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Namrata Srivastava

Drama

4  

Namrata Srivastava

Drama

ठग

ठग

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बैंक कर्मचारी के रूप में ज्वाइन करने के बाद प्रसून ने स्वयं को नए शीशे में उतार लिया था। 

"ए S S हू S S S ज़िन्दगी भर मैंने की जी तोड़   पढ़ाई

तब जाके मैंने ये नौकरी है पायी

अब मैं करूँगा जी भर के ऐश

 क्योंकि अब मेरे पास होगा कैश ही कैश।"

अपनी प्रसन्नता को वह रैप और डांस से व्यक्त कर रहा था। संयोग से बैंक के पास ही एक रिहायशी कॉलोनी में उसे अच्छा सा फ्लैट भी मिल गया। प्रसून आज अकेले ही हँसना-गाना चाहता था। उसे अपने एकछत्र साम्राज्य को भौतिक वस्तुओं से सुदृढ़ करना है। वह सोच रहा था कि पहले सोने और खाने का इंतजाम कर लूँ। उसके बाद जैसे-जैसे वेतन मिलता जाएगा वैसे-वैसे आवश्यक घरेलू सामग्रियाँ भी लेता रहूंगा। 26 वर्षीय इस टॉल-डार्क-हैंडसम के पास अब नौकरी नाम की वह मास्टर चाबी थी जिससे वह किसी भी सपने का ताला खोल सकता है। इसी उधेड़बुन में वह बालकनी की ओर बढ़ा। आसपास नज़र दौड़ाते ही सामने की छत पर उसे एक सुंदर युवती बैठी दिखाई दी। वह घुटने उठा कर पैर फैलाये हुए बैठी थी और मोबाइल फोन पर किसी से बात करने में व्यस्त थी। आसमानी रंग का चूड़ीदार पजामा उसकी पतली और लंबी टांगों के स्वरुप में ढ़ला हुआ था। वहीं कुर्ते का विरोधाभासी पीला रंग युवती की संरचना को मनमोहक प्रभा-युक्त बना रहा था। प्रसून अब 'आवारा-बादल'और 'भंवरे' जैसे विख्यात उपमानों पर स्वयं को आजमाने पर पूरा रजामंद था। उसने लड़की का चेहरा देखा- गोरी-चिट्टी, तीखे नैन-नक्श वाली वह लड़की शायद सुखाने के मकसद से बालों को खोल कर बैठी थी। उसके गहरे भूरे रंग के बालों के बीच से झांकता हुआ उसका चेहरा भगवती चरण वर्मा की प्रेम कविताओं में बसी 'प्रिये' सरीखा जान पड़ता था। पर उसके चेहरे में एक कमी जो साफ-साफ दिख रही थी- वह थी उसकी भाव-शून्यता। उस लड़की ने प्रसून की निहारती नयनों का परीक्षण कर लिया था शायद। फुफकारते हुए नेत्रों से उसने प्रसून को देखा और खींझते हुए छत से नीचे उतर गई। प्रसून अब और प्रसन्न हो गया; लड़की को नीचे जाने पर विवश करके उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसने बिना हथियार ही मैदान मार लिया हो। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे प्रसून उड़ान भरने में किसी पक्षी का मुकाबला कर रहा हो-

"येS S लखनऊ की सरजमीं

 पहले नौकरी मिली शानदार

 और तुरंत दिख गई मुझे छोकरी भी जानदार

 प्रसून..... हो गया गुरु

 लग गई लॉटरी मजेदार"

मन ही मन गुब्बारे सा फूल रहा प्रसून भी बालकनी से भीतर कमरे में चला आया। वह सोचने लगा क्यों ना बाजार चलकर कुछ जरूरी खरीदारी कर लूँ। अपनी कॉलोनी से बाहर निकलते ही उसे एक बड़ा सा चौराहा दिखा जहाँ सभी तरह की दुकानों के साथ दो सुपरमार्केट भी मौजूद थे। प्रसून सुपर मार्केट की ओर बढ़ने लगा तभी चौराहे के कोने वाली फुटपाथ पर उसे एक फकीर का छोटा सा हरे रंग का तंबू दिखा।

