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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Romance Classics Fantasy

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Romance Classics Fantasy

तुमसे मिलना अच्छा लगता है

तुमसे मिलना अच्छा लगता है

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मीरा की खुशियों का आज कोई ठिकाना नहीं था। जबसे जागी थी तबसे ही चेहरा कमल की तरह खिला हुआ था। आंखों में मदहोशी छाई हुई थी। होंठों पर मुस्कान तैर रही थी। दिल में उमंगों का सागर हिलोरें ले रहा था और दिमाग ? उसमें न जाने कितने ख्वाब पल रहे थे। 

आज पूरे पांच दिन बाद "वो" आने वाले हैं। ये पांच दिन कैसे बीते, यह मीरा ही जानती है। ऐसा कोई अवसर नहीं था जब उसके खयालों से "वो" ओझिल हुए हों। हर वक्त बस उन्हीं का ध्यान। "वो" कहते भी हैं कि इतना मत सोचा करो। मगर वो क्या करे ? उसके हाथ में कुछ भी नहीं है। उसके "वो" उसके अंदर विराजमान हैं तो वह कर भी क्या सकती है। आंखों में उन्हीं की तस्वीर। होंठों पर उन्हीं का नाम। 

अपने जॉब के लिए "उनको" बाहर भी जाना पड़ता है। मीरा भी जानती है यह सब। वह कहती भी है कि आपको अपने जॉब की खातिर ये सब करना भी चाहिए। लेकिन वह "उनकी" जुदाई बर्दाश्त नहीं कर पाती है। "वो" चले तो जाते हैं मगर मीरा का सब कुछ अपने साथ ही ले जाते हैं। मीरा तड़पती रहती है उसी तरह जैसे जल के बिना मछली। बस प्राण ही नहीं निकलते हैं उसके। प्रेम की पराकाष्ठा है ये। मगर वो कर भी क्या सकती है। उसके वश में कुछ भी नहीं है। 

पिछले चार दिनों में उसका क्या हाल हुआ है ये वही जानती है। ना खाने की इच्छा होती थी और ना ही बनने संवरने की। किस के लिए सजे संवरे ? जब "वो" ही नहीं तो बनना संवरना भी क्यों ? बस, किसी तरह से वक्त कट जाता है उसका। 

मगर आज ! आज तो "वो" आ रहे हैं ना। जैसे मुर्दे में जान आ जाती है , उसी तरह मीरा के शरीर में भी जान आ गई थी। उसका बदन बिजली की भांति काम कर रहा था। पूरे घर की साफ सफाई अच्छे से की थी उसने। "उनको" साफ सफाई बहुत पसंद है। बैडशीट वगैरह सब बदल डाला। घर को एक दुल्हन की तरह सजा दिया उसने। आखिर पांच दिनों के बाद "मिलन की बेला" आई है। उनसे मिलने के बाद वह होश में कहां रहती है। वैसे तो वह उनके बिना भी कौन सा होश में रहती है ? मगर मिलने के बाद तो वह जैसे "कान्हा की बंशी" बन जाती है। एक पल भी जुदा नहीं होना चाहती है। 

उसने स्नान करके अपने आराध्य "शिव" की पूजा की और "उनकी" सलामती की प्रार्थना की। ये औरतें भी कितनी अजीब होती हैं ना। अपने लिए कभी कुछ नहीं मांगती। बस , "उनके" लिए या फिर बच्चों के लिए ही मांगती हैं। सबकी ख़ुशी में ही अपनी खुशी ढूंढ़ लेती हैं ये औरतें। 

मीरा ने "अपने उनके" लिए खाना बनाना शुरू किया। मिष्ठान बहुत पसंद हैं उनको। खीर के तो दीवाने हैं वे। मीरा खीर बनाने लगी। जैसे जैसे दूध पकता रहा उसकी प्रीत भी वैसे वैसे पकती रही। दूध की कड़ाही में "उन्हीं" का चेहरा नजर आ रहा था उसे। केशर वाली खीर के "दास" हैं वे। पूरा घर केशर एवं मीरा की प्रीत से महक रहा था। 

