी जगहों पर घर नहीं बनाना चाहिए। इन जगहों को तुरंत छोड़ देना चाहिए।

बंशीधर को लगने लगा की अब यहाँ पर उसका रहना ठीक नहीं व उसकी तरक्की भी नहीं हो पा रही है, उसने कहीं दूर जाने का मन बना लिया। बाद में बाबूजी और अम्मा को भी राजी कर लिया। वो नोएडा निकल गया, अकेले ही। बहू और सोनाली को शायद बाद में ले जाएगा, हाँ क्योंकि एक बार वहां कोई काम पकड़ ले, घर बना ले फिर बाकि परिवार के लोगों को वहां बुला लेगा ।

नोएडा में बाबूजी के साले की एक मील है, शायद अम्मा ने उनसे बात की होगी । बाबूजी की वजह से उसे वहां पर कोई इंचार्ज की नौकरी मिल गयी थी । वैसे तो बाबूजी को बंशीधर की काबलियत पे भरोसा नहीं था, इसीलिए वो अपने साले से मदद के पक्ष में नहीं थे, लेकिन अम्मा ने अपने भाई से बात करके सारा मामला ठीक कर दिया । व्यापार और रिश्ते, ये दो अलग परिभाषाएं हैं, लेकिन अगर आप व्यापार में रिश्ते या फिर रिश्तों में व्यापार खोजने लगोगे तो, दोनों को बनाये रखना एक नामुमकिन सा काम है । फिर हो सकता है, ना व्यापार रहे और ना ही रिश्तें। वहां बंशीधर लगनपूर्वक काम करने लगा। फैक्ट्री की तरफ से कर्मचारियों के लिए एक कॉलोनी बनाई गयी थी, यहीं पर बंशीधर को भी दो कमरे का घर मिल गया। ४-५ महीने बीत गए । इधर कर्जे वालो ने बाबूजी का जीना हराम कर दिया था। रोज़ रोज़ लोग चक्कर काटने लगे। बाबूजी उनसे कहते -कहते थक गए की बंशीधर आएगा तो सबके कर्जे वापस कर देगा। बाबूजी से जितना बन पड़ा, उतना उन्होंने लोगों को वापस कर दिए। उधर दुकान के साझे वालों ने अपना केस पुलिस और कचहरी के बीच में डाल दिया । कचहरी ने उन्हें ३ महीने का वक़्त दिया। बाबूजी परेशान रहने लगे। पहले कभी भी इस तरह का समय नहीं आया । उनके स्वाभिमान को ठेस लगी थी । कभी भी कचहरी का चक्कर नहीं लगाना पड़ा था । कभी भी नज़रे चुरानी नहीं पड़ी थी। सब कुछ ठीक होने के लिए, जल्द से जल्द पैसों का इंतज़ाम करना होगा। बृजलाल ने ५० हज़ार रूपए रखे थे, सो उसने बाबूजी को दे दिए, अम्मा से छुपाके। फिर दो महीने बाद बंशीधर आया। बंशीधर ने बताया की खूब मन लगा के काम कर रहा है। सभी लोग अच्छे हैं। कॉलोनी में भी काफी परिवार हैं। फिर उसने घर बेचने की बात कही, उसने ये भी कहा की यहाँ उनका ख्याल कौन रखेगा। हम सभी लोग नोएडा में रहेंगे। बाबूजी तो नहीं राजी हुए। फिर अम्मा के बार-बार दबाव डालने पर आखिर वो तैयार हो ही गए। लेकिन इस बात पे उन्होंने जोर दिया की पहले बंशीधर अपने बीवी-बच्चों को लेकर नोएडा में रहने लगे फिर बाद में बाबूजी और अम्मा भी आ जाएंगे।

घर के चार हिस्से थे। एक बृजलाल को दे दिया गया था, बाकि दो हिस्सों में कुंजलाल व बंशीधर का नाम लिखा था और चौथे हिस्से में बाबूजी का दुकान व एक कमरा था। किसी तरह करके घर के दोनों, कुंजलाल और बंशीधर के हिस्सों को सस्ते में बेच दिया गया। बाबूजी ने दुकान वाला हिस्सा व एक कमरा बचा लिया। सोचा जब यहाँ से पूरी तरह से जाने लगेंगे तो बेच देंगे। कुंजलाल को भी कोई ऐतराज नहीं होगा क्योंकि कई बार वो खुद ही कह चुके थे, की घर को बेच कर उनके यहाँ चलिए। सभी लोगों के कर्जे उतार दिए गए। ऐसा लगा जैसे बाबूजी को अपना खोया हुआ सम्मान वापस मिल गया हो, आखिर भारी कीमत जो चुकानी पड़ी। इस घर की एक-एक ईंटों को उन्होंने बड़े ही मेहनत और मन से जोड़ा था। खैर घर बड़ा नहीं होता बल्कि घर का सम्मान बड़ा होता है। अब अम्मा व बाबूजी काफी अकेले पड़ गए थे। छोटी बहू भी चली गयी थी, खाना खुद ही बनाना पड़ता था। लेकिन अम्मा के चेहरे पे दुःख नहीं झलकता था। वो खुश थीं, शायद उस दिन का इंतज़ार कर रहीं थीं, जब बंशीधर उन्हें नोएडा बुला लेगा, बस कुछ ही दिनों की बात है। बाबूजी को चिंता रहती थी की वहां वो ठीक तरह से काम कर रहा होगा की नहीं। बृजलाल से देखा नहीं गया, वो बाबूजी के पास जाकर बोला की जब तक बंशीधर उन्हें लेने नहीं आता, तब तक वो लोग उसके यहाँ खाना खा लिया करें, आखिर वो भी तो उनका ही बेटा है। बाबूजी ने शाम को अम्मा को बताया, लेकिन अम्मा ने मना कर दिया। अब जिसकी पत्नी राज़ी नहीं हो तो वो कैसे स्वीकार कर लेते ? उन्होंने बृजलाल को ये कह कर टाल दिया की, बंशीधर का फ़ोन आया था, वो जल्दी ही आएगा। बृजलाल बाबूजी पर दबाव नहीं डाल सकता था।