फकीर प्रसून को देखकर बोला, "पर्दा उठा, चाँद का दीदार कर।" 

 प्रसून उसे चिढ़ाने के अंदाज में बोला, "अजी फकीर साहब! चाँद का दीदार तो हो गया अब पर्दा उठना बाकी है। बट यू डोंट माइंड, इट्स माय प्रॉब्लम।" 

 इस पर फकीर ने कुछ ऐसी मुखमुद्रा बनाई जैसे प्रसून से कह रहा हो -बड़े उदंड हो यार। 

सुपर मार्केट में प्रवेश करते समय प्रसून सोचने लगा कि आगे दो दिनों की छुट्टी है कल घर चला जाता हूँ।

 प्रसून ने जिस युवती को अपनी बालकनी से देखा था वह युवती थी- मोहिका। प्रसून की घूरती नज़रों का एहसास होते ही उसे अपने विस्तार पर चींटी रेंगने सा अनुभव हुआ। उसने अपने विस्तार को तुरंत समेटते हुए मन ही मन कहा- "मूर्ख! तुम केवल दूर से दर्शन कर आत्म संतोष में डूबो, समुन्नत दर्शन का लाभ कोई और उठा चुका है।"

'टुच्चे-लुच्चे'-ऐसी ही उपाधियों से उसे विभूषित करती मोहिका छत से नीचे उतर आई। सहेली से बात खत्म करते ही जैसे ही उसने फोन रखना चाहा वैसे ही उसके भाई का फोन आ गया। भाई फोन पर बोला- "दीदी! पापा का ट्रांसफर उरई हुआ था तुम्हें तो पता ही है। आज हम सब यहाँ आ गए।" 

मोहिका ने उत्तर दिया जानती हूँ- "कैसा क्वार्टर है यहाँ?"

भाई बोला, "दीदी! पापा ने सरकारी आवास नहीं लिया है, कॉलोनी में प्राइवेट हाउस किराए पर लिया है। अच्छा है ना दीदी।"

"हाँ मेरे घीसूमल! सामान लाने में ज्यादा समस्या तो नहीं हुई?" मोहिका पूछ बैठी।

"दीदी ! मोहित नाम है मेरा। कोई प्रॉब्लम नहीं हुई। तुम बस जीजाजी के साथ आ जाओ। उरई का फेमस गुलाब-जामुन खिलाऊँगा तुम्हें।" भाई ने दूसरी तरफ से बहन की चुहल का ज़वाब दिया। 

"मोहित ! तुमने किसके साथ आने के लिए कह दिया मुझे? कभी-कभी तो खुश हो लेने दिया करो। खैर, मैं कल ही आ रही हूँ।" मोहिका मुँह सिकोड़ते हुए बोली।

भाई ने उत्तर दिया- "ठीक है दीदी! आओ जल्दी, वह क्या है ना कि घर को व्यवस्थित करने हेतु मुझे एक कर्मचारी की शीघ्र आवश्यकता है।" और भाई शरारत से हंस पड़ा तथा कुछ अन्य औपचारिक बातों के बाद उसने फोन काट दिया। मोहिका मन ही मन सोचने लगी- मेरा भाई घीसूमल, मैं इसे कब समझा पाऊँगी की मुझे वहाँ अकेले आना क्यों पसंद है?" वह अपने आप से बातें कर ही रही थी कि डोर बेल बजी शायद महरिन ने दस्तक दी थी। उसने महरिन को कुछ हिदायतें दीं कि उसकी अनुपस्थिति में साहब के लिए वह क्या-क्या बनाएगी-पकाएगी।

