त्याग ...औरत से औरत तक
त्याग ...औरत से औरत तक


मेरा जन्म 01.01.1993 को हुआ, लो हो गई शुरुआत मेरा दुसरो के लिए जीने का। अभी शुरुआत हुई एक औरत को माँ बनने का सुख देकर उसे पूर्ण औरत बनने में मदद करके। जिंदगी चलते रहने का नाम है एक औरत (दादी)के वंशज के तरह चल रहा है। उम्र पढ़ने का हुआ तो पढ़ना शुरू किया कि माँ बाप दादा दादी सभी पढ़े लिखे तो मैंने भी पढ़ना शुरू किया। उम्र का पड़ाव बढ़ते बढ़ते जवानी तक पहुँचा और नज़र फ़िसलने के कारण किसी को दिल दे बैठे अब उसके लिए जीना । खुद के चैन का त्याग करके निरंतर उसको समय देना उससे बातें करना, जैसे खुद को उसे सुपुर्द कर दिया हो। अब ये बात घर के लोगों को नागवार गुजरी तो उन्होंने अलग होने को कहा, चलो फिर से त्याग।
अब शादी की बात चलनी शुरू हुई, शादी हो गई।
अब उसके (पत्नी) के लिए जीना शुरू। खुद के जीवन से एक और त्याग।
समाज का देन है सामने वाला तैयार हो या न हो उसकी शादी करा दो। चलिए जीते हैं अब इस बात के साथ कि जिसे अपने यहाँ लाये हैं उसे कोई कष्ट न हो। इसके लिए कमाना पड़ेगा और अपनों को गवाना पड़ेगा।
यार कुछ काम करने से सब खुश हैं तो किसी से पत्नी या परिवार। किसको खुश रखूँ समझ में नहीं आता है। उसको जिसने जन्म दिया पाल पोष कर बड़ा किया पढ़ाया लिखाया या फिर उसे जिसने अपने परिवार को छोड़ कर मेरा हाथ थामा। मेरा हमसफर, हमराह बना। सुख दुःख का साथी बना।
ये सच है माँ बाप कड़वा बोलते हैं पर हमारे ही भविष्य के लिये और ये भी सच है कि तुम भी कुछ कहती हो तो हमारे भविष्य के लिए।
क्या करूँ....?