मूक-प्रेम
मूक-प्रेम
"मित्र विट्ठल! विलाप ना करूँ तो क्या करूँ, क्या मेरा विलाप अकारण ही है? यदि मीरा किसी वास्तविक पुरुष से प्रेम करती तो मेरा हृदय उसे छल और वंचना का दंड देता, उससे घृणा करता या फिर मैं आजीवन उसका मुंह ना देखने की प्रतिज्ञा करता। और सच में मीरा एवं उस परपुरुष के प्रति कदाचित यदि मेरे मन में कहीं दया भावना उत्पन्न हो ही जाती तो सर्वांग रूप से मीरा को मैं उसे सौंप देता।
पर मेरी मीरा तो उस जगत पालक कृष्ण के प्रेम में आंदोलित है जिनका अनुगामी मैं स्वयं भी हूँ। मेरे परिवार ने राजमहिषी मीरा को उनके कृष्ण-प्रेम हेतु अनेकानेक यातना देने के साथ विष का प्याला तक दे दिया और मैं....मैं विवश, असहाय और मूक दर्शक बना रहा। मेरी आत्मा मुझे हर क्षण धिक्कारती रहती है मित्र!
मैंने मीरा के वृंदावन सकुशल पहुँचने और वहाँ निवास करने में परोक्ष रूप से सहायता की है। अपने पत्नी-प्रेम और ईश-भक्ति दोनों के प्रति निष्ठा का अल्प-भागी बनने पर मेरी व्याकुलता अब कुछ कम अवश्य हो गई है।
जानता हूँ मित्र! इतिहास मेरे मूक-प्रेम को कहीं स्थान नहीं देगा..।" और राजा भोज अपने मित्र के कंधे पर अपना शीश रखकर पुनः विलाप करने लगे।