अगले दिन मोहिका दोपहर तक उरई आ चुकी थी। मां,मोहित,पापा सब से मिलने पर उसके सुंदर मुख पर वह खुशी दिख रही थी जो कहीं खोई हुई सी प्रतीत होती थी। शाम होते-होते घर काफी हद तक व्यवस्थित हो चुका था। शाम को मोहित ने कहा कि चलो दीदी अब गुलाब-जामुन खा कर आते हैं। भाई ने चटपट बाइक निकाली, बहन को बैठाया और बाजार पहुँच गया गुलाब -जामुन खाने। वे दोनों गुलाब-जामुन का मटका लेकर जैसे ही मेज पर खाने बैठे उसके कुछ ही देर बाद, मोहिका की पीठ के पीछे रखी कुर्सी पर बैठे शख्स ने, जिसकी पीठ मोनिका की पीठ की ओर थी, मोबाइल पर जोर-जोर से बातें करनी शुरू कर दी- "हमारे गुलाब-जामुन के शहर में रसगुल्ला देखकर तो मैं हैरान हूँ जी। दोस्त! तुम रसगुल्ला सही पर हम भी गुलाब जामुन खा कर पले-बढ़े हैं। हमारा दिल बिल्कुल गुलाब जामुन जैसा ही है- उतना ही मीठा,उतना ही नर्म और उतना ही गहरे रंग वाला। लेकिन केवल ऊपर से ही, भीतर से दिल का रंग भी गुलाब जामुन के अंदर वाला ही है- श्वेत... बिल्कुल श्वेत...सच कहता हूँ।" 

मोहिका की छठी इंद्री को संकेत मिलने लगा था मानो यह बातें परोक्ष रूप से उसी से कही जा रही हो। मोहिका उस शख्स का चेहरा तो नहीं देख पाई पर उसी अंदाज में मोहित की ओर देखते हुए बोली- "कुछ लोग निहायत ही बदतमीज किस्म के होते हैं ना भाई! सामने वाले को उल्लू समझते हैं।" पर मोहित मोहिका के समझ की ऊँचाई पर न जा सका और कोई अन्य अर्थ लगाते हुए बोला, "गुलाब-जामुन एंजॉय करो दीदी! क्या हुआ जो जीजा जी नहीं आए; मेरी जरूरत के वक्त तुम मेरे साथ रहती हो बस मुझे इस बात का सुकून है। कितना यम्मी है ना ये गुलाब-जामुन?" गुलाब-जामुन मुँह में रखते हुए मोहिका सोचने लगी- "कितने भोले हो मेरे भाई! मैं तो तुम्हें इशारे ही नहीं अपनी जरूरतें भी नहीं समझा सकती।" 

प्रसून भावशून्य हो चला था। लखनऊ में जिस लड़की को उसने देखा था वही लड़की आज उसे अपने शहर में ही गुलाब-जामुन की दुकान पर दिख गई थी और उसकी वार्तालाप से ज्ञात हुआ कि वह विवाहिता थी। पता नहीं किस तरह का एहसास हो रहा था प्रसून को, हवा से उमस की बू आ रही थी। खोपड़ी के अंदर दिमाग जैसे सुन्न हो गया था, आंखें बंद करके लेट जाने का जी चाहता था, हृदय गति की मंथर चाल में से कुछ शिराएँ गायब हो गई थी जैसे, उसे क्या हो रहा था? उसके अंदर पंचतत्वों का नाद जैसे कम हो गया था। वह घर आकर लेट गया और खुद से द्वंद करने लगा, "मैं ऐसा छिछोरा कैसे हो गया? यह शोशेबाजी, यह छिछोरापन क्या मुझे शोभा देता है? कितनी खीझ हो रही है मुझे अपने आप पर, मैंने कैसी हवा पी ली थी जिसने मेरी सोच-विचार की क्षमता में भरकर उसे सुजा दिया था।" उसे अपने आप पर बहुत गुस्सा आ रही थी कि इसी बीच बहन ने आवाज दिया कि नए किराएदार उससे मिलने आए हैं।

पिताहीन प्रसून अपने पिता द्वारा बनवाए बड़े से मकान का मालिक स्वयं था, जिसके कई खण्डों में किरायेदारों का बसाव था। मोहिका के पिता ने इसी मकान के एक खंड को किराए पर लिया था। उनकी आपसी बातचीत से पता चला कि प्रसून और मोहिका एक ही बैंक में काम करते हैं। मोहिका के पिता ने अगली सुबह उसे प्रसून के साथ कार से जाने के लिए राजी कर लिया। मोहिका प्रसून से अपने पिता के मकान-मालिक और अपने सहकर्मी होने के नाते अत्यंत शालीनता से मिली परंतु प्रसून से अपनी पिछली दो मुलाकातों की उसे कोई खबर नहीं थी। प्रसून ने यात्रा के दौरान उससे एक ही दो सवाल पूछा वो ये की उसकी नियुक्ति के समय मोहिका बैंक में क्यों नहीं थी। तब मोहिका ने बताया कि वह एक सप्ताह के विशेष प्रशिक्षण हेतु बैंक की मुख्य शाखा पर गई हुई थी। और दूसरी बात ये की मोहिका के पिता द्वारा ज्ञात हुआ था कि वे लोग झाँसी जिले के रहने वाले थे।

चालक सीट के बगल वाली सीट पर बैठी मोहिका को प्रसून कभी-कभी कनखियों से देख लेता। प्रसून का पखेरू मन जैसे विशाल गगन में विचरता हुआ सा लग रहा था पर इस विचरण में प्रसून को जैसे ही मोहिका का मैरिटल स्टेटस याद आता बस उनके मन में एक तिलमिलाहट के साथ क्षुब्धता सी भर जाती। वे दोनों एक दूसरे से बात करना तो चाहते थे किंतु उनके बीच के वार्तालाप को संचालित करने वाले प्रसंग सर्वथा शून्य में छुप गए थे। इस नीरस और लंबी यात्रा ने उन्हें अपनी मंजिल तक तो पहुँचा दिया परंतु वार्तालाप शून्यता दोनों को भीतर ही भीतर अखर रही थी।

प्रसून आज कल ऑफिस जल्दी आने लगा था और उसे बड़ी बेसब्री से इंतजार होता उस व्यक्तित्व का जिसके सम्मोहन से आज कल वह बँध चुका था। मोहिका अपने चेंबर में आकर बैठ चुकी थी, प्रसून ने ऑफिस के स्टाफ वाले मोबाइल चैटिंग ग्रुप पर पंत की एक कविता पोस्ट की-

  "तुम आती हो उर तंत्री में

स्वर व्यथा मधुर भर जाती हो।" 

किसी ने टिप्पणी की- "साहब ! कविताओं के बड़े शौकीन लगते हो।" प्रसून ने 'हाँ' के जवाब के साथ स्माइली पोस्ट कर दिया। इधर मोहिका की छठी इंद्री ऑफिस के इस नए कर्मचारी की हरकतों को समझने की चेष्टा करने लगी थी। यह इशारे किसके लिए है? मेरे आने के बाद ही तो पोस्ट की है। हाज़िरजवाबी में मोहिका ने वस्तुस्थिति साफ़ करने वाले मनोभावों को दर्शाती हुयी श्याम नारायण पांडेय की ये कविता चैट ग्रुप पर टाइप की-

  " रणबीर चौकड़ी भर भर कर

   चेतक बन गया निराला था

   राणा प्रताप के घोड़े से

   पड़ गया 'हवा' का पाला था।" 

इसके बाद ग्रुप पर कविताओं की बौछार आ गई और दोनों एक दूसरे की कविताओं का भाव समझने की कोशिश करने लगे। 

एक दिन प्रसून ने ऑफिस आते ही एक और कविता पोस्ट की महाकवि शिवमंगल सिंह 'सुमन' की जो कुछ ऐसी थी-

