Sharad Kumar

Drama

1.7  

Sharad Kumar

Drama

अंतर्द्वंद

अंतर्द्वंद

20 mins
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"आज भी कोई आम नहीं मिला गिरा हुआ... " और दोनों होंठो को आपस में दबाते हुए, अगले दिन शायद मिल जाए इसी आशा से गिरधर आगे बढ़ चला।


असल में कच्चे आम तो वैसे २० रुपये किलो हैं लेकिन खरीद के खाने की कभी हिम्मत नहीं हुई या यूँ कह लीजिये की जरूरत महसूस नहीं हुई। क्योंकि कर्णाटक में तो आम के बहुत पेड़ हैं और अक्सर यहाँ सड़कों पर ये किनारे पे अक्सर गिरे पड़े रहते थे। लेकिन जिस रास्ते पर से गिरधर गुजरता था, उस रास्ते पे अगर गिरा हुआ आम मिले तो क्या बात है। अक्सर आते जाते उसकी नजरें सड़कों के दोनों ओर ऐसे दौड़ जाती हैं जैसे दूध की कढ़ाई में से मलाई निकालने के लिए दूधवाले ने हाथ फेर दिए हों। असल में गिरधर को आम की चटनी बहुत पसंद है। खैर छोड़िये... गिरधर का कारखाना कुछ २-३ मील की दूरी पर ही था। वो पैदल ही आया जाया करता था। उसका मानना है की उसके दादा तो १०-१० मील पैदल ही चल लिया करते थे तो वो क्यों नहीं और दूसरी तरफ कुछ पैसे ही बच जाया करते थे। गिरधर को सादा जीवन और उच्च विचार वाले लोग ही पसंद आते थे। उसका मानना था की काम की कोई कमी नहीं है, भीख मांगना तो कामचोरों की निशानी है और रही बात गिरे हुए आमों की तो वो तो प्रकृति की देन है और प्रकृति किसी एक की नहीं होती। भले ही आप उस पर अपना हक़ जतायें और इसी लिए गिरधर को गिरे हुए आमों को उठाने में कोई झिझक नहीं होती थी। उसका उसूल था की किसी को भी भीख नहीं देना है क्योंकि भीख देना उसकी कामचोरी को बढ़ावा देना है।


कारखाने से लौटने के तुरंत बाद ही वो खाना बनाने में लग जाता था। उसका मानना था की सूर्यास्त के १ घंटे के अंदर रात का खाना हो जाना चाहिए और फिर थोड़ा टहलना भी जरूरी है इसलिए वो लगभग शाम ७ बजे तक खाना पीना निपटा के टहलने निकल जाया करता था।


आज कारखाने में काम थोड़ा ज्यादा था तो लौटते वक़्त साढ़े छह बज गए थे। वो भागा भागा सा चला आ रहा था की कहीं खाना बनाने में देर न हो जाए फिर वो खाएगा कब। मन में तो ये चल रहा था की क्या बनाये जो जल्दी से बन जाए ....खिचड़ी? लेकिन आम तो है नहीं फिर मज़ा नहीं आएगा। तभी एक आवाज उसको सुनाई दी "अन्ना"। लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया। तभी फिर वही आवाज़ आयी "अन्ना "। उसे लगा की कहीं कोई उसे तो नहीं पुकार रहा है। वो मुड़ा तो बगल में एक आदमी उसको ही पुकार रहा था। गिरधर के लिए वो एक अनजान आदमी था। उसने गिरधर से बोला "अन्ना हिंदी ...हिंदी?"


देखने में बड़ा थका हुआ सा दुबला पतला, श्याम वर्ण का कोई साढ़े पांच फुट का एक आदमी उसको पुकार रहा था।