समय का पहिया अपनी उसी रफ़्तार से घूमता रहा, जिस रफ़्तार से उसने घूमना शुरू किया था । लगभग १ महीने बाद, बाबूजी की बेटी माधुरी आयी। वो अपने साथ अम्मा-बाबूजी को ले जाना चाहती थी। लेकिन बाबूजी तैयार नहीं हो रहे थे, आखिर बेटी के यहाँ रहने कैसे जा सकते थे। माधुरी का ससुराल यही कोई ४० किलोमीटर दूर होगा। मैं बाबूजी के साथ ४-५ बार जा चुका हूँ। माधुरी और उसका पति ज़िद करने लगे, तो फिर बाबूजी तैयार हो गए। असल में उन लोगों ने बाबूजी को लालच दिया की, वो लोग एक छोटी सी दुकान खोलना चाहते हैं, और उन्हें उतना अनुभव नहीं है, इसलिए उन्हें बाबूजी की जरूरत होगी। बाबूजी उनके मन को समझ गए थे, फिर भी इसलिए राज़ी हो गए की चलो हमारी वजह से उन लोगों का भला हो जाएगा। असल में इंसान थोड़ा सा लालची होता है। ये लालच अनेक प्रकार की होती है, कोई पैसे का, कोई शोहरत का ,कोई प्यार का और कोई जिम्मेदारी का। बाबूजी की लालच में थोड़ा हिस्सा प्यार का था व बहूत बड़ा हिस्सा जिम्मेदारी का था। वैसे भी बाबूजी को अब अपनी दुकान तो बंद करनी ही थी, सो मान गए । बाबूजी अपने इकट्ठा किये हुए अनुभव को सभी में बांटना चाहते थे। इस जगह से बाबूजी का नाता पिछले ४० सालों से रहा। इन बीते हुए सालों में उन्होंने कितने उतार-चढ़ाव देखे होंगे। ये भी सत्य है की समय हमेशा एक सा नहीं रहता। दुःख और सुख समय के पहिये की परिधि पर एक दूसरे के विपरीत विराजमान रहते हैं, पहिया घूमता है, व इन घटनाओं का क्रम लगा रहता है। अब इसे चाहे भूत के कर्मों का फल कह लीजिए या फिर भविष्य के भाग्य का बीज, मर्जी आपकी। बाबूजी इस सत्य को जानते थे, तभी तो अपनी माटी मुगलसराय , जहाँ उनका जन्म हुआ था, को छोड़कर राजा तालाब आ कर बस गए थे। बाबूजी के मन में था की, वहां चल के दामाद जी के दूकान की शुरुआत की जाए, जब वो ठीक तरीके से चलने लगेगी तो वापस आ जाएंगे । फिर छाते ने बोलना शुरू किया-असल में बृजलाल को थोड़ा सा दुःख हो रहा था क्योंकि बाबूजी थोड़ा दूर जा रहे हैं, लेकिन इस बात की ख़ुशी भी थी की चलो बहन है जो देखभाल करेगी। ३ दिन बाद बाबूजी और अम्मा माधुरी के ससुराल, भदोही चले गए। बाबूजी ने हमें रेलगाड़ी का भी सफर खूब करवाया है, उनके ससुराल जाना हो, बेटे-बेटियों का रिश्ता देखने जाना हो या फिर रिश्तेदारों की शादियों में जाना हो, अपनी रेलगाड़ी जिंदाबाद। बाबूजी और अम्मा का माधुरी के यहाँ बहुत सम्मान होता था। फिर कुछ दिन बाद उनकी दुकान भी खुल गयी। माधुरी का एक छोटा बेटा भी था, ‘प्रदुम्न’ यही कोई ८-९ साल का। बाबूजी दुकान में बैठने लगे, अपने तरीके से दुकान को सवारने लगे। जो सामान घटता, माधुरी का पति ला देता। माधुरी के सास-ससुर कहीं दूर गांव में रहते थे, यहाँ कम ही आना-जाना होता था । १-२ महीने लगे, लेकिन दुकान चका-चक चलने लगी। ढेर सारे ग्राहक भी बन गए, खैर वो तो बाबूजी का असर था। इधर बृजलाल ने दुकान पर टेलीफ़ोन लगवा लिया, लेकिन बंशीधर की कोई चिट्ठी नहीं आयी। बाबूजी एक-एक पैसे का हिसाब रखते। माधुरी के बेटे की वजह से हिसाब में थोड़ा गड़बड़ होने लगी, क्योंकि हर रोज़ ही वो अपने दोस्तों के साथ आ जाता, फिर बिना बाबूजी से पूछे वो कुछ भी, कितना भी उठा के चला जाता। बाबूजी हालांकि मना नहीं करते, लेकिन दूसरे की दुकान का हिसाब भी उन्हें ही देना होता था । अब जैसे आज ६ पैकेट बिस्कुट के बिके, लेकिन पैसे तो केवल ४ बिस्कुट के ही मिले क्योंकि २ पैकेट तो उसके बेटे ने उठा लिए थे । ये बात अम्मा समझ रही थीं, सो उन्होंने एक दिन माधुरी से बोल ही दिया । अब अम्मा के बोलने का अंदाज तो सभी को पता है, होना क्या था, माधुरी ने दिल पे ले लिया। ऐसे ही १५-२० दिन चलता रहा, फिर एक दिन माधुरी का देवर गांव से आया और बाबूजी के ही साथ दुकान पे बैठने लगा। शायद उन लोगों को बाबूजी पे ही शक होने लगा था। पूछने पर उनके दामाद ने बताया की उसका भाई कुलदीप गांव में बेकार ही बैठा था , सो उन्होंने यहाँ बुला लिया, यहाँ आपके साथ रहेगा तो दुकान संभालने के कुछ गुण ही सीख जाएगा। मुझे तो ऐसा लगने लगा की अब बाबूजी को दुकान से हटाने की योजना बनाई गयी थी। पता नहीं मेरी सोच ही उल्टी है या ये दुनिया एकदम जलेबी की तरह सीधी है खैर । धीरे धीरे उस लड़के ने दुकान के सारे तिकड़म सीख लिए। कुछ दिन बाद माधुरी के दामाद को ऐसा लगने लगा की अब बाबूजी की जरूरत नहीं है। अचानक से उन लोगों के बर्ताव में परिवर्तन आने लगा। परिवर्तन तो समय की मांग होती है। ये होना भी जरूरी है, तभी विकास होगा। लेकिन ये हमेशा मानसिक और शारीरिक विकास के लिए होना चाहिए, न की पतन के लिए। बाबूजी उनकी भावनाओं को समझ गए थे … हर बार की तरह इस बार भी। जितना उनसे बन पड़ा उन्होंने कुलदीप को वो सारे दाँव-पेंच, ईमानदारी व मेहनत के प्रारम्भिक ज्ञान सीखा दिए।


बाबूजी व अम्मा वापस घर लौट आये। बृजलाल खुश हो रहे थे की चलो अब बाबूजी के साथ रहने को मिलेगा, लेकिन समय का चक्र देखिये, ४-५ दिन के बाद बंशीधर भी आ गया, बाबूजी व अम्मा को अपने साथ ले जाने। १-२ दिन बाद बाबूजी जाने लगे। बृजलाल ने बंशीधर के मील का फ़ोन नंबर ले लिया, जिससे वो बाबूजी और अम्मा का हाल-समाचार लेता रहे। मझली बहू ने अम्मा के पैर छुए, सोहानी और साक्षी ने नमस्ते किया, बृजलाल उनके सामान को अपनी स्कूटर पे रख के स्टेशन तक छोड़ आया फिर पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया। पता नहीं अब, कब मुलाकात होगी, पता नहीं कब यहाँ की धूप फिर से नसीब होगी, वो बारिश के बाद की टपकती बूंदे, वो गर्मी के दोपहर का सन्नाटा….। बाबूजी के चेहरे पर उदासी नहीं झलक रही थी, या फिर अंतर्मन में उथल-पुथल थी। इतने सालों तक अगर आप कहीं रहते हैं तो स्वतः ही आपको उस हर एक छोटी से छोटी चीज से लगाव हो जाएगा, फिर वो चाहे घर की किवाड़ हो, गली का कुआँ हो, मंदिर का चबूतरा हो या फिर पुराने स्कूल की टूटी हुई दीवार हो। मैंने इन निर्जीव चीजों का उदाहरण इसलिए दिया क्योंकि ये सभी बोल नहीं सकते, मूक रहते हैं लेकिन इनसे जुड़ी हुई यादें हमसे अक्सर बातें करती हैं, और तो और हमारा मन भी जीवन पर्यन्त इन निर्जीव चीजों को सोच-सोच कर उम्र गुजरने का पछतावा करता है। निर्जीव चीजों की यादें सजीव लगती हैं। गाड़ी अपनी मंज़िल की ओर बढ़ चली। नॉएडा शहर उद्योगपतियों का गढ़ है। कितनी ही मीलें, फ़ैक्टरियाँ व कम्पनियाँ अपनी रोजी-रोटी के लिए दिन-रात जागती रहती हैं । यमुना और हिण्डोन नदियों के जल से अपने आप को पवित्र करता हुआ नॉएडा अपने अंदर कितने ही विरासत को छुपाये बैठा हुआ है। बंशीधर ने अपनी मील को भी दिखाया, जहाँ वो काम करता है । बंशीधर को मील की तरफ से एक घर मिला था, जो की एक छोटी सी कॉलोनी में था। यही कोई तीन कमरों का साफ़-सुथरा घर था। छोटी बहू ने पैर छुए और सोनाली ने भी नमस्ते किया। अम्मा बहुत खुश थीं, लेकिन बाबूजी को वातावरण के अनुकूल होने में थोड़ा वक़्त लगेगा। रात में बृजलाल