   "मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था

   गति मिली मैं चल पड़ा पथ पर कहीं रुकना मना था, 

   राह अनदेखी, अजाना देश संगी अनसुना था। 

   चाँद सूरज की तरह चलता न जाना रात दिन है, 

   किस तरह हम तुम गए मिल आज भी कहना कठिन है, 

   तन न आया मांगने अभिसार मन ही जुड़ गया था।"

मोहिका अब तक काफी हद तक समझ चुकी थी पर समझाना भी चाहती थी, अतः उसने सुभद्रा कुमारी चौहान की एक कविता पोस्ट की-

"बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,

  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।" 

प्रसून की एक और प्रस्तुति-

  "नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग-तल में

  पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में"

प्रसून आंतरिक हलचलों का सामना कर रहा था, वह चोर नहीं था पर भाग्य उसे मोहिका के सामने किसी चोर की भांति बार-बार चुपचाप खड़ा कर दे रहा था, और वह किसी चोर दरवाजे से मोहिका के जीवन में अनायास ही झांक ले रहा था।

अपने शहर उरई में जिस शाम प्रसून ने मोहिका को देखा था उसी रात छत पर टहलते हुए उसके कदम मकान के उस खंड की ओर बढ़ गए जिधर मोहिका के पिता रहने आए थे। हालाँकि दोनों छतों के दो भाग करने वाली करने वाली एक ईंट की एक पतली दीवार मध्य में खड़ी थी फिर भी उधर की आवाज साफ सुनाई दे रही थी। मोहिका अपनी माँ से बात कर रही थी-

"मम्मी! जमाता नाम के इस जीव के लिए माताओं के हृदय से कितने फूल झड़ते हैं वो भी बिना यह सोचे कि वह उस वर्षण के लायक है भी या नहीं; बिना यह सोचे कि बेटी से ही तो जमाता है। घर के किराए से लेकर दूध, अखबार, बिजली का बिल, अनाज-पानी और दवा-दुआ सब कुछ मैं अपनी जेब से करती हूँ। आज तक उनकी चवन्नी नहीं जानी मैंने। पतिदेव हैं किसलिए? उनकी दुनिया में मात्र तीन 'द' हैं- दोस्त, दारू और दूकान। आज 'झांसी की रानी' दो चुटकी सिंदूर के लाइसेंस का वजन उठाए फिर रही है। मैं अपने इस विवाह नाम की संस्था को किस महत्वपूर्ण दस्तावेज में लिपिबद्ध करूँ मम्मी? चार साल होने को आए, मैं आज तक माँ भी नहीं बन पाई। एक सरकारी नौकरी के तमगे का सुख अपने साथ लेकर चार साल से एक ही जगह पर खड़ी हूँ मैं। लोग अपने बिगड़ेजादों की शादी करके सुधारने के लिए किसी और की बेटी की जिंदगी क्यों तबाह करते हैं? और आपको बेटी का घर बसाने की बहुत तेजी थी ना, आइए! देखिए! बेटी के बसे हुए घर का ऐसा बेहतरीन नमूना कितना पसंद आएगा आपको मम्मी?" और आखरी वाक्य भरे हुए गले से बोलकर मोहिका छत से नीचे चली गई।

उनके मध्य की इस बातचीत को दबे पांव प्रसून ने सुन लिया था। और अब मोहिका के जीवन की पूरी तस्वीर उसे बिल्कुल साफ दिखाई देने लगी थी। वह समझ ही नहीं पा रहा था कि मोहिका से संवेदना प्रकट करें, दोस्ती करें, सहानुभूति दिखाए या फिर उसके व्यक्तित्व के चोटों पर किस तरह का लेपन करे।

परंतु यह सब कुछ तो दो हृदयों के मिलन का प्रारंभिक द्वन्द था। इस द्वन्द में किसकी हार या किसकी जीत होगी ये तो तय नही था, परन्तु पुराने तटबंधों को तोड़कर एक नयी धारा का बनना अवश्य तय था।