पीछे एक झोला टाँगे हुए था, चेहरे पर पसीने और धूप की सिकन साफ़ दिखाई दे रही थी। "अन्ना हिंदी?" उसने फिर बोला। गिरधर ने भी सर हाँ में हिला दिया। "अन्ना अम लोग आंध्रा से आया है (उसने एक औरत के तरफ इशारा किया, वो शायद उसकी बीवी होगी पता नहीं, उसके साथ में एक बच्ची भी थी। बच्ची कोई २-३ साल की रही होगी, बालों में तेल लगे हुए और लाल रंग का फीता बांधे हुए वो अपने ऊँगली को फीते में लपेटते हुए मेरी तरफ देख रही थी। और उस औरत के थोड़ा पीछे छुपने की कोशिश भी कर रही थी। शायद वो औरत उसकी माँ रही होगी, पता नहीं। ) कल आया अम लोग, यान अमारा पैसा गिर गया, ये बच्ची को भूकी है, थोड़ा मदद कर दो। अन्ना थोड़ा पैसा दे दो बच्ची को कुछ हो जाएगा काने को "


गिरधर ने उसकी बातें पूरी होने से पहले ही उसे टोक दिया और गुस्से भरे चेहरे से उसे देखा भी नहीं और आगे बढ़ गया। वो आदमी फिर बोला "अन्ना...अन्ना"। गिरधर ने नज़र अंदाज़ करते हुए बोला “आगे बढ़ो...” और वो भी आगे बढ़ लिया।


फिर गिरधर ने पलट कर नहीं देखा और आगे बढ़ने लगा लेकिन उसका दिमाग बार बार ये पलट कर देखा रहा था की कहीं वो आदमी उसके पीछे तो नहीं आ रहा है। एक तो वैसे ही देर हो गयी है ऊपर से ये कामचोर ...लोगों ने जैसे पेशा ही बना लिया है बस हाथ फैलाओ और मुँह खोल के मांग लो पैसा। ये लोग भावनाओं का फायदा उठाते हैं। अच्छा खासा शरीर है कहीं काम भी नहीं कर सकते बस हराम की लत लग गयी है इन्हे। गिरधर को वो ढेर सारा वाकया याद आ गए जब इस तरह के लोग पैसा मांग रहे थे कोई न कोई मज़बूरी बता कर। एक घटना उसे और याद आ गयी जब वो अपने दोस्त जवाहर के साथ शाम में घूमने जा रहा था। वही सड़क के किनारे एक अजनबी ने उन्हें रोक कर कुछ पैसे की मदद मांगी थी। गिरधर ने तो मना कर दिया था लेकिन वो अजनबी बोला की उसकी तनख्वा नहीं मिली है अभी और उसको खाने के लिए कुछ पैसे चाहिए। गिरधर ने फिर भी मना किया था। उस अजनबी ने ये भी कहा अगले मंगलवार तक वो पैसे लौटा देगा। जवाहर ने कहा "भाई मेरे पास पैसे नहीं है"


तो उस आदमी ने कहा “अच्छा २० रूपए ही दे दो”


“भाई मेरे पास १० रूपए ही है”


"अच्छा तो वही दे दो, कुछ खा लूंगा"


फिर उसके दोस्त जवाहर ने १० रूपए दे दिए। फिर कुछ दूर निकलने पे गिरधर ने जवाहर से रुकने को कहा और बोला "ये इन लोगो का रोज का काम है, ये लोग ऐसे ही पैसे मांगते हैं, हराम खोरी की आदत हो गयी है इन्हे"


"अरे नहीं हर कोई ऐसा नहीं होता " जवाहर ने उसे समझाते हुए बोला


"अच्छा ठीक है वापस चल के देखते हैं की वो व्यक्ति वहां पर और भी किसी से भीख मांग रहा है की नहीं "


फिर दोनों वापस जाते हैं उस जगह तो वहां वो शख्स नहीं दिखता। एक आदमी जो उन्हें पैसे देते हुए देख लिया था, वो वही पे था और उन्हें देख कर बोला की “ये आदमी अक्सर ऐसे ही लोगों से पैसे मांगता है कभी इस जगह तो कभी दूसरे जगह और पैसे मिलने पर दारु के ठेके पे चला जाता है”


आगे कुछ दूर और चलने पे एक दारु का ठेका दिखा उन्हें फिर वो शख्स भी वही पे दिखा। ये देख कर गिरधर ने जवाहर से कहा "देखा तुम्हारे १० रूपए दारु में बह गए, मैंने पहले ही कहा था ये लोगो का यही काम है, मेहनत में तो पसीना गिरता है"