ने भी फ़ोन किया था, ये जानने के लिए की सभी सकुशल से पहुँच गए। बाबूजी का दिन, सोनाली के बचपन को महसूस करके बीतने लगा। कुछ समय बीतने के बाद उन्हें ऐसा लगा की जैसे वो एकदम बेरोजगार से हो गए हैं। अपने-आप को व्यस्त रखने के लिए, उन्होंने अपनी दिनचर्या निर्धारित की। सुबह ५ बजे तक उठना, ३-४ किलोमीटर पैदल चलना, वापस लौटते समय मंडी से सब्जी ख़रीद लेना, फिर चना खाना, नहाना, पूजा करना इत्यादि। समय बीत रहा था । दिन, महीनों में और महीने साल में बीतने लगे। महीने में एक-दो बार बृजलाल का भी फ़ोन आ जाता था, हाल-चाल जानने के लिए। कुछ समय बाद बंशीधर ने मील की नौकरी भी छोड़ दी। वहीँ किसी बड़े मॉल में, निरीक्षक की नौकरी पकड़ ली थी। उतार-चढ़ाव तो जीवन में लगे ही रहते हैं। छोटी बहू भी अम्मा-बाबूजी के देख-भाल अच्छे से करती थी। मील की नौकरी छोड़ते ही, बंशीधर ने दूसरी जगह मकान किराए पे ले लिया था। सोनाली धीरे धीरे बड़ी होने लगी। बाबूजी को थोड़ा खालीपन सा महसूस होने लगा था, क्योंकि वो एक जुझारू व्यक्ति थे। हमेशा कुछ न कुछ काम करते ही रहते थे। खाली बैठना जैसे उनके लिए हराम था। बंशीधर के घर पे रहते हुए उनकी हमेशा काम करने वाली आदत जैसे धीरे- धीरे छूटने सी लगी, सो उन्होंने अपने-आप को व्यस्त रखने के लिए घरेलू कामों को चुना। अपने आप को व्यस्त रखने के लिए वो कुछ न कुछ घर के काम ही करते रहते थे। कभी चाकू की धार तेज़ करते, तो कभी गमले की मिट्टी ही उलटने लगते, कभी झाड़ू व कूंची की सीक ठीक करते, तो कभी कपड़े फैलाने वाले तार पे पेंट लगाने लगते, कभी टंकी की काई को खरोंच-खरोंच कर ठीक करते, तो कभी हथौड़ी की हैंडल सुधारते। उन्होंने ‘क’ से लेकर ‘ज्ञ’ तक के सारे काम कर डाले। कुछ न कुछ काम वो ढूंढ ही लेते थे । हम-आपको अपने दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं में कोई कमी नहीं मिलेगी, लेकिन बाबूजी इन वस्तुओं में भी कोई कमी खोज ही लेते थे, और फिर उसको ठीक करने में लग जाते। इस तरह से वो खुद ही अपने लिए रोज़ का रोज़ कोई न कोई रोज़गार पैदा कर लेते थे। चीजें बिगड़ती थी, बनती भी थीं, उतार-चढ़ाव आते-जाते रहते। दीवाल घड़ी की सुई एक दिन खराब हो गयी थी, सो उन्होंने उसको भी ठीक कर दिया, मुझे लगता है की अगर समय के पहिये में कोई खराबी होती, तो बाबूजी ज़रूर उसको भी ठीक कर देते, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, समय अपनी निश्चित गति से ही घूमता रहा, समय हम देख नहीं सकते, केवल समय सी जुड़ी यादों को सोच सकते हैं।


मौसम बदलता रहा, नक्षत्र बदलते रहे, महीने बड़े होकर साल बन गए। यही कोई दो गर्मियों के बाद कुंजलाल ने बाबूजी को अपने साथ ले जाने की इच्छा जताई। कुंजलाल समय-समय पर बंशीधर के यहाँ आते रहते थे। उनकी बातों से मालूम चल रहा था की , वो कभी-कभी बृजलाल को फ़ोन कर लिया करते थे। ये तो अच्छी बात थी, अपनों का हाल-समाचार लेते रहना चाहिए। कुछ दिन रहने के बाद बाबूजी और अम्मा को वो अपने साथ ले गए। कुंजलाल इस समय बरेली में नौकरी कर रहे थे। सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था, तीन कमरों का। बरेली 'पांचाल ' क्षेत्र के अंतर्गत आता था , जो की द्रौपदी (महाभारत की कथा में) का जन्म-स्थान था। बाबूजी को यहाँ के वातावरण के अनुकूल होने में ज्यादा समस्या नहीं आयी, कारण, ढेर सारे मंदिरों का होना। बरेली में बड़ी संख्या में मंदिर और मठ बने हुए हैं, अलखनाथ मंदिर, जगन्नाथ मंदिर , तुलसी मठ आदि । लोग कहते हैं जगन्नाथ मंदिर २०० साल पुराना है । कुंजलाल के बच्चे, अंशु व प्राची बड़ी कक्षा में पढ़ते थे। जिस जगह पर क्वाटर था, उसके आस-पास काफी पार्क व खुले मैदान बने हुए थे। बाबूजी रोज़ सुबह व