मोहिका की समझ शिकारी के पैतरों को देख रही थी- वो कितने बाने बुनता है, कितने स्वांग करता है, किस-किस तरह से जाल बिछाता है? चाहे जैसे भी हो शिकार को फाँसना ही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है। पुरुष जब स्वयं को स्त्री से कही किसी बिंदु पर कमतर पाता है तो वह स्त्री को हराने का अंतिम हथियार 'प्रेमास्त्र' का उपयोग करता है; वह जानता है कि स्त्री नाम के अभेद्य किले को ढहाने का सर्वोत्तम सुगम यंत्र है- 'प्रेम'। परंतु मोहिका की यह समझ उसके दिमाग की उपज थी। दूसरी ओर उसका परती पड़ा हृदय था, जो हरिताभ की लालसा से आप्लावित था। अंधे को क्या चाहिए- दो आँखे तथा ऐसी ही चमकीली आँखों का उपहार लिए हुए प्रसून उसके सामने नित नए-नए अभिराम दृश्यों से उसे लुभा रहा था। अन्ततः दो महीने के अंतराल के पश्चात एक दिन मोहिका के हृदय ने उसकी बुद्धि पर विजय पताका फहराते हुए प्रसून के नाम एक सन्देश निम्न रूपों में वर्णित कर ही दिया-

एकाकी जीवन व्यतीत करने वाली विधवा शतरूपा को एक अनजान शहर में रहते हुए लगभग तीन वर्ष हो गए। उससे दो वर्ष छोटे देवर अधर ने शतरूपा को भाई की पेंशन और नौकरी दिलाने तथा दूसरे शहर में उसके रहने आदि की व्यवस्था कराने में जी-जान से उसका साथ दिया था।

इन तीन वर्षों में जब भी मदद की आवश्यकता हुई अधर ने यहाँ आकर शतरूपा की सहायता की। एक दिन अधर ने अपने सच्चे जीवनसाथी की खोज का लक्ष्य बनाकर जब शतरूपा को प्रणय निवेदन की चिट्ठी भेजी तो शतरूपा को मानो अनकहे सुख की प्राप्ति हो गई। आगे आने वाली आधी उम्र के एकांत का बोध उसके पूरे अस्तित्व को हिला कर रख देता था। उसने अपने देवर के प्रणय निवेदन और विवाह प्रस्ताव को मान्यता देते हुए उसे प्रत्युत्तर स्वरूप निम्नवत मेल भेजा-

"तुम मेरे जीवन में उस वटवृक्ष की भाँति आ गए हो जो किसी कंक्रीट के भवन में अपनी जड़ों को सूक्ष्म बीज से जमा कर जीवन का उत्सर्ग कर लेता है।

तुम्हारा प्यार कंक्रीट के मरूद्यान में उगे हरियाले वटवृक्ष की भांति है जो शून्य संभावनाओं को ठेंगा दिखाता हुआ लगातार अपनी जड़ों से कंक्रीट के भवन को धराशायी करने में दिन-रात व्यस्त रहता है; अपनी चमकीली पत्तियों के साथ।"

प्रसून ने पहला वेतन निर्गत होने की खुशी में अपने पूरे स्टाफ को घर पर पार्टी के लिए बुलाया था। मोहिका को उसने खासतौर पर व्यक्तिगत रूप से अपनी पार्टी में मदद करने को बुलाया। मोहिका एक नई स्फूर्ति और ताजगी वश इसके लिए तैयार हो गई। ऑफिस का समय समाप्त होने के बाद उसने अपने पति को इस पार्टी की जानकारी देते हुए उन्हें फोन पर मैसेज भेज दिया और प्रसून की बाइक पर बैठकर वह पार्टी की आवश्यक तैयारियों हेतु चल पड़ी।