फिर वो शख्स कभी उस रास्ते पे नहीं दिखा कितने ही मंगलवार बीत गए।


ऐसे ही कितनी घटनाएं गिरधर के दिमाग में एक के बाद एक नई सी हो गयीं। फिर जब वो थोड़ा आगे निकल आया तो रुक गया और पलट के देखने लगा। लेकिन वो लोग नहीं दिखे। वैसे भी काफी देर हो चुकी है। पौने सात बज चुके हैं। मुझे जल्दी घर पहुंचना होगा, अभी खाना भी बनाना है। वो मुड़ा और वापस घर की तरफ चलने लगा, भूख भी जोरों की लग रही है। ये तो इंसान की भूख ही है जो सारे पाप करवाती है पेट तो मासूम होता है। भूख से याद आया की वो शख्स कह रहा था की बच्ची भूखी है। अरे ये सब ऐसे ही बच्ची का मासूम चेहरा दिखा कर हमें ठग लेते हैं।


वो आगे बढ़ा जा रहा था, बादल भी घिर रहे थे। कर्णाटक का मौसम भी वाह क्या कहिये पता नहीं कब पानी बरस जाए। आज छाता भी लाना भूल गया। जल्दी घर पहुंचना होगा। वो सड़क नापते हुए चला जा रहा था। तभी अचानक से उसकी रफ़्तार जरा धीमी हो गयी। ये भूख ही है जो अमीरी गरीबी में फर्क नहीं करती, ये तो राजा को भी उसी तराजू में तौलती है जिस तराजू में रंक को। भूख तो मेरे लिए भी वही मायने रखती है जो की उस छोटी बच्ची के लिए। गिरधर के मन में कहीं ना कहीं कुछ ऐसा था जो उसे हजम नहीं हो रहा था। पर वो क्या चीज है वो समझ नहीं पा रहा था। पानी के बादल तो घिर ही रहे थे लेकिन अचानक से सवालों के बादल कहाँ से आ गए? कहीं उसने कुछ गलत तो नहीं किया? कहीं वो आदमी सच तो नहीं बोल रहा था? नहीं नहीं.... ये लोग तो ऐसे ही अक्सर पैसा मांगते हैं। १०० में से ९० लोगों को मैंने ऐसा ही करते पाया है, लेकिन अगर वो आदमी उन १० लोगों में से हुआ तो? लेकिन कभी देखा नहीं या फिर देखने की कोशिश नहीं की। काम की चोरी करना अच्छी बात है लेकिन कामचोरी मुझे पसंद नहीं। अरे नहीं, वो आदमी कह रहा था की वो कल यहाँ आया, क्या कल से कोई काम नहीं ढूढ़ सकता था? लेकिन ऐसे कोई काम भी नहीं देगा एक परदेशी को जिसको कन्नड़ भाषा ना आती हो, ऐसे कोई किसी पे विश्वास भी तो नहीं कर सकता है। हो सकता है उसने काम के लिए भी दुकानदारों से बात की हो लेकिन ऐसे कोई १-२ दिन के लिए कौन सा काम देगा? लेकिन अब मै ये सब क्यों सोच रहा हूँ वो तो चला गया। गिरधर ने पीछे मुड़ कर खड़े खड़े दूर तक नजरें घुमाई लेकिन वो आदमी नजर नहीं आया। आदमी का लिवाज तो याद नहीं लेकिन उसके साथ एक औरत और एक बच्ची थी। पर वो लोग कहीं नजर नहीं आ रहे थे। वो फिर से वापस मुड़ा और घर की तरफ चलने लगा।


