Megha Rathi

Drama

5.0  

Megha Rathi

Drama

तुम्हें अब भी चॉकलेट पसंद है ?

तुम्हें अब भी चॉकलेट पसंद है ?

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बचपन में लाल - हरे - नीले रैपर में पैक एक चीज टॉफी के साथ दुकानदार के शो केस में सजी देखती थी। "यह क्या है?", बाबा से पूछती तो वह जो बताते वह समझ नहीं आता था। वह जब भी उसे दिलाने की बात कहते, मैं तुरन्त मना कर देती थी। 

छुट्टियों में बुआ जी के साथ फूफा जी भी आये हुए थे तब एक दिन फूफा जी की उंगली पकड़ कर हम दोनों बहनें बाजार गईं। फूफाजी ने हमें ढेर सारी टॉफी तो दिलाई ही साथ ही वह चीज जिसका नाम उन्होंने चॉकलेट बताया था, वह भी दिलवाई।

अपने-अपने टॉफी ,चॉकलेट के पैकिट पकड़े हुए हम दोनों बहनें फूफाजी के साथ घर आ रहीं थीं। छोटी बहन तो उनसे बातें कर रही थी मगर मैं अपनी ही सोच में मगन थी कि ये क्या दिला दिया! क्या पता खाने में कैसा होगा!

क्योकि खाने-पीने के मामले में, मैं बचपन में बेहद चूजी थी।

घर आकर मैंने अपनी टॉफियां तो खा लीं मगर वह चॉकलेट वैसी ही रखी रही। रात में सोते समय मैंने अपनी छोटी बहन से पूछा ," तुमने अपनी टॉफी खा ली?"

"हाँ"

"और वो चॉकलेट?"

"वह भी!", बहन के ऐसा कहते ही मैंने उससे पूछा कि कैसी लगी?

उसने कहा ," बहुत अच्छी! तुमने नहीं खाई?", मेरे कहते ही उसने तुरंत अपनी आंखें चमकाते हुए कहा," तो मुझे दे दे।"

" मै कल खाऊँगी", कहकर मैंने आंखे बंद कर लीं और सोने का नाटक करने लगी। थोड़ी देर में नींद आ भी गई।

अगले दिन स्कूल से लौट कर आने के बाद खाना खाकर ,दोपहर में आँगन में लगे अमरूद के पेड़ पर चढ़ कर ,उसकी एक शाखा पर अधलेटी होकर मैं उस चॉकलेट को देखने लगी। आप सोच रहे होंगे कि चॉकलेट खाने के लिए मुझे अमरूद के पेड़ पर जाने की क्या जरूरत थी, दरसल अमरूद का पेड़ हम बहनों का प्रिय स्थल था। अमरूद के पत्तो की छांव से कहीं - कहीं से आती धूप, सरसराते हुए पत्तो के हिलने से आती हवा ,आस-पास चहचहाती चिड़ियों का कलरव किसी दूसरी दुनिया में होने का अहसास करवाता था।

और वह दुनिया घर के बड़े लोगों से दूर हमारी अपनी दुनिया थी जहां न जाने कितनी कल्पनाओं, कितने सपनों को आंख खोलकर कभी अपनी बहन के साथ तो कभी अकेले जिया करती थी। 

एकांत और सुकुन से भरे पलों का हमसफ़र था वह अमरूद का पेड़ और उसकी लम्बी शाखाएं। इस कारण पहली बार चॉकलेट का स्वाद चखने के लिए सबकी नजरों से छिपने के लिए भी ,मुझे वही जगह सही लगी।

पेड़ की वह शाख इतनी लंबी और मजबूत थी कि एक छह साल की दुबली-पतली लड़की को आसानी से सम्भाल सकती थी।

उस शाख पर अधलेटी होकर मैंने उस चॉकलेट को ध्यान से देखा, लाल रंग के कवर पर अमूल चॉकलेट लिखा हुआ था और एक गोल-मटोल लड़की की तस्वीर बनी हुई थी। उन दिनों हर घर मे टी वी भी नहीं होता था, मेरे घर में भी तब तक नहीं आया था इसलिए भी मुझे इस बारे में नहीं पता था।

