तू गाँधी की लाठी ले ले!
तू गाँधी की लाठी ले ले!


"सभ्यता की तरह तुम भी इतिहास और गांँधी जैसे महापुरुषों की लाठियों के सहारे को हमारा सहारा मानने की भूल कर रही हो!" नयी पीढ़ी ने अपने देश की संस्कृति से कहा।
"भूल तो तुम कर रही हो, वैश्वीकरण के दौर में बिक रहे मुल्कों, उनके स्वार्थी नेताओं और बिके हुए बुद्धिजीवियों के बयानों और साजिशों में फंँसकर!" संस्कृति ने अपने हाथों में थामी हुई लाठी चूमते हुए कहा - मसलन ये देखो, गांँधी जी की लाठी! ये लाठी मेरे लिए उनके अनुभवों, विचारों और दर्शन की सुगठित प्रतीक है। किताबों, काग़ज़ों, चरखों, कलैंडरों से, और खादी से गांँधी को कोई कितना भी दूर कर दे, लेकिन उनकी दी ये लाठी मुझे संबल देती है! मैं तुम्हें कभी गुमराह नहीं होने दूंगी!"
"ख़ूब सुने हैं ऐसे प्रवचन! हमें पेट पूजा, परिवार चलाने और दुनिया के
साथ चलने के लिए ऐसी लाठियों के सहारे की ज़रूरत नहीं, जिन्हें देश की सत्ता और क़ानून भी तोड़ डालती है!" नयी पीढ़ी ने अपने अनुभव आधारित कुतर्क करना शुरू कर दिया- "गांँधी अब हमारे लिए प्रासंगिक नहीं हैं! गांँधीगिरी तो महज़ मज़ाक़ बन कर रह गई है!"
"प्रासंगिक तो हैं प्रिय! अवसरों को भुनाने मात्र के लिए टोपियां पहन कर अहिंसा, सत्याग्रह, धरने और आंदोलन किए जाते हैं, मात्र सस्ती लोकप्रियता पाने या स्वार्थपूर्ति के लिए; देश और उसके समाज कल्याण के लिए नहीं न! लोगों की मति भ्रष्ट हो गई है!" संस्कृति ने कहा।
"तो मति भ्रष्ट करने वालों को कौन समझाएगा?"
"इन लाठियों का सही उपयोग, सही समय पर... और ये तुम ही कर सकती हो!" संस्कृति ने नयी पीढ़ी से आह्वान किया।