आज वह "उनको" सरप्राइज देना चाहती थी। इसलिए हलवा भी बनाने लगी। सूजी का हलवा बहुत पसंद करते हैं वे। अब तो मीरा को खुद की पसंद का भी पता नहीं है। सब भूल चुकी है वह। बस याद है तो इतना कि "उनको" क्या पसंद है। प्रेम का यह कौन-सा रूप है , वह नहीं जानती। मगर अपने अस्तित्व को "उनमें" समाकर अपने को बहुत भाग्यशाली समझती है वह। 

छोले की सब्जी और पूरियां भी बहुत पसंद हैं "उनको"। बड़े प्रेम से पूरियां तलने लगी वह। देसी घी में जब पूरी "छन" की आवाज करके फूलती थी तो उसको लगता था कि जैसे वह "उनको" पाकर फूल गई है। उसे पूरी में अपनी शक्ल दिखाई देने लगती थी। 

खाना बनाने के बाद एक बार फिर से वह नहाने चली गई। अपने "देवता" से ऐसे ही थोड़े ना मिल सकती है वो , पसीने से लथपथ। बदबू लिए हुए। 

नहाने के बाद वह श्रंगार करने बैठी। मोगरे के फूल बहुत पसंद हैं उसे। उसने मोगरे के फूलों का कर्णफूल बनाया और कानों में डाल लिया। मोगरे की "वेणी" बनाकर बालों में गूंथ ली। मोगरे के फूलों का हार गले में डाल लिया। बाजूबंद भी मोगरे के फूलों के। और तो और , पाज़ेब भी मोगरे के फूलों की। सिर से लेकर पांव तक मोगरा ही मोगरा। आंखों में हल्का काजल। होंठों पर बहुत हल्की सी लिपिस्टिक। बहुत ज्यादा मेकअप पसंद नहीं है "उनको"। एक छोटी सी बिंदी माथे पर। जब कभी भी वह बिंदी लगाना भूल जाती तो "वो" कहते हैं "मीरा, तुम बिंदी लगाया करो ना। मुझे इसमें डूबना अच्छा लगता है"। तब वह हंसकर कहती "डूबने के लिए तो आंखें हैं ना , इनमें डूबा करो ना"। मगर वो शरारत से कहते हैं "इनमें तो पूरी दुनिया डूबी हुई है। हम भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं"।

बहुत शरारती हैं "वो"। बस, उनकी ऐसी ही शरारतें तो दीवाना बना देती हैं उसे। मांग में सिंदूर भी डाला था उसने। शुरू शुरू में तो इसको लेकर खूब कहासुनी हुई थी। "वो" कहते "अरे मीरा , तुम्हारी मांग सूनी क्यों पड़ी है ? उसे आबाद रखा करो ना। सूनी मांग और सूनी कलाई अच्छी नहीं लगती है"। वह प्रतिवाद भी करती "क्या फर्क पड़ता है इससे" ? 

"पड़ता है। बहुत फर्क पड़ता है। प्लीज़ मीरा। आगे से कभी भी मांग सूनी मत छोड़ना। मुझे अच्छी नहीं लगती है सूनी मांग"। 

और उस दिन के बाद से मीरा ने अपनी मांग कभी सूनी नहीं छोड़ी। वह मांग में सिंदूर लगाकर अपना श्रंगार पूरा कर ही रही थी कि अचानक उसे किसी ने पीछे से कमर से पकड़कर उठा लिया। वह अधर हो गई। आईने में देखा तो पता चला कि "वो" आ गए हैं। उसकी खुशी का वारापार नहीं रहा। वह "उनके" कंठ से लग गई। उन्होंने ने भी उसे अंक में भर लिया। दोनों कुछ देर ऐसे ही लिपटे रहे। फिर मीरा उन्हें अपने कमरे में ले आई। और दिन तो "वो" उसकी गोदी में सिर रखकर लेटते थे मगर आज मीरा उनकी गोदी में सिर रखकर लेट गई। "उन्होंने" जैसे ही कुछ कहना चाहा , मीरा ने उनके होंठों पर अपनी उंगली रख दी और आंखों से मना कर दिया कि "कुछ ना कहो। कुछ भी ना कहो"। दिल से दिल और आंखों से आंखें बात करने लगे। शायद यही अलौकिक प्रेम कहलाता है ? 

क्यों, है ना ? 


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