तृप्ति
तृप्ति
बबलू स्कूल से वापस आया तो रोज़ की तरह बैग एक तरफ़ पटका। जूते, बेल्ट, टाई उतार कर कमरे में इधर उधर बिखरा दिए। पानी की बोतल भी एक तरफ लुड़का दी। मम्मी एक गिलास जूस लेकर आई और रोज़ वाली बातें शुरू कर दी। क्या पढ़ा? होमवर्क चेक हुआ? कितने मार्क्स आये? और सबसे अहम, टिफ़िन चेक करते हुए पूछना- लंच फिनिश किया?
सबके जवाब रोज़ जैसे ही मिले सिवाय आख़िरी सवाल के। लंच फिनिश किया का जवाब मिला, "नहीं मम्मी, आज मैंने उस खाने से श्राद्ध कर दिया"।
मम्मी चौंक पड़ी, "क्या? श्राद्ध? क्या बोला? कैसे"?
"मम्मी उसदिन पंडित जी आये थे ना। तब मैंने पूछा था श्राद्ध क्या होता है। तब आपने बताया था कि दादा जी की याद में पंडित जी को खाना खिलाते हैं तो उनको खुशी मिलती है, वहीं भगवान के पास"।
"हाँ, याद है बेटा।"
"तो मम्मी, आज जब मैं स्कूल से उतरा तो गेट पर एक आदमी बैठा था। वो सबसे खाना माँग रहा था। मुझे ना याद आया कि दादा जी ऐसे सबको खाना खिलाते थे। और कहते थे कि इनको खाना खिला कर मुझे दिल से ख़ुशी मिलती है।
इसलिए मैंने अपना लंच उनको दे दिया। दादा जी को खुशी मिली होगी। है ना मम्मी"।
मम्मी ने बबलू को थोड़ी भावुक मुस्कान के साथ उसे चूमते हुए कहा, "हाँ बेटा, तूने सही किया। तेरे दादा जी का असली श्राद्ध तो आज हुआ है। आत्मा तृप्त हो गई होगी उनकी आज।"