शाम पार्क में टहलने निकल जाया करते थे, कभी-कभी अम्मा को भी ले जाते थे। बड़ी बहू काफी शांत स्वभाव की थी। अम्मा-बाबूजी की खूब सेवा करती थी । कुंजलाल एक पढ़े लिखे अच्छे पिता थे जो अपने बच्चों को आदर्श की शिक्षा दिया करते थे। घर के वातावरण में काफी शान्ति रहती थी। बंशीधर की तरह नहीं जिसमे, बड़ा उथल-पुथल रहता था। मुझे याद है की कुंजलाल का मन कभी भी दुकान में नहीं लगता था, क्योंकि शायद वो पढ़ने के लिए ही बने थे। ये उनकी पढ़ाई-लिखाई का असर ही था की उन्हें अच्छी जगह नौकरी लग गयी थी, और वही शिक्षा वो अपने बच्चों को भी देते थे। अंशु थोड़ा शैतान था, कुंजलाल की बातों को एक कान से सुनता था, दूसरे से निकाल देता था। दोनों बच्चें बाबूजी के साथ एक मेहमान जैसा बर्ताव करते थे। क्योंकि कुंजलाल कभी-कभी ही मुगलसराय आते थे। बच्चों को घुलने-मिलने में थोड़ा वक़्त लगेगा। कालोनी में काफी घर बने हुए थे, जिनमे कुछ बड़ी उम्र वाले बूढ़े लोग भी रहते थे। बाबूजी की उन लोगों से मित्रता हो गयी, साथ ही टहलने जाते थे, शाम भी कभी-कभी साथ में ही बीतती थी। बाबूजी के आने से पास-पड़ोस में काफी अच्छे सम्बन्ध बन गए थे। सत्यनारायण भगवान् की कथा हो या कृष्ण-जन्माष्टमी का उपवास, बाबूजी के साथ-साथ, आस-पड़ोस के सारे बड़ी उम्र वाले भाग लेते थ । बस केवल एक समस्या आ गयी, अब कुंजलाल के घर पर काफी लोग आने लगे, बाबूजी से मिलने। बड़ी बहू को दिन में कई-कई बार चाय बनानी पड़ती थी। बाबूजी नहीं पीते थे, लेकिन बाहर वालों की आदत हो गयी थी। लोगों से मिलने के अलावा भी, बाबूजी ने अपनेआप को व्यस्त रखने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए, लेकिन समय था की सिकुड़ने का नाम ही नहीं लेता था। बाबूजी के एक आदत और भी थी, वो ये की जहाँ भी वो रहते थे, वहां के आस-पास की सारी गलियां, नामी दुकानों, चौराहों, मंदिर, धर्मशाला आदि सारे स्थान-चिन्ह को भलीभांति अपने दिमाग में बैठा लेते थे, जिससे कभी भविष्य में किसी को कोई जानकारी देनी हो उस जगह से सम्बंधित, तो वो दे सकें। बाबूजी ने घर की कुछ अव्यवस्थित चीजों को भी ठीक किया, जैसे, पौधों में लगी माहो को छुटाया, लोहे की गेट में ग्रीस लगाया, छत की टीन को पीट-पीट कर सीधा करने के बाद उसको लोहे की तार से बांधा, पेड़ की बढ़ी हुई डालियों को काट कर, छत को साफ़ किया, फटे-टूटे जूते-चप्पलों को मोची से ठीक करवाया, अंशु के फटे हुए बैग को दर्जी से सिलवाया आदि। दिन जागते रहे, रातें सोती रहीं, महीने छोटे होते गए और समय बढ़ता गया।


कभी-कभी बृजलाल का भी फोन आ जाया करता था। एक बार वो बाबूजी से मिलने भी आया था। उधर बंशीधर राजातालाब वापस आया। उसने बाबूजी व कुंजलाल से बात करके वहां बचे हुए घर को बेच दिया। किसी शास्त्री जी ने उस घर को ख़रीद लिया था। ये लोग बृजलाल व उसके परिवार से धीरे-धीरे बातें करना शुरू कर दिए, क्योंकि ये लोग उनके पड़ोसी ही थे, फिर ये बातें आगे चलकर मेल -मिलाप में बदल गयीं। वो लोग एक अच्छे पड़ोसी जैसा बर्ताव करते थे। एक-डेढ़ साल जैसे-तैसे कर के बीत गए। बाबूजी की काम करने वाली आदत ही उनके परेशानी का कारण बन रही थी । वो अपने-आप को फिर से अकर्मण्य सा महसूस करने लगे । उन्होंने एक दुकान खोलने की इच्छा जताई, लेकिन कुंजलाल ने हँस के टाल दिया, अब कहाँ घर में दुकान खुलेगी । कॉलोनी में लोग क्या कहेंगे ? खैर कुंजलाल का तो मन दुकान में कभी भी नहीं लगा, इसलिए शायद वो इसके महत्त्व को नहीं समझता। बाबूजी ने कुछ नहीं बोला। जैसे-तैसे कर के उनके दिन बीतने लगे। कभी रोशनदान की जाली ही साफ़ करने लगते, तो कभी लोहे के गेट में ग्रीस डालने लगते। बाद में एक दिन बंशीधर से बात करते वक़्त उन्होंने नोएडा आने