अगर वो बच्ची सच में भूखी होगी तो? वो तो मासूम है, उसे दुनियादारी से क्या मतलब? हम तो बड़े उम्र वाले है भूख को आंसू पीकर भी बुझा सकते हैं लेकिन वो बच्ची? ये तो उसके बाप को सोचना चाहिए ना, जिम्मेदारी तो उसकी है। तो फिर हमारी जिम्मेदारी क्या है? ये समाज किसी एक की जिम्मेदारी से नहीं चलता। सब को अपने अपने हिस्से की जिम्मेदारी और कर्तव्य समझना चाहिए। मेरी जिम्मेदारी है की मै इस समाज की इकाई को कामचोर बना कर इस पूरे समाज को आलसी और खोकला ना करूँ और ये मैंने बखूबी निभाया है। इस तरीके से गिरधर अपने आप को अपनी नज़रों में सही साबित करने की कोशिश कर रहा था। लेकिन अगर एक इकाई भूखी हो और मदद की गुहार करे तो फिर क्या मुँह फेर लेना सही है? मै इस काबिल हूँ की उसकी मदद कर सकता था लेकिन मैंने नहीं किया, वजह थी मेरा शक। शक तो वो दीमक है जो इंसानियत को खोकला कर देती है। तभी गिरधर अचानक से रुका और इधर उधर देखने लगा, उसे लगा की कहीं उसके मन का ये अंतर्द्वंद शब्द बनके उसके मुँह से बाहर तो नहीं आ रहा? कहीं कोई उसे सुन तो नहीं रहा? सुनेगा तो यही सोचेगा की ये आदमी क्या बुदबुदा रहा है, कहीं पागल तो नहीं हो गया। लेकिन कोई नहीं सुन रहा था उसे…. सिवाय उसके मन के। उसने आगे कदम बढ़ाना चाहा लेकिन नहीं बढ़ा सका। वो एकदम से खड़ा हो गया। ऊपर देखा बादल घिर रहे थे, उसे ऐसा लगा की सारे बादल उसी के ऊपर आकर स्थिर हो रहें हैं फिर अपने मन में झाँका तो वहां भी उसे कोई खड़ा हुआ मिला। वो कौन था उसकी चेतना या उसकी भावना या फिर भावनाओं की चेतना। वो एकदम से शांत हो गया। एक लम्बी सांस ली उसने और अपने आप से पूछा की अब क्या करना सही होगा? जैसे अभी अभी सो के उठा हो, अभी तक क्या था एक उलझा हुआ सपना। जैसे नींद खुली और सब कुछ सुलझ गया हो। ये दुनिया, ये समाज ऐसे ही चलता रहेगा, लोग दौड़े जा रहे हैं, यहाँ किसी को किसी की फ़िक्र कहाँ, गाड़ियां आ रही हैं, गाड़ियां जा रही हैं, लोग अपनी अपनी रोजी रोटी में ही उलझे हुए हैं, वो दुकानवाला अपने ग्राहक से उलझा हुआ है, वो सवारी गाड़ीवाले से मोलभाव कर रही है, वो ठेले वाला अपना ही राग अलाप रहा है ...."पालक १२ रूपए किलो", वो फुटपाथ वाला ......"नीबू १० के ५" .......वो आइसक्रीम वाले की आवाज....., वो मंदिर की घंटी सुनाई दे रही है। मुझे क्या करना चाहिए अब ? गिरधर ने खुद से ये पूछा। वो आदमी कहाँ गया? चलके देखूं क्या? बस यूँ ही जरा देखें तो वो और किसी से भी पैसे मांग रहा है क्या? लेकिन अब लौट के क्यों जाऊं, उस समय तो नहीं दिया पैसे? वो आदमी अगर उस औरत का पति था, और जिस तरीके से मैंने उसको नज़रअंदाज किया, तो शायद उसे ये बात अच्छी नहीं लगी होगी। क्योंकि पति का सम्मान एक औरत के लिए एक आभूषण ही होता है। और शायद उस आदमी को भी अच्छा न लगा हो की उसको अपनी पत्नी के सामने भीख मांगना पड़ रहा है, और मेरे जैसे लोग उसको नज़रअंदाज कर रहे हैं। सम्मान तो सबसे बड़ी चीज है, पैसे से भी बड़ी। अगर वो लोग सम्मान को गिरवी रख कर पैसे मांग रहे हैं तो निश्चय ही बड़ी मज़बूरी होगी। लेकिन वो लोग जो रोज ही भीख मांगते होंगे, शायद रोज ही उनकी मज़बूरी खड़ी हो जाती होगी। खैर चलता हूँ उन्हें देखने। लेकिन देर हो रही है। अरे रोज ही तो खाना खाते हैं, एक दिन नहीं सही या फिर देर से सही और रही बात टहलने की तो वो तो मै टहल ही रहा हूँ। और लोग क्या कहेंगे की मैंने अपना अचानक से रास्ता कैसे बदल दिया। अरे हो सकता है मै कोई चीज अपने कारखाने में भूल आया हूँ वही वापस लेने जा रहा हूँ। वैसे भी किसके पास इतना समय है की मेरे ऊपर आँखे गड़ाए। लेकिन बादल भी उमड़ रहे हैं। अरे तो कभी कभी बारिश में भीगना भी अच्छा होता है। ..... इस तरह से गिरधर खुद के सवालों का जवाब भी खुद ही देता जा रहा था और जब भावना ने उसके उसूलों पर अपनी पकड़ बना ली तो वो भी उसी रस्ते पे बढ़ चला जिधर वो लोग बढ़ गए थे।


