उलझन

उलझन

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गहरी सोच में डूबी अनामिका शायद अपनी जिन्दगी का हिसाब मन ही मन लगा रही थी। चेहरे पर छाया अवसाद व आँखों में छायी उदासी से लग रहा था मानों खुशियों ने साथ वर्षों पहले छोड़ दिया हो। अचानक दरवाजे की घन्टी बजी देखा तो पति सोमेश काम से लौट आये। खुले दरवाजे से बिना कुछ बोले, सर झुकाये अन्दर चले गये। अनामिका इसकी अभ्यस्त थी, उसने दो कप चाय बना कर एक कप बैठक में पति के लिये रख दिया व दूसरा स्वयं लिये डाइनिंग टेबल पर बैठ गई। थोड़ी देर में बिटिया विनीता काम से लौटी व सीधी अपने कमरे में चली गई। उसे कमरे में चाय देकर अनामिका रात के भोजन की तैयारी में जुट गई। रात को खाने पर भी आपस में तीनों के बीच कोई बात नहीं हुई। बेटा सौरभ विदेश में है व माह में एक आध बार फोन पर हाल चाल पूछ लेता है।

किन्तु पहले ऐसा नहीं था। पाँच बहनों और दो भाईयों में घर में सबसे छोटी होने के कारण सबके लाड़ प्यार में वह पली बड़ी। बिना दहेज के ब्याह कर ससुराल इस आशा से आई कि परिवार में सबकी सेवा कर दिल जीत लेगी । गृह विज्ञान में एमएससी की पढ़ाई घर चलाने में काफी सहायक सिद्ध हुई। पहले सौरभ फिर विनिता ने आकर उसके जीवन में अपार खुशियाँ भर दी।वह अपने को सौभाग्यशाली समझने लगी। शादी के २० वर्ष मानों पंख लगाकर उड़ गये।

अचानक मानों परिवर्तन की धीमी बयार ने जैसे जीवन की नौका को झकझोरना शुरू कर दिया। बच्चे बड़े होकर अपने हम उम्र मित्रों में व्यस्त रहने लगे। पति कार्य की अधिकता के चलते अथवा पुराने मित्रों के साथ समय बिताने के बहाने अधिक समय बाहर ही बिताने लगे। घर आने पर चुपचाप खाकर सो जाना। देरी से आने का कारण पूछने पर काम के बोझ का बहाना। सभी की उपेक्षा ने मन में संशय के बीज बो दिये। अधिक बार पूछताछ करने पर वहम की बीमारी के बहाने डाक्टर से इलाज के नाम पर सेडेटिव्स दिये जाने लगे। परिणाम स्वरूप आपसी वाद विवाद कब झगड़ों में बदल गया पता नहीं चला। सुस्ती, शंका व परिवार से कटने के तनाव ने उसके विवेक को प्रभावित किया नतीजतन उसके व्यवहार में एक चिड़चिड़ापन आने लगा। समय के साथ इलाज का स्वरूप मानसिक रोग के इलाज में बदल गया।

पति के अपने पर्यटन संबन्धी व्यवसाय के चलते विकसित वाक्चातुर्य से आसपड़ोस व परिवार में सभी को मानसिक रोगी होने व मनोचिकित्सक से इलाज चलने के बारे में आश्वत कर दिया। परिणाम स्वरूप सभी ने संशय भाव से दूरी बना ली। संबन्धियों से बातचीत समझाइश अथवा सहानुभूति तक सीमित रह गई। आरम्भ में अपनों से क्रोध मिश्रित व्यथा को बाँटने के प्रयास भी किये। किन्तु पति के पास समझाने के लिये तिल को ताड़ बनाने जैसे कई उदाहरण थे। परिणाम स्वरूप करीब करीब सभी ने उसके मानसिक रोग को स्वीकार लिया। परिस्थितियों के इस मकड़जाल में फँसी वह बच्चों के ३० वर्ष पार करने के बाद भी विवाह के लिये राजी न होने के लिये स्वयं को जिम्मेदार मान वह स्वयं को भी मानसिक रोगी मानने को विवश है।

इस इन्तजार में कि कोई चमत्कार शायद उसे इस उलझन से बाहर निकाल पाये।


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