की इच्छा जताई। लगभग दो साल बीत चले थे। बंशीधर को देखे हुए भी काफी समय हो गया था। बंशीधर ने ये कह के टाल दिया की अभी हालत ठीक नहीं चल रही है, क्योंकि फिर से पुरानी वाली नौकरी छोड़ दी है। कुछ समय के बाद वो खुद ही उन्हें बुला लेगा। उसने सुझाव दिया की यहाँ बरेली में काफी मठ बने हुए हैं, वहां भी घूम लें। वैसे तो बाबूजी घूमने जाते, लेकिन उनके मन का जिद्दी बच्चा वहीँ दुकान में ही बैठा हुआ था । बृजलाल जब भी फ़ोन करता, बाबूजी को वापस बुलाता। राजातालाब का बचा हुआ घर भी बंशीधर बेच आया था, अगर बाबूजी वापस जाते तो रहते कहाँ ? इन बीते वक़्त में बृजलाल ने तीन मंजिला घर बनवा लिया था। वो अक्सर कहता की घर तो बाबूजी का ही दिया हुआ है, उसने तो केवल उसे संभाल कर रखा है । झोले ने आह भरते हुए बोलना शुरू किया- २-३ महीने में बाबूजी ने मन बना लिया की वापस राजातालाब लौट चलेंगे । उन्होंने अम्मा को कुंजलाल के यहाँ ही रुकने को कहा, लेकिन अम्मा नहीं मानी। वैसे तो अम्मा ने वापस लौटने के लिए बार-बार मना, लेकिन जहाँ पति, वहीँ परमेश्वर । उन्होंने बृजलाल को बुलवा लिया फिर वो अम्मा व बाबूजी को लेकर वापस राजातालाब आ गया। तक़रीबन ३-४ साल बाद हम दोनों भी अपनी जगह वापस लौट रहे थे, जहाँ हम लोग पैदा हुए, पले-बड़े। मैं बार-बार ये देखने की कोशिश कर रहा था की इस समयांतराल में क्या-क्या बदल गया ? बृजलाल थोड़ा पतला हो गया है, स्कूल की वो टूटी हुई पुरानी दिवार अभी भी खड़ी हुई है, वो काई वाला नलकूप अभी भी तन-मन से जुटा हुआ है, मिश्रा जी की बछिया अब गाय बन गयी है, मोती, वो भूरा पिल्ला, अब अपने मोहल्ले का राजा बन गया है, देखो जरा कैसे भौंक रहा है हमें, अरे भाई हम भी इसी मोहल्ले के हैं। तलवारि काकी के घर में तीन बकरियां बंधी हुई हैं, उस समय तो एक ही थी, सफ़ेद वाली, बकरियों की संख्या बढ़ गई परन्तु काकी की उम्र घट गयी। बृजलाल की दुकान थोड़ी और बड़ी हो गयी थी, ५ कमरों का तीन मंजिला घर। देख के लगता था की बृजलाल ने जी-तोड़ मेहनत की है। मझली बहू ने अम्मा के पैर छुए। अम्मा ने कुछ बोला नहीं। सोहानी व साक्षी काफी बड़े हो गए हैं। सोहानी कक्षा १० की परीक्षा देने वाली है व साक्षी कक्षा ८ की। कितना कुछ बदल गया। बृजलाल को फिर से अम्मा-बाबूजी की छाया नसीब हुई। बाबूजी को दुकान और मुझे व छाते को अपनी खूँटी। बाकी सब ठीक चल रहा है । समय अपने आप को दोहराने की कोशिश करता है, इसके पहिये एक परिधि खींचते चलते हैं। ऐसा लगता है की हर साल जनवरी फिर से आती है, लेकिन नहीं, वो जनवरी अलग थी, ये जनवरी अलग है और आने वाली हर जनवरी अलग होगी। असल में समय एक कुंडली की तरह, भुजंग जैसा, घटनाओं को समेटे हुए हमारे कर्मो से लिपटा हुआ सरकता रहता है। इन्ही कर्मो से जुड़ी हुई भाग्य और दुर्भाग्य की डालियाँ भी हैं। यही कर्म भूत की जड़ों से निकल कर, भविष्य तक फैलता है। समय तो गूंगा है, ये बोलता नहीं, केवल देखता रहता है । बोलते हैं तो सिर्फ हमारे अनुभव । बाबूजी अब खुश थे, उन्हें एक खोई हुई दुकान मिल गयी थी, उन्हें अपनी खोई हुई मेहनत मिल गयी थी, बृजलाल खुश था क्योंकि उसे खोया हुआ आसरा मिल गया था। अम्मा और मझली बहू भी धीरे-धीरे ताल-मेल बैठा ही लेंगी। कर्म और भाग्य भी साझा कर लेंगे व समय बिना कुछ बोले ६-७ साल और आगे बढ़ जाएगा …।

 