उसने उस रस्ते पे दूर तक देखा लेकिन वो आदमी या उस आदमी जैसा कोई नज़र नहीं आया। लेकिन पीछे से वो कैसे पहचानेगा। अरे हाँ वो तीन लोग थे। वो आदमी उसकी औरत और वो छोटी सी बच्ची। एक औरत एक बच्ची के साथ नज़र आ रही है लेकिन उसने तो सलवार पहन रखा है, क्या उस औरत ने सलवार पहन रखा था? नहीं नहीं उसने तो साड़ी पहन रखी थी। ये लोग नहीं हो सकते। वो और आगे बढ़ा और उसकी निगाहें उससे भी आगे, पर वो लोग कहीं नजर नहीं आये। मुझे लौटना चाहिए शायद वो लोग बहुत दूर निकल गए होंगे। लेकिन अगर मै लौट गया तो मुझे इसका अफ़सोस हमेंशा रहेगा। एक अफ़सोस ही है जो दिखता नहीं पर हमेंशा उसी जगह रहता है जहाँ से वो शुरू हुआ था। थोड़ा और आगे बढ़ता हूँ तो शायद दिख जाएँ। इसी उम्मीद में वो और आगे बढ़ा लेकिन वो लोग नजर नहीं आये। फिर वो रुक गया और एक बार तो उसके मन में ख्याल आया की अब वापस लौट जाना चाहिए वो लोग नहीं मिलेंगे। वो उस जगह से काफी दूर निकल आया था जहाँ वो लोग मिले थे। पीछे मुड़कर गिरधर उस जगह को देखता है। उसे उस पल की घटना साफ़ नजर आती है और उसे दिखता है वही पे खड़ा हुआ जीता जगता उसका अफ़सोस। वापस लौटते वक़्त वो उस अफ़सोस के पास से ही गुजरेगा। वो अफ़सोस फिर उसे घूरेगा और शायद हमेंशा घूरता रहेगा।


