Prafulla Kumar Tripathi

Drama Action Inspirational

4.3  

Prafulla Kumar Tripathi

Drama Action Inspirational

उजड़ा हुआ दयार -श्रृंखला (14)

उजड़ा हुआ दयार -श्रृंखला (14)

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समीर के भारत वापसी का दिन निकट आ रहा था वह विचलित था की एक बार फिर मीरा के साथ घर गृहस्थी ,झगड़ा-लड़ाई, का सिलसिला शुरू होगा। उसके तनावपूर्ण जीवन को जो इन एक साल में राहत मिली हुई थी उसी में अब फिर से जाना  होगा।

उस दिन वीकेंड था। पुष्पा की तबीयत कुछ ठीक नहीं थी इसलिए समीर अकेले ही गाड़ी लेकर लंच के बाद बाटेनिकल गार्डेन घास के मैदान की ओर निकल गया .........दूर से ही सूत्रो टावर दिखाई दे रहा था ...लेकिन उसका गन्तव्य गोल्डन गेट पार्क में मानव निर्मित सबसे बड़ी झील स्टोव झील था जहाँ उसे नांव लेकर घूमना था।

नांव मिल गई और वह उसमें सवार होकर कभी मंद तो कभी तेज़ गति से बह रही हवाओं के साथ सैर करने लगा।उसे आज ना जाने क्यों अपना यह अकेलापन अच्छा लग रहा था। क्या उसे पुष्पा से, उसके सौन्दर्य से, उसकी मादकता से विरक्ति हो चली है ? ...वह सोचने लगा।

मनुष्य का दिमाग शांत और स्थिर रहे तो वह कुछ न कुछ अच्छी बातें सोचता रहता है। अपने कैरियर के बारे में, अपने परिवार के बारे में, अपने समाज और देश के बारे में। जानवर और मनुष्य में यही तो अन्तर है कि जानवर सिर्फ अपने पेट के लिए जीता है और इंसान सिर्फ पेट या अपनी इच्छापूर्ति के लिए ही नहीं बल्कि अपने परिजन, अपने समाज और देश के लिए भी सोचता या करता रहता है। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने क्या खूब लिखा है -

 " विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी,

मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी। 

हुई न यों सु मृत्यु तो वृथा मरे वृथा जिए,

नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।

यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे, 

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे !"

एकता, सहानुभूति, सद्भाव, उदारता और करुणा ही तो मनुष्यता है।

उसकी नाव किनारे लगी ही थी कि उसे गेरुआ रंग का आपाद मस्तक वस्त्र पहने एक सन्यासी मिल गए। मानो वे उसका ही इंतज़ार कर रहे थे।

'आओ वत्स ! मैं तुम्हारे ही इंतज़ार में यहाँ घंटों से खड़ा हूँ।" उस अपरिचित साधू ने उनको सम्बोधित करते हुए कहा।

समीर चौक गया और बोला -

"महाराज जी क्या आप मुझे जानते हैं ?"

"हाँ - हाँ वत्स ! मैं तुम्हारे लिए ही भेजा गया हूँ। मेरे गुरुदेव ने सकारण मुझे तुम्हारे पास भेजा है .." वह थोड़ा रुकते हुए फिर बोले -" अरे, .तुम यहीं खड़े खड़े बात करोगे कि कहीं हमलोग बैठ कर बातें करें ? "

"जजी महाराज !"समीर बोला।

समीर का मन बेचैन था ..वह अब थक चुका था और चाहता भी यही था कि उसके जीवन में अशांति के जो कारक तत्व जुड़ गए हैं उनसे वह मुक्त हो सके। उसने बचपन में " खुल जा सिमसिम " की कहानी सुनी थी। कैसे एक जादुई चिराग रगड़ने पर जिन्न निकलता है और अपने आका की सभी इच्छाएँ पूरी करके गायब हो जाया करता था। 

समीर चुम्बक की तरह उस अपरिचित साधू से संवाद करने में व्यस्त हो गया था। क्या उसकी अपनी मनोवांछित कामना की पूर्ति हो जायेगी ?

(क्रमशः)


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