उसके सारे स्टाफ ने जमकर इस पार्टी का लुत्फ उठाया और प्रसून के मेजबानी की दाद दी; पर प्रसून ने इसका पूरा श्रेय मोहिका को दिया। रेस्टोरेंट से स्टार्टर, ड्रिंक और डिनर आर्डर करने से लेकर मेहमानों के आवभगत में मोहिका ने प्रसून का निष्ठा से हाथ बँटाया था। मोहिका पति की तरफ से निश्चिंत थी। सुबह ही उन्होंने बताया था कि आज घर देर से लौटेंगे। दस बजे रात तक दुकान का माल आना था और उनको बही का हिसाब भी बनाना था। भोजनोपरांत जब मेहमान प्रस्थान करना चाह रहे थे तो मोहिका ने स्वयं भी उनके साथ जाने की इच्छा व्यक्त की। प्रसून उलाहना देने लगा, "अच्छा जी यह सब जो कचरा बिखरा है इसे समेटने में मेरी मदद कौन करेगा? तुम रुक जाओ, तुम्हारी छत मेरे बालकनी के सामने ही तो है। पिछली गली से घूम कर तुम्हारे घर जाना होता है, मैं तुम्हें घर छोड़ दूंगा।"

प्रसून की बातों का समर्थन करते हुए मोहिका को वहीं रुकने की सलाह देकर बाकी स्टाफ ने उसके घर से विदा ले लिया।

प्रसून ने मोहिका को धन्यवाद ज्ञापित किया और उसे एकटक देखने लगा। मोहिका ने उसके दोनों नेत्रों को अपने हाथों से ढँक दिया और इसके अगले ही क्षण दो तन आपस में भींच गए थे। मोहिका कुछ मन से और कुछ बेमन से बोली, "मुझे जाना है, दीपेंद्र आने वाले होंगे।"

प्रसून रेंगती हुई आवाज में बोला, "मत जाओ, अब कहीं मत जाओ।

जर्जर भवन को गिरने दो

उगने दो हरियाली

वटवृक्ष को पाँव पसारने दो

लहलहाने दो गोदा फलों को

मैं आलीशान भवन को दुर्बल करके

उसे धराशायी करने वाला

हरित क्रांति का दूत

वटवृक्ष हूँ।"

बिखरा हुआ सामान समेटा जा सकता है, किन्तु बिखरे हुए मन को समेटने के लिए हाथों का नही बल्कि मन के हाथों का लगना आवश्यक हो जाता है। अब एकांत की बारी थी। दोनों का प्रेम-उन्माद चरम पर था। परंपराओं की निर्बल बेड़ी से पस्त एक स्त्री अपने खालीपन, अपनी कमियों, अपनी सामाजिक जकड़नों को धता बता कर इस सजग, चपल, चतुर आह्वाहन के समक्ष परास्त हो गई

मोहिका की आँख अचानक खुली। घड़ी में सवा बारह से ज्यादा का समय हो रहा था। प्रसून के फोन पर उसकी सहकर्मी शीना की कॉल आ रही थी। प्रसून ने फोन उठाया, तो शीना बोली- "मोहिका के हस्बैंड की कॉल मेरे पास आई थी, कहाँ है मोहिका? उसने फोन क्यों नही उठाया? मैंने उन्हें बता दिया है कि वह तुम्हारे घर पार्टी में थी।"

प्रसून ने जवाब दिया, "वह तो दस बजे ही यहां से चली गई। थी मैं देखता हूँ, क्या बात है?"

सच पर झूठ का फौरी ज़िल्द चढ़ा दिया था प्रसून ने। मोहिका हड़बड़ाहट में बड़बड़ाने लगी, "मेरी आँख कैसे लग गई? दीपेंद्र ने शीना को क्यों फ़ोन कर लिया, उसने दीपेंद्र को सच क्यों बता दिया? मैं तुम्हारी बातों में क्यों आ गई? अब क्या होगा?"