"नहीं नहीं आखिर वो लोग जाएंगे कहाँ होंगे यहीं कहीं " ऐसा सोचकर फिर से उन्हें ढूंढ़ता हुआ आगे बढ़ने लगा। थोड़ा आगे बढ़ा तो उसे एक किनारे पतली सी सड़क दिखाई दी। अब वो किधर जाए ? उसने अपनी नजरों को दूर तक दौड़ाया लेकिन वो लोग नजर नहीं आये। फिर उसने उस पतली सड़क को चुना आगे बढ़ने के लिए। वैसे भी लगभग सवा सात बज चुके थे और उसकी भूख भी लगभग ख़त्म सी हो चुकी थी या यूँ कह लीजिये की भूख का ख्याल अब उसके दिमाग से मिट चुका था, बचा था तो केवल उसका असंतोष। वो आगे बढ़ता जा रहा था और इधर उधर भी देखता जा रहा था। तभी कुछ दूर चलने पर ही उस आदमी जैसा कोई दिखा उसे। फिर उसने उस औरत और एक बच्ची को भी देखा साथ में। उसे लगा की शायद ये वही लोग हैं, वो तेजी से उनकी ओर आगे बढ़ा। वो वही लोग थे उसे यकीन हो गया। अब उसने थोड़ा बेहतर महसूस किया, उसकी धड़कने तेज हो गयी कहीं अब की बार इन्हे न खो दे इसलिए तेजी से उनकी ओर बढ़ चला। उसकी नजर उन्ही के ऊपर टिकी थी। उसने देखा की वो आदमी दूसरे लोगों के भी पास जा रहा है, लेकिन लोग हाथ हिला कर उसे आगे बढ़ जाने को कह रहे थे। कुछ लोग तो इशारा भी कर रहे थे की उनके पास पैसे नहीं हैं। पीछे पीछे उसकी बीवी और उसकी बच्ची भी चल रहे थे। वो लोग एक जगह रूक गए, शायद उसकी बीवी ने कुछ कहा होगा फिर उस आदमी ने बच्ची को उठाकर अपने कंधे पर रख लिया। पिता के कंधे पर तो बचपन और भी खेलता है लेकिन जब यही कंधे बुढ़ापे में झुक जाते हैं तो उन्ही बच्चों के लिए जवानी की रूकावटें बन जाते हैं ...खैर...... गिरधर मन में सोचता जा रहा था की वो कितने रूपए की मदद कर सकता है, २, ५ या फिर १० रूपए ? जेब में हाथ डाला तो ५ का सिक्का पड़ा हुआ था, १० रूपए का भी नोट था एक ५० रूपए का भी नोट था जिसे उसने उस जेब से निकाल कर ऊपर वाली जेब में रख लिया की कहीं गलती से ये नोट न निकाल आये, आखिर उसके मेंहनत और पसीने की कमाई है। फिर सोचता है की २ रूपए में क्या मिलेगा? १ इडली का दाम तो ३ रूपए है? और १ प्लेट चावल का दाम १५ रूपए। बच्ची के लिए तो २ इडली काफी होगी लेकिन इसके माँ बाप ? अरे माँ बाप तो फिर भी सबर कर सकते हैं और उनका पेट अपने बच्चों की भूख मिटाने से ही भर जाता है। ठीक है ६ रूपए दे देते हैं। फिर उसने ५ का सिक्का टटोला, १ रूपए का सिक्का नहीं है, अब क्या करें? चलो ५ रूपए ही दे देते हैं। कुछ तो मदद हो ही जायेगी। ऐसा सोच कर वो ५ का सिक्का मलते हुए आगे बढ़ा। फिर उसने देखा की वो बच्ची एक गुब्बारे वाले को ऊँगली से दिखा रही है लेकिन उस बच्ची का बाप उसे शायद मना कर रहा है क्योंकि उसके पास तो पैसे होंगे ही नहीं। शायद बच्ची को उम्मीद है की उसका बाप उसको वो खरीद कर देगा, और ऐसी उम्मीद तभी बनती है जब की उसके बाप ने बच्ची की उम्मीदों को पहले भी पूरा किया होगा। अरे ये क्या, बच्ची तो रोने लगी, शायद गुब्बारे के लिए या फिर उसे याद आ गया होगा की वो भूखी है। गिरधर उनके काफी करीब था इसलिए शाम के साढ़े सात बजे भी वो उनकी हरकतों को साफ़ साफ़ देख पा रहा था। इंसान की जरूरत और उसकी इच्छा एक दूसरे से जुडी हुई होती है। कभी कभी इंसान अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए अपनी जरूरतों से सौदा कर सकता है लेकिन अगर वो इच्छा पूरी न हो तो उसकी दबी हुई सारी जरूरतें अपना अपना मुँह खोल लेती हैं। यही उस बच्ची के साथ भी हुआ होगा। गुब्बारा उसकी इच्छा है, और भूख उसकी जरूरत....खैर। उसकी माँ ने उसको चुप कराते हुए अपनी गोद में उठा लिया और चेहरे पे हाथ फेरते हुए अपने पल्लू से उसके आंसुओ को पोछने लगी। ये देख कर गिरधर की उँगलियाँ ५ के सिक्के को छोड़कर १० के नोट पर चली गयीं और वो नोट को हौले हौले टटोलते हुए आगे बढ़ने लगा। अब गिरधर सोच रहा था की उसके पास कैसे जाए ? अगर पीछे से उसको रोकेंगे तो उसे लगेगा की मै उसका पीछा कर रहा हूँ। उसके मन में तरकीब आयी की क्यों न वो इनसे आगे निकल जाए और आगे से आये तो हो सकता है वो आदमी उसे फिर से रोके। ऐसा सोचकर वो एकदम अपनी रफ़्तार में उस आदमी के पास से गुजरते हुए आगे बढ़ गया। थोड़ा और आगे बढ़ने के बाद गिरधर रुकना चाहता था लेकिन रुका नहीं बल्कि अपनी चाल धीमी कर दी, जिससे लोग ये न समझे की ये अचानक से रुक क्यों गया और कहीं लोग उसे पैसा देते हुए न देख लें। इसकी दो वजह थी, पहली ये की अगर लोग उसे पैसा देते देख लेंगे तो गिरधर को बेवकूफ समझेंगे और सोचेंगे की ये भी उस आदमी के जाल में फँस गया, और दूसरी ये की गिरधर नहीं चाहता की कोई भी नेकी करते हुए उसे देखे। दूसरे शब्दों में वो नेकी का ढिंढोरा नहीं पीटना चाहता, क्योंकि 'नेकी कर और दरिया में डाल'। थोड़ा और आगे बढ़ने पर गिरधर ने ऐसा बहाना किया की जैसे वो कुछ भूल आया हो घर पे और उसे वापस जाना होगा। ऐसा बहाना बना कर वो रुक गया फिर वापस मुड़ा और उस आदमी की तरफ जाने लगा। गिरधर ने देखा की वो आदमी किसी दुकान वाले से कुछ मांग रहा है और शायद उस दुकानवाले ने १-२ रूपए के सिक्के उसे दिए हों। फिर वो लोग भी आगे बढ़ने लगे। गिरधर रुक गया और उन लोगों का इंतज़ार करने लगा। वो उस आदमी को ही देख रहा था की तभी उस आदमी की नजर गिरधर पे पड़ी। उसने गिरधर को देखते ही शायद पहचान लिया और बोला " नमस्कारा अन्ना"