बीते हुए सालों में बहुत से उतार-चढ़ाव हुए, कितने ही त्यौहार गुजर गए, कम से कम २-३ बार बाबूजी व अम्मा बंशीधर और कुंजलाल के घर गए, ३-४ बार माधुरी भी बृजलाल के यहाँ आयी, कहीं 'रिश्तों की गाठें' मजबूत हुईं तो कहीं 'रिश्तों में गाठें' । आज ६-७ साल बाद मैंने पाया की बहुत कुछ ठीक हो गया है। सोहानी के लिए लड़का पसंद किया गया है। उधर कुंजलाल के बच्चे विदेश में नौकरी करने लगे हैं, अब दोनों, कुंजलाल व बड़ी बहू अकेले पड़ गए हैं। जिस उद्देश्य से कुंजलाल ने अपने बच्चों को पढ़ाया था, वो पूरा हो गया । बंशीधर की बिटिया, सोनाली कक्षा १२ की परीक्षा दे रही थी । साक्षी भी ११ की कक्षा में थी। अब तक सोहानी ने बृजलाल और बाबूजी का खूब हाथ बंटाया, साथ ही साथ अम्मा का भी ख्याल रखा, लेकिन अब उसे अपने ससुराल जाना होगा। बाबूजी भी थोड़ा कमजोर हो चले थे। बुढ़ापा झुर्रियां बन कर चेहरे की लकीरें सँवार रहा था, लेकिन चेहरे का तेज अभी भी धूप को चुनौती दे रहा था । मेरी और छाते की मरम्मत होती रहती थी। मेरे भी थोड़े धागे ढीले पड़ गए थे, बाहें थोड़ी ज्यादा लम्बी हो गयी थी, छाते की हैंडिल की प्लास्टिक छूट रही थी, उसके लोहे में जंग की दो लकीरें साफ़-साफ़ दिख रही थीं । अगले ४-५ सालों में हमने बहूत से शादियां देखीं, क्योंकि सभी नाती-पोते लगभग एक साथ ही जवान हुए । माधुरी का पति (सोहानी के फूफा), अक्सर दूसरों में बुराईयाँ निकला करते थे। इनकी बेटी ऐसी है, उनके बच्चे वैसे हैं आदि । 'जैसा करोगे-वैसा भरोगे', उनकी बेटी ने भाग के शादी कर ली, तो उनके स्वभाव में परिवर्तन आया, वो थोड़ा और चिड़चिड़े हो गए। उधर कुंजलाल के बेटे 'अंशु' की शादी हो गयी, लड़की उसने खुद से पसंद की थी, शादी के बाद बहू को भी विदेश ले गया। सोहानी की शादी में सारे रिश्तेदार इकट्ठा हुए थे, केवल सोहानी की फूफा को छोड़कर। ये फूफा व मौसा लोगों की आदतें तो सभी जानते हैं। इन दोनों लोगों को अलग से अपनी मेहमान-नवाजी करवाने का शौक होता है इसीलिए तो भीड़ से अलग खड़े हुए दिखते हैं। फिर भी बृजलाल ने अपने जीजा का हाथ जोड़ कर के स्वागत किया और भीड़ में ही मिला लिया। बाबूजी हम उम्रवालों को अपना ही मंत्र दिए जा रहे थे और साथ ही साथ मेहमान का स्वागत भी कर रहे थे। हम लोग भी तो बाबूजी के साथ अपनी आँखें बिछाए बारात का इन्तजार कर रहे थे। काफी धूम-धाम से शादी हुई। विदाई के समय तो अम्मा भी रोने लगीं थी, शायद उन्हें एहसास हो रहा था की अब अपनी बच्ची पराई हो रही है, काश मैंने उसे दादी का प्यार दिया होता। जिस बच्ची को उन्होंने गोद तक नहीं लिया, उसने उनका कितना ख्याल रखा।


बृजलाल का जैसे दांया हाथ अलग हो रहा था, दुकान में अब एक अलग से खामोशी होगी। ग्राहक तो उतने ही रहेंगे, लेकिन एक दुकानदार कम हो रहा था। अम्मा मोहल्ले की किसी शादी में लगभग ८ साल पहले एक परात दे आयीं थीं, अब सोहानी की शादी है, तो अम्मा उम्मीद कर रहीं थीं की वो मोहल्ले वाली उनको भी परात वापस करेगी। लेकिन उसने तो परात की जगह कुछ और दिया, अम्मा भड़क उठीं। औरत को सोने के आभूषण और पीतल-तांबे के बर्तन से बड़ा लगाव होता है। झगड़ा कर के अपना परात वापस ले आयीं , पीतल वाला। बिटिया विदा हो गयी। घर खाली सा हो गया । बृजलाल ने शादी में एक पैसा भी किसी से उधार नहीं लिया । अब फिर से उसको दूकान में जुटना होगा, साक्षी की शादी के लिए । चौथी के समय, शादी के चार दिनों के बाद जब सोहानी वापस आयी तो अम्मा ने गले से लगा लिया। उन्हें भी उसकी कमी खली होगी। बड़ी बहू, मझली बहू और छोटी बहू आपस में बातें कर रहीं थी । छोटी वाली पूछ रही थी की अम्मा को कैसे झेलती होगी ? बड़ी बहू भी कह रही थी की, अम्मा के आ जाने से काफी काम बढ़ जाता है, एक बंधन सा लगता है । मझली भी हामी भरते हुए कह रही थी की हाँ घर का चौका बेलन करो, बच्चों के स्कूल के लिए नाश्ता तैयार करो, अम्मा-बाबूजी के लिए हल्का-नाश्ता बनाओ, दुकान में बैठो, काफी काम पड़ जाता है। कुल मिला जुला कर मुझे एहसास हो रहा था की सभी बहूएं अम्मा को झेल रही थीं। छोटी वाली उनको हमेशा के लिए अपने पास रखने के लिए तैयार