फैसले का वक्त आ गया, हवा का रुख बहुत तेजी से बदला था। एक डर, घुटन और त्रासद भरा माहौल बन चुका था। वे दोनों आने वाले तूफान का सामना करने के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में खड़े थे। और इस बीच मनमर्जियों के जिस छल का आनंद दोनों ने कुछ समय पूर्व लिया था वह अभी पूरी तरह से उनके दिमाग से विस्मृत हो चुका था।

दीपेंद्र सामने दरवाजे पर खड़े थे- शांत, संयत और मौन; कभी मोहिका को तो कभी प्रसून को बारी-बारी से देखते हुए पूछे, "तुम फोन क्यों नहीं उठा रही थी?"

प्रसून ने सफाई दी, "जी इनका फोन वाइब्रेशन मोड पर था, हम दोनों मूवी देखते हुए आपके ही आने का इंतजार कर रहे थे।" सफ़ेद झूठ बोलने का बेहतरीन अभिनय कर रहा था प्रसून।

मोहिका प्रसून के इस बनावटी तेवर पर कुछ हैरान होते हुए बिफर पड़ी, " ये क्या कह रहे हो प्रसून? सच क्यों नहीं कहते? सच कहते हुए जीभ जल रही है? समय-चक्र पलट गया अब, पुराने शिलापट्ट धूल-धूसरित हो गए, बताओ ना।"

"मोहिका ! आपके पति आपको लेने आए हैं, जाइए! अब रात आधी से ज्यादा बीत चुकी है। कल ऑफिस भी जाना है, जाइए।" प्रसून किसी बुज़ुर्ग सलाहकार की भाँति प्रतीत हो रहा था।

"इनके पिता के मकान मालिक आप ही हैं ना, इसने मुझे बताया था पर संयोग से आज हमारी मुलाकात भी हो गई।" दीपेंद्र ने प्रसून की ओर हाथ बढ़ाते हुए गर्मजोशी से कहा।

प्रसून को प्रथम भेंट की फॉर्मेलिटी देर में याद आई और उसने भी अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। मोहिका आपा खो बैठी, "निकृष्ट! छली ! ठग !..... ठग निकले तुम.... मैं तुम्हें चैन से नहीं बैठने दूँगी।"

"क्या कह रही हो ? कभी-कभी जिंदगी में ढेर सारी पढ़ी हुईं किताबों का नशा तुम्हारे दिमाग पर सवार हो जाता है। ये तुम्हारे साथ काम करते हैं, इन्हें मूवी के डायलॉग क्यों सुना रही हो? माफ़ कीजियेगा प्रसून।" और मोहिका का हाथ थामे दीपेंद्र प्रसून के दरवाजे से बाहर निकल गया।

अगली सुबह प्रसून ने ऑफिस से छुट्टी ले ली। उसे पूरा परिवेश मातमी सा लग रहा था। दिल भारी और आंखें बोझिल। वह तड़के बाजार की ओर निकल पड़ा। जो दिल पिछले तीन महीनों से लगातार किसी की यादों और छवियों से लबरेज अपने ही भीतर बैठे किसी महबूब से बातें करता रहता था, वो आज शांत और तटस्थ था। उसने यूँ ही टहलते हुए बाजार के दो चक्कर लगाए। चौराहे से सुपर मार्केट की ओर जाने वाले रास्ते पर आज उसी तंबू वाले फकीर ने फिर से अपना तकिया कलाम दोहराया, "पर्दा उठा, चाँद का दीदार कर।"

प्रसून के भीतर से बेदम करने वाला धुँआ लावा बनकर बाहर फूट पड़ा। उसने एक झटके में फकीर के तंबू को उखाड़ दिया, उसके सारे कलपुर्जे बिखेर दिए और फकीर के सीने में दोनों पंजे मारता हुआ चिंघाड़ कर बोला, "उठ गया पर्दा, हो गया चाँद का दीदार। जानता है क्या मिलता है इससे ? विप्लव आता है, विध्वंस होता है, तबाही मचती है।"


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