फिर गिरधर ने पूछा "मिले पैसे?"


"आ अन्ना, १० रूपए हो गया, बच्ची के लिए काना हो जायगा" उसने असंतोष से भरे स्वर में कहा।


गिरधर ने मुस्कुराते हुए पूछा "और तुम लोग?"


" अम लोग कल कायगा, बच्ची का लेगी तो ठीक है"


“अभी अम लोग गाडी पकड़ेगा स्टेशन पे, रात में। कल को गर पाऊच जायगा "


" गाडी का टिकट है ?" गिरधर ने विस्मयपूर्वक पूछा।


फिर उस आदमी ने ना बोलते हुए सर हिला दिया।


"१० रूपए हैं तुम्हारे पास ?" गिरधर ने तुरंत उससे पूछा।


आदमी ने थोड़ा सकुचाते हुए हाँ में जवाब दिया शायद उसने सोचा होगा की इतनी मेहनत के बाद १० रूपए इकठ्ठा हुए थे, लगता है वो भी गए, फिर बच्ची क्या खायेगी? गिरधर ने उससे वो १० रूपए मांगे, तो वो आदमी उसका चेहरा ही देखता रह गया। फिर वो अपना हाथ धीरे धीरे अपनी जेब के पास ले जा रहा था क्योंकि उसे पता था की ये पैसे कितनी मुश्किल से आये हैं और अब तो रात भी हो रही है अब कौन मदद करेगा? वैसे भी रात तो चोर-उच्चकों के लिए बदनाम है। जिन लोगो ने दिन के उजाले में चेहरा देख भी उतनी मदद नहीं की वो रात में क्या मदद करेंगे? "अरे दो भाई मै भी भूखा हूँ " गिरधर ने मुस्कुराते हुए कहा। फिर उस आदमी ने अपनी जेब से १-२ रूपए के सिक्के जो कुल मिलाकर १० रूपए थे, निकाल कर उसको दे दिए। उसकी पत्नी और बच्ची ये देख रहे थे, लेकिन वो भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे। एक बार तो उन लोगों ने शायद ये भी सोच होगा की कहीं गिरधर कोई दरोगा तो नहीं है। फिर गिरधर ने वो १० रूपए अपनी पेंट के जेब में रख लिया और मुस्कुराते हुए अपनी ऊपर वाले जेब में से ५० रूपए निकाल कर उसे देने लगा और कहा “ये लो बच्ची को खाना खिला देना”।