नहीं थी, क्योंकि अब उन लोगों को अकेले रहने की आदत हो गयी थी । कोई भी अम्मा को कुछ बोलता नहीं था, हाँ कभी-कभी मझली बहू लड़ जाती थी। लेकिन वही अम्मा का ख्याल भी रखती थी। अम्मा तीनो बहूओं के घर जाती थीं किन्तु ज्यादा वक़्त वो बृजलाल के यहाँ ही बिताती थीं, क्योंकि वहां वो अपनेआप को मेहमान नहीं समझती थीं, और उनकी ससुराल भी तो यहीं पे थी, अपने मायके को छोड़कर, वो पहली बार यहीं पे आयी थीं, इसलिए उनका राजातालाब से काफी पुराना रिश्ता था। बंशीधर नक़ारा था, लेकिन उसने सरकारी नौकरी वाला दामाद ढूंढा था। अपनी बेटी की शादी बड़ी धूम-धाम से किया। बृजलाल और कुंजलाल ने आर्थिक रूप से उसकी मदद की थी। भाई ही तो भाई के काम आता है । सोहानी के एक बेटा हुआ, ' परम ' । छोटा बाबू बड़ा शैतान था। अम्मा को बड़ा परेशान करता था, लेकिन फिर भी अम्मा का लाडला था। अम्मा उसे गोद से उतारती ही नहीं थीं, शायद सोहानी को गोद ना लेने की कमी पूरा कर रहीं थीं । सोहानी और साक्षी भी सोचती होंगी की, काश अम्मा ने उन्हें भी गोद में खिलाया होता । लेकिन खुश थीं की अम्मा बदल गयीं। बदलाव तो समय का नियम है, अगर अच्छे के लिए हो तो 'भाग्य' व अगर बुरे के लिए हो तो 'दुर्भाग्य' । बाबूजी भी अपने काँधे पे परम को बैठा कर खूब घुमाते थे। परम बार-बार उनके कंधो से सरक जाता, क्योंकि कंधे अब झुकने लगे थे । ये एक ऐसी अवस्था है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता, उम्र बढ़ने के साथ-साथ, जिंदगी भी कम होने लगती है। वक़्त के खजाने से जो जिंदगी हम लेकर पैदा हुए थे, एक ना एक दिन उसे वापस उसी खजाने में रख देना होता है, जिससे किसी और को इसे जीने का मौका मिले। शायद जिंदगी की मात्रा सिमित है, एक को मिलती है तो दूसरे से छीन ली जाती है । दिखने वाली चीजें समय के काल चक्र में विलुप्त हो जाती हैं । रह जाती हैं तो केवल, ना दिखने वाली, उसके अतीत की यादें, यादों में बैठीं उसकी तस्वीरें, हमारी तुलना में उसका चरित्र, संवेदन करती हुई उसकी बातें जो घूम-घूम कर हमारे कानो में विक्षोभ करती रहती हैं, और उसके व्यक्तित्व की परछाईं। बाबूजी भी चले गए अपना मंत्र देकर , मुझे नहीं पता कहाँ ? अपने अंत समय में वो भी संतुष्ट रहे होंगे। संतुष्टि से बड़ा मोक्षः क्या होगा ? उनका व्यक्तित्व कर्म-प्रधान था। वो जितना कर्म करते, उतना फल उनको मिल जाता, उन्होंने कभी भी भाग्य का सहारा नहीं लिया क्योंकि उनके लिए कर्म ने भाग्य से सुलह कर ली थी। उनके जाने पर सारे लोग रो रहे थे, बृजलाल को तो चक्कर भी आ गया था, क्योंकि उसका जनक चला गया था। बाबूजी तो हमारे भी पिता थे, लेकिन हम खुश थे, क्योंकि कम लोग ही होते हैं जो मरणशैया पर संतुष्टि का स्वाद चखते हैं। उन्हें जहाँ जलाया गया वहां हम लोग भी मौजूद थे। हमें ये सोच के ले जाया गया था की, बाबूजी के साथ हमें भी जला देंगे, क्योंकि मरे व्यक्ति की पुरानी चीजें फेंक दे जाती हैं या बहा दी जाती हैं। लेकिन बृजलाल का मन बदल गया, बाबूजी की निशानी वो उनकी याद के तौर पर अपने पास रखेगा, सो वो वापस ले आया। अम्मा भी झोले और छाते को देख-देख कर अपने सूखे मन को बाबूजी की यादों से तर कर लेती थीं। बाबूजी की उस दर्जी से कही हुई बात याद आती है-"ऐसा मजबूत झोला बनाना की, हम रहे ना रहें ये झोला जरूर रहे ।" आज भी मैं और छाता वहीँ टंगे है लेकिन एक नई खूँटी पर, बृजलाल की दुकान में, बाबूजी की फोटो के एकदम पास । चूहों की आवाजें आ रही हैं, ग्राहक बृजलाल से मोलभाव कर रहा है। एक ग्राहक मिर्चे का अचार ख़रीद रहा है। हम लोग भी दुकान के बाहर देख रहे हैं, शायद हमें अभी भी बाबूजी का इंतज़ार है …।



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