तुम
तुम




एंट्री 01-
आज तुम्हारे लिए ये नई डायरी लाया हूँ। उम्मीद कर रहा हूँ कि इस बार इसके साथ बचपना नहीं दिखाऊंगा।मैं हैरान हूँ कि तुम कितनी कड़वी नीम सी थी। सख्त सांवला चेहरा जैसे किसी ने पत्थर पर उकेरा चेहरा धड़ पर रख लिया हो। चाल ऐसी की लगे ही न कि कोई लड़की चल रही हो। और अब ये तुम...ये तुम ही हो न!
बचपन से तुम्हारे लिए मुहल्ले में "ए इधर आ" मेरा नाम था। तुम्हारा रौब सिर्फ मुझ पर चलता हो ये भी सच नहीं, लगभग सभी हमउम्र के साथियों में तुम "सन्टी" थी।तब तुम्हारी बोली ऐसी तीखी, की लगे किसी ने सन्टी मारी हो हथेली पर। उम्र के बदलावों का भी तुम पर कोई असर नहीं था बल्कि और भी कसैली और रूखी होती जा रहीं थी।
कितनी बार तुम्हे पिटता देखा था अंकल के हाथों।लेकिन ढीठ सी तुम ..एक आंसू क्या.. सिसकी तक नहीं ।उल्टा अपनी मौसी जी को घूरती और पिटने के बाद थूक कर गली में भाग जातीं। कहाँ जाती थी ये आज तक सिवाय मेरे शायद कोई नहीं जानता। उसका पता होना भी एक इत्तेफाक ही था। तुम बेतहाशा भागे जा रही थी,और मैं गली के पागल कुत्ते से बच कर भागता तुम्हे अचानक मोड़ से निकल अपने आगे भागता हुआ पा, तुम्हारे पीछे भागता चला गया था।
अजीब था तुम्हारा लगातार दौड़ना।थक गए थे मेरे पैर मगर फिर भी भागे जा रहा था तुम्हारे पीछे। अंधेरा बढ़ रहा था मगर तुम रुक नहीं रहीं थी। हमारी कॉलोनी से बहुत दूर , रेलवे लाइन को पार कर तुम मालगाड़ी के एक पुराने खड़े वैगन में छोटे से दरवाजे से अंदर घुस गई थी। देखा देखी में भी घुस गया था।
घुप्प अंधेरा ,कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।अगले ही पल तुम्हारे जोर जोर से रोने की आवाज ने मेरा दिल दहला दिया था। तुम शायद वैगन की दीवारों पर जोर जोर से हाथ पैर मार रही थी। तुम जो कुछ बड़बड़ रही थी वह बहुत भयानक था मेरे लिए सुनना। मैं किशोर ही तो था।मैं और सुन नहीं सका ,घबरा गया और उल्टा भाग आया था।
तब से तुम्हारे कसैले पन, बदतमीजी को अनदेखा करना सीख गया था। कान "ए इधर आ" सुनने के लिए गली में चौकन्ने रहते थे। आते जाते आंखें तुम्हारे घर की ओर रहतीं थीं।कितनी बार मम्मी ने टोका भी था"क्या रे ! क्या ताकता रहता है उधर?" सोचा मम्मी से कह दूं लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हुई।
जब तुम अपने परिवार सहित किसी दूसरे शहर जाने लगीं तब तुमसे कहना चाहता था " अपना ख्याल रखना" लेकिन रिक्शे में बंधे सामानों के बीच बैठी तुम जाने किस सोच में थीं।तुमने किसी की ओर भी नहीं देखा।अंकल आंटी तुम्हारा पूरा परिवार सब एक एक रिक्शे में बैठे पड़ोसियों से विदा ले रहे थे।
इतने सालों बाद अचानक तुम्हारे जैसे नाम वाली नई कलीग के बारे सुना तो रहा नहीं गया। सच लिखूँ तो सोच रहा था कि क्या ये तुम हो सकती हो?
नए सत्र में नई सुबह, एडमिन ब्लॉक के सामने तुम कार से उतरी। वास्तव में उस पल मुझे निराशा हुई, जो उतरी वो गेंहुए रंग की , बहुत सौम्य और मधुर स्वभाव की लग रही थी।ये तुम हो सकती हो क्या? मैं अनजाने ही इस सोच में तुम्हे घूरे जा रहा था।तुमने बड़ी शालीनता से मुझे"नमस्कार सर!" कहा। अचकचाया मैं "नमस्कार-नमस्कार "कह कर एक ओर छिटक गया।लेकिन तुम एक मधुर स्मित दे कर बिल्डिंग के अंदर चली गईं।
नाम तो वही था ,सरनेम भी वही।लेकिन आवाज,चाल सब अलग। दिमाग ने समझाया इतने बरस में एक पौधा भी अलग रूप और आकार ले लेता है मैं कहां उसी छवि में बंधा बैठा हूँ और जरूरी नहीं कि तुम वही हो। एक से नाम के कई लोग भी हो सकते हैं।
उस दिन डीन के साथ सभी संकायाध्यक्ष की बैठक थी।मैं ठीक तुम्हारे सामने वाली कुर्सी पर था। एक महीना हो चुका था ये कन्फर्म हो गया था कि तुम वही हो "ए इधर आ" कहने वाली।लेकिन आज भी बहुत रहस्यमयी सी हो। कोई भी शिष्टाचार भेंट के लिए तुम्हारे घर नहीं पहुंच पाया है।सब के बीच तुम्हारी विनम्रता और सहयोगी स्वभाव की चर्चा है लेकिन कुछ अपरोक्ष नियम का घेरा सबको महसूस होता है। यह एक बात तुम्हारीअभी भी बनी हुई है। मैं यह सोच सोच कर मुस्करा रहा था । तुमने एक नजर मेरे मुस्कराने को देखा। तुमने अलग तरह से मुझे देखा था ,मैं सतर्क हो गया था। पर क्यों ? तुम्हारे देखने के तरीके से या मेरे मन में चलती अतीत की बातों से ?
बहरहाल, जनता हूँ तुम्हारा विभाग सबसे चैलेंजिंग है,कुछ समय पहले तक ये मेरे पास ही था। डीन ने तुम्हें सहयोग करने को कहा है। कल हमारी पहली औपचारिक भेंट होगी।