ये देख कर वो आदमी जैसे द्रवीभूत हो गया हो उसने हाथ जोड़कर वो पैसे दोनों हाथों से लिए और माथे से लगा कर प्रणाम करने लगा। इतने में गुब्बारा वाला भी उधर से गुजरने लगा तो गिरधर ने ५ का सिक्का निकाला और गुब्बारे वाले से २ रूपए का गुब्बारा खरीद कर उस बच्ची को दे दिया। बच्ची ने शर्माते हुए गुब्बारा लिया और मुस्कुराते हुए अपनी माँ की तरफ देखने लगी। ऐसा नजारा देख कर वो आदमी और वो औरत ने भी मुस्कुरा दिया और मन ही मन में धन्यवाद देने लगे। फिर गिरधर मुड़ा और वापस अपने घर की तरफ लौटने लगा। वो बच्ची बार बार उसे पलट कर देखे जा रही थी और वो आदमी भी।


शायद इंसानियत अभी भी ख़त्म नहीं हुई है। वापस लौटते वक़्त गिरधर एक सुकून का अनुभव कर रहा था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे एक भारी बोझ को उसने सही जगह पर उतार दिया हो और उसके कंधे हलके हो गए हों। उसे ऐसा लग रहा था जैसे किसी जमींदार का सारा कर्ज उतार कर अपनी गिरवी रखी जमीन वापस ले ली हो। बारिश की बुँदे अब गिरनी शुरू हो गयी थीं लेकिन उसका मन पहले से ही एक अहसास से ओत- प्रोत हो चुका था। अब उसे भूख भी लग रही थी। चलते चलते उसने उस जगह को भी देखा जहाँ वो आदमी उसे पहली बार मिला था लेकिन अब वहां पर कोई अफ़सोस नहीं खड़ा था। पता नहीं गिरधर ने क्या सोचकर उस आदमी को ४० रूपए दे दिए, इतने में तो २ किलो आम मिल जाते।


आज किसकी जीत हुई भावना की या उसूलों की? इतना सोचने का वक़्त नहीं था गिरधर के पास क्योंकि उसे घर पहुंचने की जल्दी थी। भावना और उसूल की सुलह नहीं हो सकती। जहाँ भावना है वहां उसूल मात खा जाती है और जहाँ उसूल हैं वहां भावना का कोई काम नहीं। असल में अपनी अपनी जगह दोनों ही सर्वोपरि हैं। वैसे अगर दोनों में जंग छिड़ जाए तो उसूल ही जीतना चाहिए नहीं तो सत्य का लोप हो जाएगा, क्योंकि भावना से ही मजबूर होकर इंसान गलत कदम उठाता है। फिर वो ये नहीं देखता की किया गलत है और क्या सही, क्या सत्य है और क्या असत्य। लेकिन भावना का भी होना जरूरी है क्योंकि एक भावना ही है जो इंसान को इंसान से ही नहीं, बल्कि जीव को जीव से जोड़ती है। उसूल सख्त होते हैं जबकि भावना कोमल।


थोड़ी तेज़ हवाएं चलने लगी थीं और मौसम भी काफी ठंडा हो गया था। गिरधर अपने उसी रस्ते से वापस आ रहा था जहाँ वो आम का पेड़ था। तेज हवाएं चल रही हैं शायद २-३ आम गिरे हुए मिल जाएँ। घर चल के आज खिचड़ी बनायंगे क्योंकि खिचड़ी जल्दी बन जाती है और आम की चटनी के साथ खा लेंगे। ऐसा सोचते हुए वो आगे बढ़ा जा रहा था। फिर वो आम के पेड़ के पास पहुंचने वाला था की दूर से ही उसकी निगाहों ने सड़क साफ़ करना शुरू कर दिया। इधर-उधर, आगे-पीछे, दाएं-बाएं हर तरफ उसकी निगाहें दौड़ी। लेकिन आज भी कोई आम नहीं गिरा था।


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