Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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akshi saxena

Abstract

4.5  

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तुम ही तुम हो

तुम ही तुम हो

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एक अच्छी नौकरी मिल गयी है जान,

अब अपना वादा पूरा कर पाऊँगा

याद है ना आगे का सफर जो चलना है

कल तुम्हारे मम्मी पापा से मिलने जा रहा हूँ।

जान, तुम्हारे घर के बाहर खड़ा हूँ

मन मे एक अजीब सा डर है

उन्हें पसंद तो आऊंगा न मैं ?


घर तुम्हारा बहुत प्यारा है,

आँटी कमरा दिखा के लायी हैं तुम्हारा,

सब कुछ वैसा ही है जैसा तुमने बताया था।

बस इतना ही फ़र्ख है कि आंटी ने

तुम्हारे कपड़े तह कर के रखे हैं,

वरना तुमसे सफाई की उम्मीद, ना बाबा ना।


तुम्हारी कुर्सी से लेकर पौधे तक

सबको अपनी जगह पर रखा है।

ये बैठक में लगी बड़ी सी तस्वीर तुम्हारी,

इसका तो ज़िक्र नहीं किया तुमने कभी

शायद बाद में लगाई होगी किसी ने।


बातों में काफी समय बीत गया

खाने पर रोक लिया है आँटी ने,

राजमा चावल बनाया है,

तुम्हारा पसंदीदा, कैसे मना करता भी।


अंकल कम ही बोल रहे हैं,

पर मेरी बातों पर मुस्कुरा देते हैं,

शायद उनको भी पसंद आगया हूँ।

बचपन की तुम्हारी तस्वीरे दिखाते हुए तो दोनों ही

हँसते मुस्कुराते पुरानी बातें याद कर रहे।


स्टेशन आ गया हूँ, 7 बजे की ट्रेन है

कुछ अलग ही प्यार मिला है तुम्हारे घर से,

जाने पर दुख तो हुआ पर मिलने की खुशी ज़्यादा थी

सिर्फ तुम्हारी ही बातें हुईं हैं सारे समय

आज भी कुछ बदला नहीं शायद,

सबसे दूर जा के भी सबकी बातों में तुम ही रहती हो।


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