मैंने उस रैपर को खोला, उसके अंदर रुपहले पेपर में चॉकलेट लिपटी हुई थी। उस रैपर को धीरे से हटाया तो भूरे रंग की चॉकलेट सामने आई। एक पल के लिए उसे देखकर फिर सूंघा। " उम्म, खुशबू तो अच्छी है।", खुद से ही कहते हुए चॉकलेट का एक टुकड़ा तोड़ कर मुँह में डाला। नजर अपने आप क्यारी में आँगन की दीवार से लगे गुलाबी रंग के बड़े गुलाब पर जा टिकी जिसके ऊपर नारंगी - काले रंग की दो तितलियां मंडरा रही थीं।

थोड़ा सा चबा कर चॉकलेट का वह टुकड़ा उदरस्थ हो चुका था। मैं टॉफी भी इसी तरह खाती थी जबकि पापा मुझे समझाते थे कि थोड़ी देर मुँह में रखना चाहिए , तभी स्वाद पता चलेगा लेकिन मैं बेसब्री.... इतना इंतजार कर ही नहीं पाती थी।

चॉकलेट का स्वाद मेरी इसी जल्दबाजी के कारण मुझे समझ नहीं आया। फिर पापा की बात याद कर दूसरा टुकड़ा मैंने मुँह में रखा और उसे घुल जाने दिया। " आह, कितना अच्छा स्वाद है।" मैं चॉकलेट की मिठास से आनन्दित हो गई। " कितनी बड़ी वेबकूफ़ हूँ मैं जो अब तक इसे लेने से मना करती रही।", मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था।

इसके बाद चॉकलेट के हर टुकड़े के स्वाद को आंख बंद करके तो कभी एक शाख से दूसरी शाख पर झूलते हुए महसूस करती रही। नए- नए खिले रजनीगंधा के फूल मेरी इन हरकतों को देखकर मुस्कुरा रहे थे मगर मुझे उनकी कोई परवाह नहीं थी। आसमान में घूमते सफेद रुई के बादलों ने भी झांक कर मुझसे थोड़ी सी चॉकलेट चखने के लिए मांगी थी पर उनको भी ठेंगा दिखाकर पूरी चॉकलेट खाकर मैं घर के अंदर भाग गई थी।

उस दिन खेलने में भी मेरा बहुत मन लगा। गिट्टी -फोड़ के खेल में गेंद से मेरा निशाना इतना सटीक लग रहा था कि अब तक मुझे अपनी टीम में शामिल करने से बचने वाले कॉलोनी के सभी बच्चे मुझे अपनी टीम में लेना चाहते थे।

पता नहीं यह इस खेल में मेरी काबलियत थी या पहली बार चॉकलेट खाने की खुशी। मुझ पर दोतरफा नशा चढ़ गया था। रात को खाने से जी चुराने वाली मैं, एक रोटी ज्यादा खा रही थी।

फूफा जी बुआ जी तो कुछ दिन बाद चले गए लेकिन चॉकलेट का स्वाद मेरे मुँह लग चुका था। जब भी बाजार जाती चॉकलेट देखकर ललचाती थी मगर संकोची इतनी थी कि मम्मी-पापा से दिलाने के लिए नहीं कहती थी। अब मम्मी- पापा अंतर्यामी तो थे नहीं कि वे मेरे मन की बात समझ जाते वैसे भी कोई रोज-रोज तो चॉकलेट नहीं दिलाएगा न!

उस वक्त जेबखर्च का भी इतना प्रचलन नहीं था और वैसे भी हम छोटे बच्चों की जरूरतें कौन सी बड़ी थीं। लेकिन मेरा मन दुबारा चॉकलेट की मिठास लेना चाहता था। कभी- कभी बहुत गुस्सा आता था खुद पर कि क्या जरूरत थी मम्मी को वे पैसे देने की जो बुआजी चलते समय देकर गई थीं। उन पैसों से चॉकलेट ले सकती थी मैं।

एक दिन अलमारी में रखी गुल्लक पर नजर पड़ी। यह गुल्लक तो मेरी है जिसमे मम्मी रेजगारी डालती है लेकिन इसकी चाबी मेरे पास नहीं थी। छोटी बहन को बुलाकर उसे भगवान की कसम दी कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगी बदले में उसे भी पैसे दूंगी ।उसके बाद उससे गुल्लक खोलने में मदद मांगी। मैं देखकर हैरान रह गई जब वह एक पेचकस लाई और उससे गुल्लक खोलने लगी। इससे पहले कि हम गुल्लक खोल पाते मम्मी कमरे में आ गईं और हमें गुस्से से देखने लगीं।

( अब क्या होगा, यह जानने के लिए इसका दूसरा भाग पढ़ना पड़ेगा लेकिन संभलकर मम्मी का गुस्सा बहुत तेज है😟)


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